हिंदी: राजभाषा या लोकभाषा
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली के एक नामचीन पब्लिक स्कूल के कक्षा तीन के बच्चे को गृह-कार्य डॉयरी में में लिख कर भेजा गया कि बच्चे का ‘श्रुत लेखन’ का टेस्ट होगा। अब बच्चे के माता-पिता दोनों अंग्रेजी माध्यम से पढे हुए और कारपोरेट में नौकरी करने वाले। वे अपने परिचितों को फोन कर पूछते रहे कि यह श्रुत लेख क्या होता है ?
लखनऊ महानगर की सीमा से सटे फैजाबाद मार्ग पर स्थित चिन्हट के एक माध्यमिक स्कूल की कक्षा आठ की एक घटना राज्य में शिक्षण व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी है । स्कूल शुरू होने के कई महीने बाद विज्ञान की किताब के पहले पाठ पर चर्चा हो रही थी । पाठ था पौघों के जीवन का । दूसरे या तीसरे पृष्ठ पर लिखा था कि पौध्ेा श्वसन क्रिया करते हैं । बच्चों से पूछा कि क्या वे भी शवसन करते हैं तो कोई बच्चा यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वे भी शवसन करते है। । यानि जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उसे व्यावहारिक धरातल पर समझाने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं, महज तोता रटन को ही षिक्षा मान लिया जा रहा है ।
मध्य प्रदेश के भोपाल में अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का प्रारंभ इस उद्देश्य से किया गया कि वहां सभी तकनीकी विषयों की शिक्षा हिंदी में दी जाएगी। इसमें कुल 231 पाठ्यक्रम हैं। पिछले साल इसमें से 170 में एक भी प्रवेश नहीं हुआ। 14 कोर्स में केवल एक-एक छात्र है तो 46 पाठ्यक्रम ऐसे हें जिनमें पढ़ने वालों की संख्या दस से भी कम है। जरा गौर करें कि वे बच्चे जो उच्च शिक्षा में अंग्रेी को व्यवधान मानते रहे हैं, बेहद कम फीस के साथ जब हिंदी में शिक्ष की व्यवस्था हुई तो भी वे क्यों नहीं आए ? इसके लिए विश्वविद्यालय की वेबसाईट पर कुछ हिंदी शब्द गौररतलब हैं - भेषज विज्ञान(फार्मेसी), भ्रमणभाष(मोबाईल), अंतरताना(वेबसाईट)। यही कारण है कि यहां पिछले साल अभियांत्रिकी यानि इंजीनियरिंग में सात छात्र थे जो इस साल घट कर दो रह गए हैं।
ये तीन घटनां बानगी हैं कि जब हम हिंदी में संप्रेशण के किसी माध्यम की चर्चा करते हैं, उस पर प्रस्तुत सामग्री पर विमर्ष करते हैं तो सबसे पहले गौर करना होता है कि समीचित माध्यम को पढ़ने- देखने वाले कौन हैं , उनकी पठन क्षमता कैसी है और वे किस उद््ेष्य से इस माध्यम का सहारा ले रहे हैं। जैसे कि अखबार का पाठक अलग होता है जबकि खेती किसानी की पुस्तकों के खरीदार का नजरिया भिन्न। वहीं आफिस की नोटिंग, पत्र का पाठक, लेखक और उसका उद्देश्य अलग होता है। विडंबना है कि हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के सरकारी प्रयासों ने हिंदी को अनुवाद की, और वह भी भाव-विहीन शाब्दीक-संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ऊबाउ भाषा बना कर रख दिया है।
सन 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत , उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे । फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानि भारत के गोबर पट्टी के संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। इधर भक्ति काल का दौर था । । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे -सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु।इसके अलावा कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझा संस्कृति की बात कर रहे थे । इस तरह से हिंदी के उदय ने ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसी लिए हिंदी को प्रतिरोध या पंरपराएं तोडने वाली भाषा कहा जाता हैं। भाषा का अपना स्वभाव होता है अैर हिंदी के इस विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हट कर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है।
आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है उसकी सबसे बडी दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे संस्कृत की स्वभाव शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही । ऐसा नहीं कि आम लेागांे की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तत्दव शब्द जैसे अग्नि से आग, उष्ट से ऊंट आदि । इसमें देशज शब्द भी थे, यानि बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए।
अब राजभाषा में सिखाया जाता है अमुक पंजी के आलेाक में प्रस्तुत आख्या में निर्दिष्ट है इसे ना तोलिखने वाला और ना ही पढने वाला और ना ही जिसके लिए है, वह समझ रहा है, यदि कोई ऐसी नोटिंग सूचना के अधिकार के तहत मांग भी ले तो उसके पल्ले इसका अर्थ नहीं पड़ेगा। यदि आंकड़ो पर भरेसा करें तो हिंदी में अखबार व अन्य पठन सामग्री के पाठक हर साल बढ़ रहे हें लेकिन जब हिंदी में शिखा की बात आती है तो उसके हाल ‘अ.बि. हिंदी विश्वविद्यालय’ जैसे हो जाते हैं। यह जानना और समझना अनिवार्य है कि हिंदी की मूल आत्मा उसकी बोलियां हैं और विभिन्न बोलियों को संविधान सम्मत भाषाओं में शािमल करवाने , बोलियों के लुप्त होने पर बेपरवाह रहने से हिंदी में विदेशी और अग्रहणीय शब्दों का अंबार लग रहा है। भारतीय भाषाओं और बोलियों को संपन्न, समृद्ध करे बगैर हिंदी में काम करने को प्रेरित करना मुश्किल है।
संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी की विकास-यात्रा बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी हैं। ध्वनि-संरचना, शब्द संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि, समास, पद संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक प्रयोग, कुछ पारंपरिक प्रयोग इन दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हुए है, किंतु कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहाँ विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द, वाक्य प्रसारित, प्रचारित हो रहे हैं।
यह चिंता का विश्य है कि समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो षुरू किए लेकिन उनसे स्थानीय भाशा गायब हो गई। जैसे कुछ दषक पहले कानपुर के अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे षब्द होते थे, बिहार में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का समय कहा जाता था। महाराष्ट्र के अखबारों में जाहिरा, माहेती जैसे षब्द होते थे। अब सभी जगह एक जैसे षब्द आ रहे हैं। लगता है कि हिंदी के भाशा-समृद्धि के आगम में व्यवधान सा हो गया है। तिस पर सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतिनिश्ठ हिंदी ला रहे हैं। असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर पेस की हिंदी थी जिसमें कई मात्राओं, आधे षब्दों के फाँट नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाषन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।
असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना, लेन-देन, नए प्रयोग आदि लगे रहते है। यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी।
कुछ लोग हिंदी में से उर्दू के शब्द बीनते दिखते हैं, असल में उर्दू हिंदी से ही उपजी भाषा है जिसका व्याकरण, हिज्जे, सबकुछ एक है-बस लिपि दीगर है। उर्दू भी भारतीय या हिंदुसतानी की तरह विद्रोह की भाषा रही है- 1857 की कं्राति के दौर में र्दउ अखबारों व नज्मों ने अलख जगा दी थी। सनद रहे सन 1905 तक देश में उर्दू में शानदार विज्ञान की किताबें मौजूद थीं। अंग्रेजों ने इसके विद्रेही स्वभाव के चलते इसे दबाना शुरू किया। तभी पंउित नेहरू ने अपने भाषणो में उर्दू के नफीस व सलीकेदार मिश्रण के साथ अपनी तकरीरों को तराशा था। यही कारण है कि उर्दू व हिंदी के शब्दों का आपस में आदान-प्रदान चलता रहता हहै और हिंदी को बहदत संप्रेषित करने में उर्दू के लफ्ज जादुई असर करते हैं। हिंदी को लोकभाषा ही रहने दें उसेे सरकारी ना बनाएं।
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली के एक नामचीन पब्लिक स्कूल के कक्षा तीन के बच्चे को गृह-कार्य डॉयरी में में लिख कर भेजा गया कि बच्चे का ‘श्रुत लेखन’ का टेस्ट होगा। अब बच्चे के माता-पिता दोनों अंग्रेजी माध्यम से पढे हुए और कारपोरेट में नौकरी करने वाले। वे अपने परिचितों को फोन कर पूछते रहे कि यह श्रुत लेख क्या होता है ?
लखनऊ महानगर की सीमा से सटे फैजाबाद मार्ग पर स्थित चिन्हट के एक माध्यमिक स्कूल की कक्षा आठ की एक घटना राज्य में शिक्षण व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी है । स्कूल शुरू होने के कई महीने बाद विज्ञान की किताब के पहले पाठ पर चर्चा हो रही थी । पाठ था पौघों के जीवन का । दूसरे या तीसरे पृष्ठ पर लिखा था कि पौध्ेा श्वसन क्रिया करते हैं । बच्चों से पूछा कि क्या वे भी शवसन करते हैं तो कोई बच्चा यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वे भी शवसन करते है। । यानि जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उसे व्यावहारिक धरातल पर समझाने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं, महज तोता रटन को ही षिक्षा मान लिया जा रहा है ।
मध्य प्रदेश के भोपाल में अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का प्रारंभ इस उद्देश्य से किया गया कि वहां सभी तकनीकी विषयों की शिक्षा हिंदी में दी जाएगी। इसमें कुल 231 पाठ्यक्रम हैं। पिछले साल इसमें से 170 में एक भी प्रवेश नहीं हुआ। 14 कोर्स में केवल एक-एक छात्र है तो 46 पाठ्यक्रम ऐसे हें जिनमें पढ़ने वालों की संख्या दस से भी कम है। जरा गौर करें कि वे बच्चे जो उच्च शिक्षा में अंग्रेी को व्यवधान मानते रहे हैं, बेहद कम फीस के साथ जब हिंदी में शिक्ष की व्यवस्था हुई तो भी वे क्यों नहीं आए ? इसके लिए विश्वविद्यालय की वेबसाईट पर कुछ हिंदी शब्द गौररतलब हैं - भेषज विज्ञान(फार्मेसी), भ्रमणभाष(मोबाईल), अंतरताना(वेबसाईट)। यही कारण है कि यहां पिछले साल अभियांत्रिकी यानि इंजीनियरिंग में सात छात्र थे जो इस साल घट कर दो रह गए हैं।
ये तीन घटनां बानगी हैं कि जब हम हिंदी में संप्रेशण के किसी माध्यम की चर्चा करते हैं, उस पर प्रस्तुत सामग्री पर विमर्ष करते हैं तो सबसे पहले गौर करना होता है कि समीचित माध्यम को पढ़ने- देखने वाले कौन हैं , उनकी पठन क्षमता कैसी है और वे किस उद््ेष्य से इस माध्यम का सहारा ले रहे हैं। जैसे कि अखबार का पाठक अलग होता है जबकि खेती किसानी की पुस्तकों के खरीदार का नजरिया भिन्न। वहीं आफिस की नोटिंग, पत्र का पाठक, लेखक और उसका उद्देश्य अलग होता है। विडंबना है कि हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के सरकारी प्रयासों ने हिंदी को अनुवाद की, और वह भी भाव-विहीन शाब्दीक-संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ऊबाउ भाषा बना कर रख दिया है।
सन 1857 के आसपास हमारी जनगणना में महज एक प्रतिशत लोग साक्षर पाए गए थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद ज्योतिष अंतरिक्ष का ज्ञान हमारे पास नहीं था। वह था- देश की बोलियों में, संस्कृत , उससे पहले प्राकृत या पालि में जिसे सीमित लोग समझते थे, सीमित उसका इस्तेमाल करते थे । फिर अमीर खुसरो के समय आई हिंदी, हिंद यानि भारत के गोबर पट्टी के संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, उनकी बोलियों का एक समुच्चय। इधर भक्ति काल का दौर था । । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे -सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु।इसके अलावा कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझा संस्कृति की बात कर रहे थे । इस तरह से हिंदी के उदय ने ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसी लिए हिंदी को प्रतिरोध या पंरपराएं तोडने वाली भाषा कहा जाता हैं। भाषा का अपना स्वभाव होता है अैर हिंदी के इस विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हट कर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है।
आज जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है उसकी सबसे बडी दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी। सनद रहे संस्कृत की स्वभाव शास्त्रीय है और दरबारी, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही । ऐसा नहीं कि आम लेागांे की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है। उसमें संस्कृत से यथावत लिए गए तत्सम शब्द भी हैं तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आए तत्दव शब्द जैसे अग्नि से आग, उष्ट से ऊंट आदि । इसमें देशज शब्द भी थे, यानि बोलियों से आए स्थानीय शब्द और विदेशज भी जो अंग्रेजी, फारसी व अन्य भाषाओं से आए।
अब राजभाषा में सिखाया जाता है अमुक पंजी के आलेाक में प्रस्तुत आख्या में निर्दिष्ट है इसे ना तोलिखने वाला और ना ही पढने वाला और ना ही जिसके लिए है, वह समझ रहा है, यदि कोई ऐसी नोटिंग सूचना के अधिकार के तहत मांग भी ले तो उसके पल्ले इसका अर्थ नहीं पड़ेगा। यदि आंकड़ो पर भरेसा करें तो हिंदी में अखबार व अन्य पठन सामग्री के पाठक हर साल बढ़ रहे हें लेकिन जब हिंदी में शिखा की बात आती है तो उसके हाल ‘अ.बि. हिंदी विश्वविद्यालय’ जैसे हो जाते हैं। यह जानना और समझना अनिवार्य है कि हिंदी की मूल आत्मा उसकी बोलियां हैं और विभिन्न बोलियों को संविधान सम्मत भाषाओं में शािमल करवाने , बोलियों के लुप्त होने पर बेपरवाह रहने से हिंदी में विदेशी और अग्रहणीय शब्दों का अंबार लग रहा है। भारतीय भाषाओं और बोलियों को संपन्न, समृद्ध करे बगैर हिंदी में काम करने को प्रेरित करना मुश्किल है।
संचार माध्यमों की हिंदी आज कई भाषाओं से प्रभावित है। विशुद्ध हिंदी बहुत ही कम माध्यमों में है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी की विकास-यात्रा बड़ी लंबी है। हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, हिंदी ही अधिकांश लोग बोलते-समझते हैं, इन माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है। इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी हैं। ध्वनि-संरचना, शब्द संरचना में उपसर्ग-प्रत्यय, संधि, समास, पद संरचना, वाक्य संरचना आदि में कुछ मानक प्रयोग, कुछ पारंपरिक प्रयोग इन दृश्य-श्रव्य माध्यमों में हुए है, किंतु कुछ हिंदीतर शब्दों के मिलने से यहाँ विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द, वाक्य प्रसारित, प्रचारित हो रहे हैं।
यह चिंता का विश्य है कि समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो षुरू किए लेकिन उनसे स्थानीय भाशा गायब हो गई। जैसे कुछ दषक पहले कानपुर के अखबारों में गुम्मा व चुटैल जैसे षब्द होते थे, बिहार में ट्रेन-बस से ले कर जहाज तक के प्रारंभ होने के समय को ‘‘खुलने’ का समय कहा जाता था। महाराष्ट्र के अखबारों में जाहिरा, माहेती जैसे षब्द होते थे। अब सभी जगह एक जैसे षब्द आ रहे हैं। लगता है कि हिंदी के भाशा-समृद्धि के आगम में व्यवधान सा हो गया है। तिस पर सरकारी महकमे हिंदी के मानक रूप को तैयार करने में संस्कृतिनिश्ठ हिंदी ला रहे हैं। असल में वे जो मानक हिंदी कहते हैं असल में वह सीसे के लेटर पेस की हिंदी थी जिसमें कई मात्राओं, आधे षब्दों के फाँट नहीं होते थे। आज कंप्यूटर की प्रकाषन-दुनिया में लेड-प्रेस के फाँट की बात करने वाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं।
असल में कोई भी भाषा ‘बहता पानी निर्मला’ होती है, उसमें समय के साथ शब्दों का आना-जाना, लेन-देन, नए प्रयोग आदि लगे रहते है। यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है तो शब्दों का यह लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी। जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप से बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी।
कुछ लोग हिंदी में से उर्दू के शब्द बीनते दिखते हैं, असल में उर्दू हिंदी से ही उपजी भाषा है जिसका व्याकरण, हिज्जे, सबकुछ एक है-बस लिपि दीगर है। उर्दू भी भारतीय या हिंदुसतानी की तरह विद्रोह की भाषा रही है- 1857 की कं्राति के दौर में र्दउ अखबारों व नज्मों ने अलख जगा दी थी। सनद रहे सन 1905 तक देश में उर्दू में शानदार विज्ञान की किताबें मौजूद थीं। अंग्रेजों ने इसके विद्रेही स्वभाव के चलते इसे दबाना शुरू किया। तभी पंउित नेहरू ने अपने भाषणो में उर्दू के नफीस व सलीकेदार मिश्रण के साथ अपनी तकरीरों को तराशा था। यही कारण है कि उर्दू व हिंदी के शब्दों का आपस में आदान-प्रदान चलता रहता हहै और हिंदी को बहदत संप्रेषित करने में उर्दू के लफ्ज जादुई असर करते हैं। हिंदी को लोकभाषा ही रहने दें उसेे सरकारी ना बनाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें