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सोमवार, 13 मई 2024

Will the Muslim population really exceed that of Hindus in India ?

 

क्या सच में मुस्लिम आबादी हिन्दू से अधिक हो जाएगी ?

पंकज चतुर्वेदी



जब चुनाव के तीन चरण बीत गए तो दिल्ली के सेंट्रल विस्टा निर्माण का काम देखने वाले  रत्न वतल  जैसे नौकर शाहों  की जमात – प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने अचानक एक रिपोर्ट जारी कर दी और हल्ला हो गया  भारत में जल्द ही मुसलमान  बहुसंख्यक हो जाएंगे. आजाद भारत में यह पहली बार हो रहा है कि सन  2011 के बाद जनगणना ही नहीं हुई जो कि सन 2021 में हो जानी थी । जाहीर है कि किसी भी तरह का जनसांखिकीय  आकलन के लिए फिलहाल प्रामाणिक आधारभूत आँका  सन 2011 वाला ही है । 

2011 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी में  मुसलमानों का हिस्सा बढ. गया है। 2001 में कुल आबादी में मुसलमान 13.4 प्रतिशत थे, जो 2011 में बढ कर 14.2 प्रतिशत हो गए थे ।  उल्लेखनीय है कि इस अवधि में घुसपैठ से ग्रस्त असम में 2001 के 31 प्रतिशत मुसलमान की तुलना में 2011 में ये बढ कर 34 प्रतिशत के पार हो गए थे । ठीक यही हाल  पश्चिम बंगाल में 25.2 प्रतिशत से बढकर 27 का रहा । सन 1961 से 2011 तक की जनगणना के आँकड़े  बोलते हैं कि इन 50 वर्षों के दौरान भारत में हिंदुओं की आबादी कुछ कम हुई है, जबकि मुसलमानों की कुछ बढ़ी है। यह भी तथ्य है कि बीते दस सालों के दौरान मुस्लिम और हिंदू आबादी का प्रतिशत स्थिर है। अगर जनसंख्या वृद्धि की यही रफ्तार रही तो मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं के बराबर होने में 3626 साल लग जाएंगे। वैसे भी समाजविज्ञानी यह बता चुके हैं कि सन् 2050 तक भारत की आबादी स्थिर हो जाएगी और उसमें मुसलमानों का प्रतिशत 13-14 से अधिक नहीं बनेगा। इन आंकड़ों में यह भी कहा गया है कि जहां हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट 3.16 प्रतिशत है तो मुसलमानें में इस दर की गिरावट 4.90 प्रतिशत है। साफ है कि मुसलमानें की आबादी बढ़ने से रही।

यदि जनसंख्या की बात करें तो केंद्र सरकार के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय  द्वारा आयोजित  राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण नेशनल हेल्थ सर्वे (एन एच एस आर )की रिपोर्ट के आंकड़ों को प्रामाणिक माना जा सकता है । यह रिपोर्ट कहती है कि  देश में 2019-21 के दौरान हिंदुओं में प्रजनन दर 1.94 व मुस्लिमों में 2.36 रह गई। यानी हर हिंदू महिला के औसतन 2 बच्चे व मुस्लिम महिलाओं के 2 से ज्यादा बच्चे हैं। 1992 में मुस्लिमों में प्रजनन दर 4.4 व हिंदुओं में 3.3 थी। वैसे देश की कूल मिला कर प्रजनन दर 2.3 हो गई है । अर्थात औसतन एक जोड़े के  2.3 बच्चे । यह आंकड़ा 1992-93 में 4.4 था । यह सच है कि अन्य संप्रदायों की तुलना में मुस्लिम प्रजनन दर अधिक है लेकिन यह साल दर साल घट भी रही है। समझना होगा कि  जनसंख्या का  बाकी संप्रदायों के मुकाबले मुस्लिमों में प्रजनन दर सबसे ज्यादा है लेकिन इसका असल कारण  शिक्षा और आर्थिक स्थिति है  और जैसे जैसे मुस्लिम महिलाओं की शैक्षिक स्थिति सुधार रही है , उनके यहाँ परिवार नियोजन भी बढ़ रहा है । यह आंकड़ा भी एन एच एस आर में ही दर्ज है । 2019-21 में अनपढ़ मुस्लिम महिलाएं घटकर 21.9% रह गईं, जो 2015-16 में 32% तक थीं। अनपढ़ महिलाओं में औसत प्रजनन दर 2.8 व 12वीं या ज्यादा पढ़ी महिलाओं में 1.8 होती है। गर्भनिरोधक साधन इस्तेमाल करने वाले मुस्लिम 2019-21 में 47.4% हो गए, जो 2015-16 में 37.9% थे।

विशेषज्ञों का कहना है कि हिंदुओं व मुस्लिमों के बीच प्रजनन दर का अंतर तेजी से कम हो रहा है। ज्यादा प्रजनन दर के पीछे गैर धार्मिक कारण अधिक जिम्मेदार हैं- जैसे, शिक्षा, रोजगार व कमाई का स्तर और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच। जिन राज्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य और संपन्नता का स्तर बेहतर है, वहां स्थिति अच्छी है। जैसे- केरल में मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर 2.25 है, जबकि बिहार में यह 2.88 तक रिकॉर्ड हुई है।

 सन 2005 में किया गया एक शोध बानगी है कि ( आर. बी. भगत और पुरुजित प्रहराज) इस बवाल में कितनी हकीकत है और कितना फसाना। उस समय मुसलमानों में जनन दर (एक महिला अपने जीवनकाल में जितने बच्चे पैदा करती है) 3.6 और हिंदुओं में 2.8 बच्चा प्रति महिला थी। यानी औसतन एक मुस्लिम महिला एक हिंदू महिला के मुकाबले अधिक से अधिक एक बच्चे को और जन्म देती है। यानि दस बच्चों वाला  गणित कहीं भी तथ्य के सामने टिकता नहीं है।

        भारत सरकार की जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि 1971 से 81 के बीच हिंदुओं की जन्मदर में वृद्धि का प्रतिशत 0.45 था, लेकिन मुसलमानों की जन्मदर में 0.64 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। गत् 20 वर्षों के दौरान मुसलमानों में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी का प्रचलन लगभग 11.5 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि हिंदुओं में यह 10 प्रतिशत के आसपास रहा है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जनसंख्या वृद्धि की दर को सामाजिक-आर्थिक परिस्थितयां सीधे-सीधे प्रभावित करती हैं।

एक बात और गौर करने लायक है कि बांग्लादेश  की सीमा से लगे पश्चिम बंगाल के छह, बिहार के चार और असम के 10 जिलों की आबादी के आंकड़ों पर निगाह डालें तो पाएंगे कि गत 30 वर्षों में यहां मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी र्-इतनी तेजी से कि वहां के बहुसंख्यक हिंदू, अब अल्पसंख्यक हो गए। असम और बंगाल के कुछ जिलों में तो मुस्लिम आबादी का उफान 100 फीसदी से अधिक हे। असल में ये अवैध विदेशी घुसपैठिये हैं। जाहिर है कि ये आबादी भी देश की जनगणना में जुड़ी है और यह बात सरकार में बैठे सभी लोग जानते हैं कि इस बढ़ोतरी का कारण गैरकानूनी रूप से हमारे यहां घुस आए बांग्लादेशी हैं। महज वोट की राजनीति और सस्ते श्रम (मजदूरी) के लिए इस घुसपैठ पर रोक नहीं लग पा रही है, और इस बढ़ती आबादी के लिए इस देश के मुसलमानों को कोसा जा रहा है। इस जंनसंख्या में भी स्पष्ट  है कि देश में मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी के सबसे ज्यदा जिम्म्ेदार राज्य बंगाल और असम हैं।

एक यह भी खूब हल्ला होता है कि मुसलमान परिवार नियोजन का विरोध करता है - ‘बच्चे तो अल्लाह की नियामत हैं। उन्हें पैदा होने से रोकना अल्लाह की हुक्म उदूली होता है। यह बात इस्लाम  कहता है और तभी मुसलमान खूब-खूब बच्चे पैदा करते हैं।’ इस तरह की धारणा या यकीन देश में बहुत से लोगों को है और वे तथ्यों के बनिस्पत भावनात्मक नारों पर ज्यादा यकीन करने लगते हैं। वैसे तो जनगणना के आंकड़ों का विश्लेषण साक्षी है कि मुसलमानों की आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि या उनकी जन्म दर अधिक होने की बात तथ्यों से परे है। साथ ही मुसलमान केवल भारत में तो रहते नहीं है या भारत के मुसलमानों की ‘शरीयत’ या ‘हदीस’ अलग से नहीं है। इंडोनेशिया, इराक, टर्की, पूर्वी यूरोप आदि के मुसलमान नसबंदी और परिवार नियोजन के सभी तरीके अपनाते हैं। भारत में अगर कुछ लोग  इसके खिलाफ है तो इसका कारण धार्मिक नहीं बल्कि अज्ञानता और अशिक्षा है। गांवों में ऐसे हिंदुओं की बड़ी संख्या है जो परिवार नियोजन के पक्ष में नहीं हैं।

यदि धार्मिक आधार पर देखें तो  इस्लाम का परिवार नियोजन विरोधी होने की बात महज तथ्यों के साथ हेराफेरी है।  फातिमा इमाम गजाली की मशहूर पुस्तक ‘इहया अल उलूम’ में पैगंबर के उस कथन की व्याख्या की है, जिसमें वे छोटे परिवार का संदेश देते हैं। हजरत मुहम्मद की नसीहत है -‘छोटा परिवार सुगमता है। उसके बड़े हो जाने का नतीजा है -गरीबी।’ दसवीं सदी में रज़ी की किताब ‘हवी’ में गर्भ रोकने के 176 तरीकों का जिक्र है। ये सभी तरीके कोई जादू-टोना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक हैं। भारत में सूफियों के चारों इमाम -हनफी, शाफी, मालिकी और हमबाली समय-समय पर छोटे परिवार की हिमायत पर तकरीर करते रहे हैं।

वैसे तो आज मुसलमानों का बड़ा तबका इस हकीकत को समझने लगा है, लेकिन  दुनियाभर में ‘‘इस्लामिक आतंकवाद’’ के नाम पर खड़े किए गए हौवे ने अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना और उसके कारण संगठत होने को मजबूर किया है। इसका फायदा कट्टरपंथी जमातें उठा रही हैं और इस्लाम की गलत तरीके से व्याख्या कर सीमित परिवार की सामाजिक व धार्मिक व्याख्या के विपरीत तरीके से कर रही हैं। यह तय है कि सीमित परिवर, स्वस्थ्य परिवार और शिक्षित परिवार की नीति को अपनाए बगैर भारत में मुसलमानों की व्यापक हालत में सुधार होने से रहा। लेकिन यह भी तय है कि ना तो भारत में मुसलमान कभी बहुसंख्यक हो पाएगा और ना ही इस्लाम सीमित परिवार का विरोध करता है।

 

 चुनाव के चौथे चरण के आते ही मुद्देविहीन चुनाव अभियान को सांप्रदायिक तड़का देने के लिए प्रधान मंत्री  से जुड़े लोगों ने अप्रासंगिक रूप से अपना सर्वे जारी कर चुनाव को बहकाने का काम किया है ।

 

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