बहुत
कठिन है स्कूल तक की राह !
पंकज
चतुर्वेदी
दिल्ली के करीब हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के कनीना में उन्हानी के पास सड़क
हादसे में 6 बच्चों
की मौत हो गई। 15 से अधिक बच्चे गंभीर रूप से घायल हैं । चूंकि माहौल चुनाव का
है सो प्रधानमंत्री से ले कर विधायक तक सक्रिय हो गये । कुछ कार्यवाही होती भी दिख
रही है । जरा सोचें- सारे देश में ईद के चलते सरकारी छुट्टी लेकिन हरियाणा का जी
एल स्कूल खुला रहा। जो बस सड़क पर चल रही थी , उसका अनफ़ित होने के
कारण एक महीने पहले भी 15 हजार का चालान हुआ था।
बच्चे भी जानते थे और पालक भी कि बस चलाने वाला शराब पिए है और उसकी
ड्राइविंग बेलगाम थी, इसके बावजूद बस सड़क पर चलती रही । अभी इस दुर्घटना के बाद
सड़कों पर बसों की जांच और चालान की
औपचारिकता चल ही रहीथी कि यमुना नगर में
स्कूली बच्चों से भरा एक तिपहिया पलट गया जिसमें एक बच्ची की मौत हो गई। सात बच्चे
अस्पताल में भर्ती है । जो वाहन महज तीन सवारी के लिए परमिट प्राप्त है, उसमें 12
से अधिक बच्चे भरे थे । सड़क पर चलने के
लिए नाकाबिल वाहन , क्षमता से अधिक बच्चे
, बेतहाशा गति , अकुशल चालक – स्कूल जाने
वाले बच्चों को लाने ले जाने में लिप्त वाहनों के मामले में सारे देश की यही एक सी
तस्वीर है।
दिल्ली के वजीराबाद
पल पर लुडलो केसल स्कूल की बस के दुर्घटनाग्रस्त होने पर 28 बच्चों की मौत के बाद
सन 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूली बसों के लिए दिशा निर्देश जारी किए थे । इसके
अनुसार स्कूल बस पीले कलर की होनी चाहिए। इसके साथ ही उस पर स्कूल बस जरूर लिखा
होना चाहिए। बस में फर्स्ट-एड- बॉक्स होना जरूरी है और बस की खिड़की में ग्रिल लगी
होनी चाहिए। इसके साथ ही बस में आग बुझाने वाला यंत्र भी लगा होना चाहिए। स्कूल बस
पर स्कूल का नाम और टेलीफोन नंबर भी होना चाहिए। यही नहीं दरवाजों पर ताले लगे हों
और बस में एक अटेंडेंट भी हो । सबसे बड़ी बात
कि अधिकतम स्पीड 40 किलोमीटर प्रति घंटा होनी चाहिए। यह निर्देश दिल्ली में
ही हवा-हवाई हैं ।
और अब तो स्कूल
पहुँचने की राह में बड़ा खतरा ओमनी
वेन हैं जिसमें अतिरिक्त सीटें लगा कर
क्षमता से दोगुने नहीं तीन गुण अधिक बच्चे बैठना, उनकी अंधाधुंध स्पीड और सबसे
अधिक उसके चालकों का संदिग्ध व्यवहार नए
किस्म का खतरा है । देश में आए रोज बच्चों के यौन शोषण में ऐसे वाहन चालकों की
संलिप्तता सामने आती है । बसों के मामलों में तो स्कूल को जिम्मेदार बना दिया जा
सकता है लेकिन वेन में ओवर लोडिंग, दुर्व्यवहार और दुर्घटना होने पर स्कूल हाथ झटक कर अलग हो जाते हैं ।
बीते कुछ सालों में बैटरी चालित रिक्शा स्कूल की राह का एक खतरनाक साथी बना है।
इसमें बेशुमार संख्या में बच्चों को भरना, प्रतिबंधित या तेज गति के वाहनों वाली
सड़क पर संचालन करना और अनाड़ी चालक होने के कारण इनके खूब एक्सीडेंट हो रहे हैं । यह बानगी है कि बच्चों के स्कूल
पहुंचने का मार्ग कितना खतरनाक और आशंकाओं से भरा है।
बीते कुछ सालों के दौरान आम आदमी शिक्षा के प्रति
जागरूक हुआ है, विध्यालयों में बच्चों का पंजीकरण बढ़ा है।
स्कूल में ब्लेक बोर्ड, शौचालय , बिजली,
पुस्तकालय जैसे मसलों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं, लेकिन जो सबसे गंभीर मसला है कि बच्चे स्कूल तक सुरक्षित कैसे पहुंचें? इस
पर ना तो सरकारी और ना ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो पा रहा है। इसी की परिणति
है कि आए रोज देशभर से स्कूल आ-जा रहे बच्चों की जान जोखिम में पड़ने के दर्दनाक
वाकिए सुनाई देते रहते हैं। परिवहन को प्रायः पुलिस की ही तरह खाकी वर्दी पहनने
वाले परिवहन विभाग का मसला मान कर उससे मुंह मोड़ लिया जाता है। असली सवाल तो यह है
कि क्या दिल्ली ही नहीं देशभर के बच्चों को स्कूल आने-जाने के सुरक्षित साधन मिले
हुए हैं । भोपाल, जयपुर जैसे राजधानी वाले शहर ही नहीं,
मेरठ, भागलपुर या इंदौर जैसे हजारों शहरों से
ले कर कस्बों तक स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसको देखते हुए बच्चों के सुरक्षित, सहज और सस्ते
आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद है ।
दिल्ली का वसंत कुंज धनवान लोगों की बस्ती है और
यहाँ कोई डेढ़ किलोमीटर दायरे में 35 बड़े स्कूल हैं । इनके खुलने और बंद होने का
समय लगभग समान है । सुबह के समय यहाँ की सड़कों पर महंगी गाड़ियों की रेस देखी जा
सकती है, ये गाड़ियां बच्चों को समय अपर स्कूल छोड़ने के लिए घर से देर से निकलने
वाले धनाढ्य लोगों की होती हैं । सुबह स्कूल खुलने और दिन में छुट्टी के समय सारा
वसंत कुंज जाम रहता है और गाड़ियों, बसों के बीच धींगा मुष्टि चलती है । यही हाल दिलशाद
गार्डन के है, यहाँ से सटे साहिबाबाद के
हैं और जयपुर और भोपाल के भी हैं । यहां निजी स्कूलों में हजारों बच्चे पढ़ते हैं ,
स्कूलों की अपनी बसों की संख्या बामुश्किल 20 हैं , यानी 1000-1500 बच्चे इनसे स्कूल आते हैं । शेष का
क्या होता है ? यह देखना रोंगेटे खड़े कर देने वाला होता हैं
। सभी स्कूलों का समय लगभग एक ही हैं , सुबह साढ़े सात से आठ
बजे के बीच । यहां की सड़कें हर सुबह मारूती वेन, निजी
दुपहिया वाहनों और रिक्शों से भरी होती हैं और महीने में तीन-चार बार यहां घंटों जाम लगा होता हैं । पांच लोगों के
बैठने के लिए परिवहन विभाग से लाईसेंस पाए वेन में 12 से 15 बच्चे ठुंसे होते हैं । बैटरी रिक्शे में दस बच्चे ‘‘आराम’’ से घुसते
हैं। दुपहिया पर बगैर हैलमेट लगाए अभिभावक तीन-तीन बच्चों को बैठाए रफ्तार से सरपट
होते दिख जाते हैं । आए रोज एक्सीडेंट होते हैं, क्योंकि ठीक
यही समय कालोनी के लोगों का अपने काम पर जाने का होता हैं । ऐसा नहीं है कि स्कूल
की बसें निरापद हैं , वे भी 52 सीटर
बसों में 80 तक बच्चे बैठा लेते हैं । यहां यह भी गौर करना
जरूरी है कि अधिकांश स्कूलों के लिए निजी
बसों को किराए पर ले कर बच्चों की ढुलाई करवाना एक अच्छा मुनाफे का सौदा है। ऐसी
बसें स्कूल करने के बाद किसी रूट पर चार्टेड की तरह चलती हैं। तभी बच्चों को
उतारना और फिर जल्दी-जल्दी अपनी अगली ट्रिप करने की फिराक में ये बस वाले यह ध्यान
रखते ही नहीं है कि बच्चों का परिवहन कितना संवेदनषील मसला होता है ।
इस दिशा में सबसे पहले तो विधीयले से बच्चे के घर
की दूरी अधिकतम तीन से पाँच किमी का फार्मूला लागू करना चाहिए । स्कूल का समय सुबह
10 बजे से करना, बच्चों के आवागमन के लिए सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करना,
स्कूली बच्चों के लिए
प्रयुक्त वाहनों में ओवरलोडिंग या अधिक रफ्तार से चलाने पर कड़ी सजा का
प्रावधान करना, रिक्शा जैसे असुरक्षित साधनों पर या तो रोक
लगाना या फिर उसके लिए कड़े मानदंड तय करना समय की मंाग हैं । सरकार में बैठे लोगों
को इस बात को आभास होना आवश्यक है कि बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं तथा उन्हें
पलने-बढ़ने-पढ़ने और खेलने का अनुकूल वातावरण देना समाज और सरकार दोनों की नैतिक व विधायी जिम्मेदारी हैं । नेता अपने
आवागमन और सुरक्षा के लिए जितना धन व्यय करते हैं, उसके कुछ
ही प्रतिशत धन से बच्चों को किलकारी के साथ स्कूल भेजने की व्यवस्था की जा सकती
हैं ।
पंकज चतुर्वेदी
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