छोटी नदियों की
बेपरवाही से सूख रही हैं बड़ी नदियां
पंकज चतुर्वेदी
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की
ओर से जारी आंकड़ों के विश्लेषण के बाद यह बात सामने रही है कि हमारी नदियां मौसम से पहले तेजी से सूख रही हैं । अभी तो
चैत शुरू हुआ है , सावन से पहले नदी में जल भरने लायक बरसात होने में अभी कम से कम
सौ दिन हैं । चिंता की बात यह है कि बर्फ से ढंके
हिमालय से निकलने वाली नदियों- गंगा-यमुना के जल - विस्तार क्षेत्र में
सूखा अधिक गहराता जा रहा है । यह सरकार की भी चिंता है कि गंगा बेसिन के 11 राज्यों के लगभग 2,86,000 गांवों में पानी की
उपलब्धता धीरे-धीरे घट रही है। एक तो यह समझना होगा कि नदियों में घटता बहाव कोई
अचानक इस साल नहीं आ गया – यह साल दर साल घाट रहा है और दूसरी बात नदी धार के कम
होने का सारा दोष प्रकृति या जलवायु परिवर्तन पर डालना ईमानदारी नहीं होगा .
हमारे देश
में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र
हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर
नदियों में आता है। इसमें हिंमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि षामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग
किलोमीटर से बड़ा होता है , उन्हें बड़ा-नदी
जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किजरेमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल
ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा , ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल
ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन
सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः बरसात पर निर्भर होती
हैं।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल
भौगोलिक क्षेत्रफल 32। 80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को
सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30। 50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर
साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4। 445
प्रतिशत है। आंकडों के आधार पर हम पानी के
मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय
यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता
है और नदियां सूखी रह जाती हैं। जब छोटी नदियाँ थीं तो इस पानी के बड़े हिस्से को
अपने आँचल में संभल कर रख लेती थीं.
नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी
चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल
के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट
हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूशण।
धरती के
तापमान में हो रही बढ़ौतरी के चलते मौसम में बदलाव
हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर
बेहद कम। मानसून के तीन महीनों में
बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधुंध बारिश हो जाना
या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए
अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम
बहाव 4। 7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा , सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा
वाला है सो इसमें जल बहाव 2। 6 लख घनमीटर प्रति वर्ग किमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0। 6 लख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य
कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण
नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ hui व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।
यदि उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ मंडलों की गैर हिमानी नदियों की दुर्गति पर गौर करें तो
समझ या जाएगा कि आखिर गंगा बेसिन में जल संकट क्यों है ? अल्मोड़ा के जागेश्वर में
जाता गंगा का प्रवाह कभी 500 लीटर प्रति सेकेंड था जो आज महज 18 लीटर रहा गया। ऐसे
ही कोसी की 30 सहायक नदियाँ लगभग लुप्त ही हो गई हैं कोसी की सहायक कुंजगढ़ नदी में
अब आठ लीटर प्रति सेकंड का भाव है । सनद रहे गैर हिमानी नदियां प्रायः झरनों या
भूमिगत जल स्रोतों से उपजती हैं और सालभर इनमें जल रहता है । जान कर आश्चर्य होगा
कि जो विशाल गंगा मैदानी इलाकों में आती है, उसमें 80 फीसदी जल गैर-हिमानी नदियों
से आता है । हिमनद से सीधे मिलने वाला जल तो महज बीस फीसदी ही होता है ।
एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी
नदियाँ हैं , जो उपेक्षित है , उनके अस्तित्व पर खतरा है । उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला
कर ) कोई छः हज़ार नदियाँ हिमालय से उतर कर
आती थी, आज इनमें से महज 400 से 600 का ही अस्तित्व बचा है । मधुबनी, सुपौल
में बहने वाली तिलयुगा नदी
कभी कौसी से भी विशाल हुआ करती थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है । सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई। नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड
के दर्द साथ –साथ चलने की कहानी देश के हर
जिले और कसबे की है । लोग पानी के लिए
पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है , उन्हें यह समझने में दिक्कत हो
रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार तभी
लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया हंसती खेलती हो ।
इन
दिनों बिहार के 23 जिलों में बहने वाली 24 नदियां
सूख कर सपाट मैदान हो गई। इनमें से उत्तर
बिहार की 16 और दक्षिण बिहार की आठ नदियां हैं । इन सभी
नदियों की कुल लंबाई 2986 किलोमीटर
है। इसमें लगभग 670 किलोमीटर क्षेत्र में
गाद भर गया है।
उत्तरी बिहार के समस्तीपुर व बेगूसराय में बैती, मुजफ्फरपुर में बलान, सीतामढ़ी और दरभंगा में बूढ़, पश्चिमी चंपारण में
चंद्रावत (कोढ़ा सिकरहना), खगड़िया और समस्तीपुर
में चान्हो, गोपालगंज और सारण में दाहा नदी जल-हीन हो गई तो पूर्वी चंपारण में डोरवा, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर में जमुआरी, रोहतास में काव, भागलपुर में खलखलिया, मुजफ्फरपुर व
समस्तीपुर में लखनदेई, सारण में माही, गोपालगंज और सीवान
में तेल, कटिहार और किशनगंज में रामदान (रमजान), दरभंगा व मधुबनी में
पुरानी कमला तथा अररिया में नूना नदी का नामों निशान मीट गया । दक्षिण बिहार के गया में बंधिया, जहानाबाद, नालंदा व पटना में फल्गु, नालंदा में गोइठवा, गया और जहानाबाद में
मोहड़ा (मोहरर), कैमूर में सुआरा, नालंदा और पटना में
सकरी, नालंदा और नवादा में पंचाने तथा गया में पैमार नदी सूख गई ।
अंधाधुंध रेत खनन , जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में
स्थाई निर्माण , ही छोटी नदी के सबसे बड़े
दुश्मन हैं – दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं
हैं,
उनको शातिर तरीके से
नाला बता दिया जाता है । जिस
साहबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड
ही नहीं हैं। झारखण्ड- बिहार में बीते
चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई । हम यमुना में पैसा लगाते
हैं लेकिन उसमें जहर ला रही सखा-सहेली हिंडन, काली को और गंदा करते
हैं – कुल मिला कर यह नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा
है ।
वैसे तो हर नदी समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरुरी है ,
लेकिन छोटी नदियों पर ध्यान देना अधिक जरुरी है ।
गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है , पर
ये नदियाँ बड़ी इसी लिए बनती है क्योंकि
इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो
बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी , यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी
को प्रभावित करेगा ।
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