आखिर
क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ?
पंकज
चतुर्वेदी
गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई और नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हालांकि सरकार की कार्यवाही में बीते दो महीनों में 52 नक्सली मारे गए और कई बड़े नाम आत्मसमर्पण कर चुके हैं । 29 तो अकेले एक ही मुठभेड़ में 16 अप्रेल को कांकेर जिले में मारे गए. छत्तीसगढ़ में नई सरकार बनते ही उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने दो बार मंशा जाहिर की कि सरकार बातचीत के जरिए नक्सली समस्या का निदान चाहती है । अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नक्सलियों के गढ़ दँतेवाड़ा में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने नक्सलियों से हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करते हुए आश्वासन दिया था कि उनकी सरकार उनके साथ बातचीत के लिए तैयार हैऔर वह हर जायज मांग को मानेगी । इसके बाद 21 मार्च को दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता विकल्प ने पत्र जारी कर कहा कि हम सरकार से बातचीत को तैयार हैं लेकिन सरकार पहले हमारी शर्तों को माने. शर्तों में सुरक्षा बलों के हमले बंद करना, गरीब आदिवासियों को झूठे मामलों में फँसने से रोकने जैसी बाते हैं । इधर बातचीत की तयारी चल रही थी और दूसरी तरफ बस्तर की सीमा से लगे गढ़चिरोली में एक साथ कई कथित नक्सली मार दिए गये . उसके बाद 10 अप्रैल को नक्सलियों ने पर्चा जारी कर इसे सरकार की बातचीत की आड़ में धोखाधड़ी बताया . 16 अप्रैल की घटना को भी नक्सली धोखे से फंसा कर की गई फर्जी मुठभेड़ कह रहे हैं और इससे बातचीत का प्रस्ताव फिर से पटरी से नीचे उतरता दिख रहा है .
समझना होगा कि नक्सली कई कारणों से दवाब में हैं । सरकार की स्थानीय आदिवासियों को फोर्स मे भर्ती करने की योजना भी कारगर रही है । एक तो स्थानीय लोगों को रेाजगार मिला, दूसरा स्थनीय जंगल के जानकार जब सुरक्षा बलों से जुड़ै तो अबुझमाड़ का रास्ता इतना अबुझ नहीं रहा। तीसरा जब स्थानीय जवान नक्सली के हाथों मारा गया और उसकी लाश गांव-टोले में पहुंची तो ग्रामीणें का रोष नक्सलियों पर बढ़ा। एक बात जान लें कि दंडकारण्य में नक्सलवाद महज फेंटेसी, गुंडागिर्दी या फैशन नहीं है । वहां खनज और विकास के लिए जंगल उजाड़ने व पारंपरिक जनजाति संस्कारों पर खतरे तो हैं और नक्सली अनपढ़- गरीब आदिवासियों में यह भरोसा भरने में समर्थ रहे है। कि उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के लिए ही उन्होंने हथियार उठाए हैं। यह भी कड़वा सच है कि नक्सलविरोधी कार्यवाही में बड़ी संख्या में निर्दोष लोग भी जेल में हैं व कई मारे भी गए, इसी के चलते अभी सुरक्षा बल आम लोगों का भरोसा जीत नहीं पाए हैं। लेकिन यह सटीक समय है जब नक्सलियों को बातचीत के लिए झुका कर इस हिंसा का सदा के लिए अंत कर दिया जाए।
बस्तर में लाल-आतंक का इतिहास महज चालीस साल
पुराना है। बीते बीस सालों में यहां लगभग 15 हजार लोग
मारे गए जिनमें 3500 से अधिक सुरक्षा बल के लोग हैं। बस्तर
से सटे महाराष्ट्र , तेलंगाना, उड़ीसा,
झारखंड और मध्यप्रदेश में
इनका सशक्त नेटवर्क है । समय-समय पर विभिन्न अदालतों में यह भी सिद्ध होता रहा है
कि प्रायः सुरक्षा बल बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार देते है।। वहीं घात
लगा कर सुरक्षा बलों पर हमले करना, उनके हथियार छीनना भी
यहां की सुखिर्यों में है। दोनो पक्षों के पास अपनी कहानियां हैं- कुछ सच्ची और
बहुत सी झूठी।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलियों का पुराना नेतृत्व अब कमजोर पड़ रहा है और नया कैडर अपेक्षाकृत कर आ रहा है। ऐसे में यह खतरा बना रहता है कि कहीं जन मिलिशिया छोटे-छोटे गुटों में निरंकुश ना हो जाएं । असंगठित या छोटे समूहों का नेटवर्क तलाशना बेहद कठिन होगा। बस्तर अंचल का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर है और उसके बड़े इलाके में अभी भी मूलभूत सुविधांए या सरकारी मशीनरी दूर-दूर तक नहीं है।
नक्सली कमजोर तो हुए हैं लेकिन अपनी हिंसा से बाज
नहीं आ रहे। कई बार वे अपने अशक्त होते
हालात पर पर्दा डालने के लिए कुछ ना कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनका आतंक कायम रहे।
याद करें 21 अक्तूबर 2016 को
न्यायमुर्ति मदन लौकुर और एके गोयल की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में राज्य
सरकार के वकील को सख्त आदेष दिया था कि पुलिस कार्यवाही तात्कालिक राहत तो है लेकिन
स्थाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत
की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थाई हल निकालना चाहिए। हालांकि
सरकारी वकील ने अदालत को आश्वस्त किया
था कि वे सुप्रीम कोर्ट की मंशा उच्चतम स्तर तक पहुंचा देंगे। लेकिन तत्कालीन सरकार के स्तर पर ऐसे कोई प्रयास नहीं हुए जिनसे
नक्सल समस्या के शांतिपूर्ण समाधान का कोई
रास्ता निकलता दिखे। दोनो तरफ से खून यथावत बह रहा है और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
किसी लाल बस्ते में कराह रहे हैं ।
बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है
कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों
नहीं जोड़ा जाए। हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व
आदिवासी समाज चिंता जताता रहा है कि अरण्य मे लगातार हो रहे खूनखराबे से
आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी परिणति है कि आदिवासियों की बोली, संस्कार , त्योहार, भोजन सभी
कुछ खतरे में हैं। यदि ईमानदार कोशिश की जाए तो नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें
हथियार डाल कर देश की लोकतांत्रिक मुख्य
धारा में शामिल होने के लिए राजी किया जा सकता है ।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की 18 साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही
झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’
विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल
गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक
गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा
था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर
में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची,
धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली
लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता
नहीं है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों
में शांति के लिए हाथ में क्लाषनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल
बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते
करती है। प्रधानमंत्री निवास पर उन अलगाववादियों को बाकायदा बुलाया जाता है और उनके साथ हुए समझौतों को गोपनीय रखा
जाता है जो दूर देश में बैठ कर भारत में
जमकर वसूली, सरकारी फंड से चौथ वसूलने और गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों पर हमला कर
उनके हथियार लूटने का काम करते हैं। फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि
उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते
हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए
है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल
में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं। जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके
हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इऐसे प्रयास क्यों नहीं हुए ?
हालांकि पूर्व में एक -दो बार बातचीत की कोशिश
हुई लेकिन कहा जाता है कि इसके लिए जमीन
तैयार करने वाले लोगों को ही दूसरे राज्य की पुलिस ने मार गिराया। कई बार लगता है
कि कतिपय लोगों के ऐसे स्वार्थ निहित हैं जिनसे वे चाहते नहीं कि जंगल में शांति हो। लेकिन यह भी सच है कि दुनिया की हर हिंसा का निदान अंत में एकसाथ बैठ कर शांति से ही
निकला है। वाकई नक्सली भी अब देश-विरोधी खून खराबे से तौबा करना चाहते हैं तो
उन्हें भी हथियार पड़े रखने की पहल करनी होगी ।
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