बिजली की फिजूलखर्ची का खेल
पंकज चतुर्वेदी
दूसरी तरफ एक गांव का घर जहां दो लाइटें, दो पंखे, एक टीवी और अन्य उपकरण हैं, में दैनिक बिजली खपत दशमलव पांच केवीएच है। एक मैच के आयोजन में खर्च 10 हजार केवीएच बिजली को यदि इसे घर की जरूरत पर खर्च किया जाए तो वह बीस हजार दिन यानी 54 वर्ष से अधिक चलेगी।
जाहिर है यदि एक क्रिकेट मैच दिन की रोशनी में खेल लिया जाए तो उससे बची बिजली से एक गांव में 200 दिन तक निर्बाध बिजली सप्लाई की जा सकती है। ये सभी मैच दिन में होते तो कई गांवों को गर्मी के तीन महीने बिजली की किल्लत से निजात मिल सकती थी।
हमारे देश के कुल 5,79,00 आबाद गांवों में से 82,800 गांवों तक बिजली की लाइन न पहुंचने की बात स्वयं सरकारी रिकार्ड कबूल करता हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में कुल उत्पादित बिजली का मात्र 35 फीसदी का ही वास्तविक उपभोग हो पाता है। हर साल खेतों को बिजली की बाधित आपूर्ति के कारण हजारों एकड़ फसल नष्ट होने के किस्से सुनाई देते हैं।
जनता की मूलभूत जरूरतों में जबरिया कटौती कर कतिपय लोगों के ऐशो-आराम के लिए रात में क्रिकेट मैच आयोजित करना कुछ यूरोपीय देशों की नकल से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन भारत में जहां एक तरफ बिजली की त्राहि-त्राहि मची है, वहीं सूर्य देवता यहां भरपूर मेहरबान है। फिर भी रात्रि मैच की अंधी नकल क्यों?
एक मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहां बजने वाले संगीत के शोर, वहां पहुंचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियां कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती हैं। अभी हम ‘अर्थ अवर’ मना कर एक घंटे बिजली उपकरण बंद कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ अवर’ में कम करेगा, उतना तो दो-तीन आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा।
आईपीएल के दौरान भारत के विभिन्न शहरों में 05 अप्रैल से 21 मई के बीच कुल
60 मैच हो रहे हैं, जिनमें से 48 तो रात आठ बजे से ही हैं। बाकी मैच भी दिन
में चार बजे से शुरू होंगे यानी इनके लिए भी स्टेडियम में बिजली से उजाला
करना ही होगा। रात के क्रिकेट मैचों के दौरान आमतौर पर स्टेडियम के चारों
कोनों पर एक-एक प्रकाशयुक्त टावर होता है। हरेक टावर में 140 मेटल हेलाइड
बल्ब लगे होते हैं। इस एक बल्ब की बिजली खपत क्षमता 180 वाट होती है। यानी
एक टावर पर 2,52000 वाट या 252 किलोवाट बिजली फुकती है। इस हिसाब से समूचे
मैदान को जगमगाने के लिए चारों टावरों पर 1008 किलोवाट बिजली की आवश्यकता
होती है। रात्रिकालीन मैच के दौरान कम से कम छह घंटे तक चारों टावर की सभी
लाइटें जलती ही हैं। अर्थात एक मैच के लिए 6048 किलोवाट प्रति घंटा की दर
से बिजली की जरूरत होती है। इसके अलावा एक मैच के लिए दो दिन कुछ घंटे
अभ्यास भी किया जाता है। इसमें भी 4000 किलोवाट प्रति घंटा (केवीएच) बिजली
लगती है। अर्थात एक मैच के आयोजन में दस हजार केवीएच बिजली इसके अतिरिक्त
है।दूसरी तरफ एक गांव का घर जहां दो लाइटें, दो पंखे, एक टीवी और अन्य उपकरण हैं, में दैनिक बिजली खपत दशमलव पांच केवीएच है। एक मैच के आयोजन में खर्च 10 हजार केवीएच बिजली को यदि इसे घर की जरूरत पर खर्च किया जाए तो वह बीस हजार दिन यानी 54 वर्ष से अधिक चलेगी।
जाहिर है यदि एक क्रिकेट मैच दिन की रोशनी में खेल लिया जाए तो उससे बची बिजली से एक गांव में 200 दिन तक निर्बाध बिजली सप्लाई की जा सकती है। ये सभी मैच दिन में होते तो कई गांवों को गर्मी के तीन महीने बिजली की किल्लत से निजात मिल सकती थी।
हमारे देश के कुल 5,79,00 आबाद गांवों में से 82,800 गांवों तक बिजली की लाइन न पहुंचने की बात स्वयं सरकारी रिकार्ड कबूल करता हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में कुल उत्पादित बिजली का मात्र 35 फीसदी का ही वास्तविक उपभोग हो पाता है। हर साल खेतों को बिजली की बाधित आपूर्ति के कारण हजारों एकड़ फसल नष्ट होने के किस्से सुनाई देते हैं।
जनता की मूलभूत जरूरतों में जबरिया कटौती कर कतिपय लोगों के ऐशो-आराम के लिए रात में क्रिकेट मैच आयोजित करना कुछ यूरोपीय देशों की नकल से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन भारत में जहां एक तरफ बिजली की त्राहि-त्राहि मची है, वहीं सूर्य देवता यहां भरपूर मेहरबान है। फिर भी रात्रि मैच की अंधी नकल क्यों?
एक मैच के दौरान व्यय बिजली, पानी, वहां बजने वाले संगीत के शोर, वहां पहुंचने वाले लोगों के आवागमन और उससे उपजे सड़क जाम से हो रहे प्रदूषण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही यह सब गतिविधियां कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाती हैं। अभी हम ‘अर्थ अवर’ मना कर एक घंटे बिजली उपकरण बंद कर इसी कार्बन उत्सर्जन को कम करने का स्वांग करेंगे। हकीकत तो यह है कि पूरा देश जितना कार्बन उत्सर्जन एक ‘अर्थ अवर’ में कम करेगा, उतना तो दो-तीन आईपीएल मैच में ही हिसाब बराबर हो जाएगा।
देश के अधिकांश राज्यों में चौबीसों घंटे बिजली की सप्लाई एक बड़ा मुद्दा है। भले ही हम बिजली उत्पादन के आंकड़ों में आत्मनिर्भर व मांग के हिसाब से आपूर्ति करने वाले देश बन गए हों, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में भी कई इलाके कम वोल्टेज या अपर्याप्त बिजली संकट से जूझ रहे हैं। ऐसे में 52 दिनों तक दूधिया रोशनी से स्टेडियम को चमका कर इंडियन प्रीमियम लीग का तमाशा खड़ा करना समझ के परे है।
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