अविश्वास पर टिके पुलिस-तंत्र के बस का नहीं है नक्सलवाद से निबटना
पंकज चतुर्वेदी
जिस सुकमा जिले के जिस इलाके में अभी दो सप्ताह पहले मुख्यमंत्री मोटरसाईकिल पर घूम कर लोगों को शासन-तंत्र का भरोसा दे रहे थे, ठीक वहीं दिन में डेढ बजे नक्सलियों ने सीआरपीएफ की 74 वीं बटालियन पर हमला किया, 25 जवान शहीद हो गए, दो की हालत खराब है, हथयार भी लूट लिए गए। ठीक ऐसा हीह मला उसी इलाके में अभी 11 मार्च को भी हुआ था और तब केंद्र सरकार के गृह मंत्री राजनाथ सिंह वहीं थे। उन्होंने ताकीद दी थी कि अब ऐसी घटनांए होंगी नहीं। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकड़ियां मय हेलीकॉप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके से सुरक्षा बलों पर हमला होता है। नक्सली खबर रखते हैं कि सुरक्षा बलों की पेट्रोलिंग पार्टी कब अपने मुकाम से निकली व उन्हें किस तरफ जाना है।, वे खेत की मेंढ तथा ऊंची पहाड़ी वाले इलाके की घेराबंदी करते हैं और जैसे ही सुरक्षा बल उनके घेरे के बीच पहुंचते है।, अंधाधुंध फायरिंग करते हैं। इस बार यह हमला दोरनापाल और बुरकापाल के बीच हुआ।
विडंबना यह है कि पिछले सात सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षा बलों को फंसाते रहे हैं और वे खुद को सुरक्षित स्थानों पर ऊंचाई में अपनी जगह बना कर सुरक्षा बलों पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात आती है, लेकिन कुछ ही हफ्ते में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं। बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना के चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा है। नक्सली हिंसा को समापत करने के लिए बातचीत शुरू करने वाली हाल ही की सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताश सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही शिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेष के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां पारंपरिक षीषम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवंबर के तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा में चिंतागुफा के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र सरकार के गृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। एक क्षेत्रीय न्यूज चैनल ने अभी तीन दिन पहले ही खबर दिखाई थी कि कांकेर जिले के जंगलों में नक्सली हलचल देखी जा रही हैं।
इस बार के हमले में ज्यादा नुकसान होने का सबसे बड़ा कारण था कि सीआरपीएफ के साथ स्थानीय पुलिस नहीं थी। ये नक्सलियों द्वारा दंडामी गोंडी में की जा रही बातचीत को समझ नहीं सके। नक्सली ऊंचाई पर थे, तभी षहीद और घायल सभी जवानों को सिंर, गले या पेट पर गोलियां लगी हैं।
अरण्य में सुलगती आग के कारकों की व्याख्या करें तो जनगणना का एक आंकड़ा चौंकाने वाला है। बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिषत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में षेश देष के विपरीत महिला-पुरूश का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियां के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। यदि सरकार की सभी चार्जषीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए षोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं। इतने दमन पर सभी दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की दस साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सषस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते 12 सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षा ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं। गौरतलब है कि चार सौ से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाषनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कष्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुरीयत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देष से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रषासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोषिषें क्यों नहीं की गईं।
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकां की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।
पंकज चतुर्वेदी
जिस सुकमा जिले के जिस इलाके में अभी दो सप्ताह पहले मुख्यमंत्री मोटरसाईकिल पर घूम कर लोगों को शासन-तंत्र का भरोसा दे रहे थे, ठीक वहीं दिन में डेढ बजे नक्सलियों ने सीआरपीएफ की 74 वीं बटालियन पर हमला किया, 25 जवान शहीद हो गए, दो की हालत खराब है, हथयार भी लूट लिए गए। ठीक ऐसा हीह मला उसी इलाके में अभी 11 मार्च को भी हुआ था और तब केंद्र सरकार के गृह मंत्री राजनाथ सिंह वहीं थे। उन्होंने ताकीद दी थी कि अब ऐसी घटनांए होंगी नहीं। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकड़ियां मय हेलीकॉप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके से सुरक्षा बलों पर हमला होता है। नक्सली खबर रखते हैं कि सुरक्षा बलों की पेट्रोलिंग पार्टी कब अपने मुकाम से निकली व उन्हें किस तरफ जाना है।, वे खेत की मेंढ तथा ऊंची पहाड़ी वाले इलाके की घेराबंदी करते हैं और जैसे ही सुरक्षा बल उनके घेरे के बीच पहुंचते है।, अंधाधुंध फायरिंग करते हैं। इस बार यह हमला दोरनापाल और बुरकापाल के बीच हुआ।
विडंबना यह है कि पिछले सात सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षा बलों को फंसाते रहे हैं और वे खुद को सुरक्षित स्थानों पर ऊंचाई में अपनी जगह बना कर सुरक्षा बलों पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात आती है, लेकिन कुछ ही हफ्ते में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं। बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना के चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा है। नक्सली हिंसा को समापत करने के लिए बातचीत शुरू करने वाली हाल ही की सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताश सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही शिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेष के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां पारंपरिक षीषम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। अभी नवंबर के तीसरे सप्ताह में कई स्थानीय अखबारों व समाचार चैनलों ने खबर दिखाई थी कि सुकमा में चिंतागुफा के बीच नक्सलियों की गतिविधियां दिख रही हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र सरकार के गृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। एक क्षेत्रीय न्यूज चैनल ने अभी तीन दिन पहले ही खबर दिखाई थी कि कांकेर जिले के जंगलों में नक्सली हलचल देखी जा रही हैं।
इस बार के हमले में ज्यादा नुकसान होने का सबसे बड़ा कारण था कि सीआरपीएफ के साथ स्थानीय पुलिस नहीं थी। ये नक्सलियों द्वारा दंडामी गोंडी में की जा रही बातचीत को समझ नहीं सके। नक्सली ऊंचाई पर थे, तभी षहीद और घायल सभी जवानों को सिंर, गले या पेट पर गोलियां लगी हैं।
अरण्य में सुलगती आग के कारकों की व्याख्या करें तो जनगणना का एक आंकड़ा चौंकाने वाला है। बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिषत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में षेश देष के विपरीत महिला-पुरूश का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियां के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। यदि सरकार की सभी चार्जषीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए षोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं। इतने दमन पर सभी दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की दस साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सषस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते 12 सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षा ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं। गौरतलब है कि चार सौ से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाषनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कष्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुरीयत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देष से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रषासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोषिषें क्यों नहीं की गईं।
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकां की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।
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