जल आपातकाल से जूझता चेन्नई : बैठकर खाने के बजाय घर से पानी ले जाने वालों को छूट दी जा रही है
कोई नब्बे लाख की आबादी के शहर में पानी के नल हफ्तों से सूखे हैं और बारह हजार लीटर का एक टैंकर पांच हजार में खरीद कर लोग काम चला रहे हैं। कभी लगता है कि समुद्र तट पर बसा ऐसा शहर, जहां चार बड़े-बड़े जलाशय और दो नदियों थीं, आखिरकार पानी की हर बूंद के लिए क्यों तरस गया?
गंभीरता से देखें, तो यह प्यास समाज के कथित विकास की दौड़ में खुद के द्वारा ही कुचली-बिसराई व नष्ट कर दी गई पारंपरिक जल निधियों के लुप्त होने से उपजाई है। और इसका निदान भी जल के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटना ही है। सरकार कह रही है कि गत तीन सालों में चेन्नई मेट्रो वाटर को 2638.42 करोड़ रुपये दिए गए, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि डाले गए पाइप या टंकियां तब तक काम की नहीं हैं, जब तक कि जल स्रोत न हो।
कभी समुद्र के किनारे का छोटा-सा गांव मद्रासपट्टनम आज भारत का बड़ा नगर है। अनियोजित विकास, शरणार्थी समस्या और जल निधियों की उपेक्षा के चलते आज यह महानगर एक बड़ी झुग्गी में बदल गया है। नवंबर-2015 में आई भयानक बाढ़ के बाद तैयार की गई नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट की रिपोर्ट में बताया गया है कि 650 से अधिक जल निधियों में कूड़ा भर कर चौरस मैदान बना दिए गए। यही वे पारंपरिक स्थल थे, जहां बारिश का पानी टिकता था और जब उनकी जगह समाज ने घेर ली तो पानी समाज में घुस गया।
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