कच्चातिवु को परे रखो चुनावी सियासत से
पंकज चतुर्वेदी
सन 1974 की सरकार का एक फैसला, जिसके बाद लगभग आधे समय गैरकान्ग्रेसी सरकार सत्ता में रही , उसे अचानक सवालों में खड़ा करना असल में सियासत से अधिक है नहीं । यह कड़वा सच है कि हमारे मछुआरे आए दिन श्रीलंका की सीमा में घुस जाते हैं और और फिर उनके नारकीय जीवन के दिन शुरू हो जाते हैं। जैसे तैसे वहाँ की जेलों से छूट भी आते हैं तो उनके जीवनयापन का जरिया नावें वहीं रह जाती हैं । इस त्रासदी के निदान के लिए कच्चातिवु द्वीप एक भूमिका निभा सकता है और यदि उसे वापिस लेने के बजाय वहाँ निराधरित शर्तों के कड़ाई से पालन की बात हो तो भारतीय मछुआरों के लिए उचित ही होगा । लेकिन यह समझना होगा कि यह चुनावी मुद्दा नहीं है क्योंकि भारत ने भी श्रीलंका से इसके एवज में बेशकीमती जमीन ली ही है ।
कच्चातिवु द्वीप 285 एकड़ का हरित क्षेत्र है जो एक नैसर्गिक
निर्माण है और ज्वालामुखी विस्फोट
से 14 वीं सदी में उभरा था । 17 वीं सदी
में इसका अधिकरा मदुरै के राजा रामानद के पास होने के दस्तावेज हैं । ब्रितानी
हुकूमत के दौरान यह द्वीप मद्रास प्रेसीडेंसी की अमानत था । इस पर मछुआरों के
दावों को ले कर सन 1921 में भी सीलोन अर्थात श्रीलंका और भारत के बीच विवाद हुआ था । हालांकि सन
1947 में इसे भारत का हिस्सा माना गया । लेकिन श्रीलंका भए एस पर अपना दावा
छोड़ने को तैयार नहीं था । इंदिरा गांधी के दौर में भारत के
श्रीलंका से घनिष्ट संबंध थे ।
26 जून 1974 को कोलंबो
और 28 जून को दिल्ली में दोनों देशों ने इस विषय पर विमर्श कर एक समझौता किया । कुछ शर्तों के
साथ इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया गया। समझौते के
मुताबिक़ दोनों देशों के मछुआरे कच्चातीवू का उपयोग
आराम करने और अपने जाल सुखाने के के
साथ-साथ वहां सेंट एंथोनी पवित्र स्थान में पूजा कर सकते थे । सन 1983 तक ऐसा होता भी रहा – एक तो उस समय तक भारतीय मछुआरों की संख्या कम थी और
जाफना में अशांति भी नहीं थी । अब श्रीलंका की सेना भारतीय मछुआरों को उधर फटकने
नहीं देती ।
यह सच है कि बीजेपी से जुड़े मछुआरों के संगठन की लंबे समय से मांग रही है कच्चातिवु टापू को यदि वापिस ले लिया जाता है तो भारतीय मछुआरों को जाल
डालने के लिए अधिक स्थान मिलेगा और वे
श्रीलंका की सीमा में गलती से भी नहीं जायेंगे । लेकिन यह भी सच है कि आज
जिस डी एम के को इसके लिए जिम्मेदार कहा जा रहा है, वह सन 74
के बाद कई बार बीजेपी के साथ सत्ता में हिस्सेदार रहा है ।
यह सच है कि तमिलनाडु के मछुआरों का एक वर्ग कच्चातीवू के समझोटे से खुश नहीं था । तभी भारत सरकार और श्रीलंका
के बीच 1976 में एक और करार हुआ जिसके तहत श्रीलंका ने हमें कन्याकुमारी के करीब
वेज बेंक (Wadge Bank )सौंप दिया । यह 3,000 वर्ग किलोमीटर में फैला द्वीप है। इस संधि के कारण भारतीय मछुआरों को
इलाके में मछली पकड़ने का अधिकार मिला। यही नहीं इसके तीन साल बाद श्रीलंकाई मछुआरों के वहां जाने पर
रोक लगा दी गई। वैसे वेज बेंक कच्चातिवु जैसे
निर्जन द्वीप के मुकाबले अधिक सामरिक महत्व और कीमती है ।यहाँ तेल एवं गैस के बड़े भंडार भी मिले हैं । जब कोई कच्चातीवू पर सियासत करेगा तो उसे वेज
बेंक का भी हिसाब करना होगा । असल में इन द्वीपों के बीच वे लाखों तमिल भी है जो
जाफन से आए और भारत में रहे रहे है ।
मछुआरों की समस्या को
समझे बगैर कच्चातिवु के
महत्व को समझा जा नहीं सकता । रामेश्वरम के बाद भारतीय मछुआरों को
अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (आईएमबीएल)
लगभग 12 समुद्री माइल्स मिली है । इसमें भी छोटी नावों के
लिए पहले पांच समुद्री माइल्स छोड़े गए हैं। यहाँ पांच से आठ समुद्री माइल्स के
बीच का क्षेत्र चट्टानी है और मछली पकड़ने के जाल नहीं बिछाए जा सकते। रामेश्वरम
तट से केवल 8-12 समुद्री माइल के बीच लगभग 1,500 मशीनीकृत नौकाओं द्वारा मछलियाँ पकड़ी जाती हैं । गत एक दशक के दौरान हमारे तीन हज़ार से ज्यादा मछुआरे श्रीलंका सेना द्वारा
पकडे गए , कई को गोली लगी व् मारे गए – सैंकड़ों लोग सालों तक जेल में रहे ।
भारत
और श्रीलंका में साझा बंगाल की खाड़ी के किनारे रहने वाले लाखों परिवार सदियों से समुद्र में मिलने
वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। जैसे कि मछली को पता नहीं कि वह
किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे
ही भारत और श्रीलंका की सरकारें भी तय नहीं कर पा रही हैं कि आखिर समुद्र के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए।
यह भी कड़वा सच है कि
जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर
तक तेल रिसने ,शहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूषणों के कारण
समुद्री जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया
है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और
बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले सागर में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव
होता है । जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे
पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा
तलाशी करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास
पैसा-कौडी तो होता नहीं, सो ये ‘‘गुड
वर्क’’ के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिये, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते हैं।
दोनों देशों के बीच
मछुआरा विवाद की एक बड़ी वजह हमारे मछुआरों द्वारा इस्तेमाल नावें और तरीका भी है , हमारे लोग बोटम ट्रालिंग के जरिये मछली
पकड़ते हैं, इसमें नाव की तली से वजन बाँध कर जाल फेंका जाता है .अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर इस तरह से मछली पकड़ने को पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नुकसानदेह कहा जाता है
. इस तरह जाल फैंकने से एक तो छोटी और अपरिपक्व मछलिया जाल में फंसती हैं, साथ ही
बड़ी संख्या में ऐसे जल-जीव भी इसके शिकार होते हैं जो मछुआरे के लिए गैर उपयोगी
होते हैं . श्रीलंका में इस तरह की नावों पर पाबंदी हैं, वहाँ गहराई में समुद्-तल
से मछलियाँ पकड़ी जाती हैं और इसके लिए नई तरीके की अत्याधुनिक नावों की जरूरत होती
है . भारतीय मछुआरों की आर्थिक स्थिति इस तरह की है नहीं कि वे इसका खर्च उठा सकें
. तभी अपनी पारम्परिक नाव के साथ भारतीय मछुआर जैसे ही श्रीलंका में घुसता है , वह
अवैध तरीके से मछली पकड़ने का दोषी बन जाता है
वैसे भी भले ही तमिल इलम आंदोलन का अंत हो गया हो लेकिन श्रीलंका के
सुरक्षा बल भारतीय तमिलों को संदिग्ध नज़र से देखते हैं .
भारत-श्रीलंका जैसे
पडोसी के बीच अच्छे द्विपक्षीय संबंधों की सलामती के लिए कच्चातिवु द्वीप
और मछुआरों का विवाद एक बड़ी चुनौतियों है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन द
लॉ ऑफ सीज़ (यू एन सी एल ओ एस) के अनुसार जल सीमा
निर्धारण और उस द्वीप को वापिस लेना इतना सरल नहीं है लेकिन समझौते की शर्तों पर गंभीरता से याद दिलाया
जाये, हमारे मछुआरे फिर से उसका इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं । सनद रहे सन 2015 में
ही हमने बांग्ला देश के साथ भूमि लेन –देन का बड़ा समझोत किया । यदि पूर्ववर्ती सरकारों
के अंतर्राष्ट्रीय समझोतों को चुनावी
चुग्गा बनाया जाएगा तो हमारी दुनिया में
साख ही गिरेगी ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें