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बुधवार, 26 अप्रैल 2017

Cow in drough pron Bundelkhand

सूखे वाले इलाकों की सुधि लें

बुंदेलखंड जैसे सूखा प्रभावित इलाकों में चारे की कमी के चलते लोग अपने मवेशियों को घर से हटा रहे हैं। इसकी वजह से थोड़ी बहुत बची-खुची खेती चौपट हो रही है, वहीं इन पशुओं की वजह से सड़क हादसों की संख्या बढ़ गई है। दूसरी ओर गाय बचाने के नाम पर ¨हसा को अंजाम देने वाले संगठन बेतरतीब तरीके से खड़े तो हो गए हैं , लेकिन इन बेसहारा मवेशियों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। सरकारों के पास भी पशुओं को लेकर कोई ठोस नीति नहीं है

नजरिया

राज्यों की निष्क्रियता पर सही फटकार


पंकज चतुर्वेदी1देश के कई हिस्सों में गोवंश बचाने के नाम पर इंसान की जान लेने में लोग हिचक नहीं रहे हैं। लेकिन सूखे से बेहाल बुंदेलखंड में लाखों गायें सड़कों पर छुट्टा घूम रही हैं। ये गायें स्वयं ही किसी वाहन की चपेट में आ जाती हैं या फिर उनके कारण लोग दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। यहां का एक जिला है छतरपुर। यहां सरकारी रिकॉर्ड में 10 लाख 32 हजार मवेशी दर्ज हैं जिनमें से सात लाख से ज्यादा तो गाय-भैंस ही हैं। तीन लाख के लगभग बकरियां हैं। बारिश न होने के कारण कहीं घास तो बची नहीं है इसलिए इन मवेशियों के लिए हर महीने 67 लाख टन भूसे की जरूरत है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। यह केवल एक जिले का हाल नहीं है, दो राज्यों में विस्तारित समूचे बुंदेलखंड के 12 जिलों में दूध देने वाले चौपायों के हालात भूख-प्यास व कोताही के हैं। आए रोज गांवों में कई दिन से चारा ना मिलने या पानी ना मिलने के कारण राजमार्ग पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। गर्मी के दिन इनके लिए और भी बदतर होते हैं। 1एक स्वयंसेवी संस्था ने पल्स पोलियो व कई ऐसी ही सरकारी संस्थाओं के आंकडों का विश्लेषण किया तो पाया किबीते एक दशक में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के 13 जिलों से 63 लाख से ज्यादा लोग रोजगार व पानी की कमी से हताश होकर अपना घर-गांव छोड़ कर सुदूर नगरों को पलायन कर चुके हैं। गांवों में रह गए हैं तो सिर्फ बुजुर्ग या कमजोर। यहां भी किसान आत्महत्याओं की खबरें लगातार आ रही हैं। मवेशी चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। ऐसे में कई गायें व मवेशी मांस का अवैध व्यापार करने वालों के हत्थे भी चढ़ते हैं। कई बार वहां की लावारिस गायों के ट्रक मेरठ तक आते हैं। बुंदेलखंड की मशहूर ‘अन्ना प्रथा’ यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेशी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। पूरे बुंदेलखंड में दस हजार से कुछ ज्यादा गांव हैं। जाहिर है कि सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के इस दावे में दम है कि अकेले पिछले साल मई में यहां तीन लाख से ज्यादा मवेशी मर चुके हैं। इनमें कई सड़क दुर्घटना में मारी जाती हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रही हैं। 1किसानों के लिए यह परेशानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेशियों का झुंड चट कर जाता है। दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘अन्ना प्रथा’ यानी दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनों पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान हैं जिनके पास अपने जल साधन हैं लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते में कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है। यह बानगी है कि बुंदेलखंड में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और उनका पेट भरना मुसीबत बन गया है। 1पिछली सरकार के दौरान जारी किए गए विशेष बुंदेलखंड पैकेज में दो करोड़ रुपये का प्रावधान महज ‘अन्न प्रथा’ रोकने के लिए आम लोगों में जागरूकता पैदा करना था। कम बारिश के कारण खेती न होने से हताश किसानों को दुधारू मवेशी पालने को प्रोत्साहित करने के लिए भी सौ करोड़ रुपये का प्रावधान था।1अभी चार दशक पहले तक बुंदेलखंड के हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुएं नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। मगर लोगों ने सार्वजनिक चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व खत्म कर दिया। हैंडपंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कुछ स्थानों पर समाज ने गौशालाएं भी खोली हैं लेकिन एक जिले में दो हजार से ज्यादा गाय पालने की क्षमता इनमें नहीं है। तभी इन दिनों बुंदेलखंड के किसी भी राजमार्ग पर चले जाएं हजारों गायें बैठी मिलेंगी। यदि किसी वाहन की इन गायों से टक्कर हो जाए तो हर गांव में कुछ धर्म के ठेकेदार भी मिलेंगे जो तोड़-फोड़ व वसूली करते हैं, लेकिन इन गाय के मालिकों को इन्हें अपने ही घर में रखने के लिए प्रेरित करने वाले एक भी नहीं मिलेंगे। यह मामला अकेले गांव-कस्बे में रहने वाले मवेशियों तक ही सीमित नहीं है, जंगल में रहने वाले जानवरों पर इसका प्रभाव बहुत ही खतरनाक हो रहा है। हालांकि अब बुंदेलखंड में जंगल बहुत कम बचे हैं, लेकिन पन्ना राष्ट्रीय पार्क जैसे जंगल जहां शेर, हिरण सहित कई जानवर पर्याप्त संख्या में हैं, इस सूखे के कारण वहां ‘जंगल राज’ होना तय है। पानी व चारे के लिए हिरण जैसे जानवर बस्ती की ओर आ रहे हैं और मारे जा रहे हैं। वहीं खाने की कमी के चलते शेर बस्ती की ओर मवेशियों पर घात लगा रहे हैं।1सरकार के पास इन हालातों से निपटने की कोई योजना है ही नहीं। अभी बरसात बहुत दूर है। जब सूखे का संकट चरम पर होगा तो लोगों को मुआवजा, राहत कार्य या ऐसे ही नाम पर राशि बांटी जाएगी, लेकिन देश और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशु-धन को सहेजने के प्रति शायद ही किसी का ध्यान जाए। अभी तो औसत या अल्प बारिश के चलते जमीन पर थोड़ी हरियाली है और कहीं-कहीं पानी भी, लेकिन अगली बारिश होने में अभी कम से कम तीन महीना हैं और इतने लंबे समय तक आधे पेट व प्यासे रह कर मवेशियों का जी पाना संभव नहीं होगा। 1बुंदेलखंड में जीवकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेशी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगे। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।1(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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