My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 29 मई 2019

increase capacity of saving water

संरक्षण के अभाव में बढ़ता जल संकट

पानी की बर्बादी पर लगे रोकथाम


बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि पानी की प्रचुरता वाले राज्य बिहार की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा। इस राज्य की स्थिति आज इतनी भयावह हो चुकी है कि कई शहरों में टैंकर के जरिये जलापूर्ति की आवश्यकता महसूस की जा रही है और कई शहरों में ऐसा किया भी जा रहा है। विगत तीन दशकों के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां- कमला, बलान, फल्गू, बागमती आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। तालाबों की बात करें तो शहरों-कस्बों की बात छोड़िए, गांवों में भी इन्हें धीरे-धीरे मिट्टी से भर कर बड़े-बड़े मकान बनाए जा रहे हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात रिकॉर्ड में तो दर्ज हैं, लेकिन उनकी चिंता किसी को नहीं। राज्य की राजधानी रांची में करमा नदी ने देखते ही देखते अतिक्रमण के कारण दम तोड़ दिया। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। यहां चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम जैसे घने जंगल वाले जिलों में कुछ ही सालों में सात से 12 तक नदियों की जलधारा मर गई।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किमी है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग मीटर है। भारतीय नदियों के भाग से हर साल 1,645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का करीब 85 फीसद बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
सूखते जलाशय
जो केरल अभी आठ महीने पहले ही जल प्लावन से अस्त-व्यस्त हो गया था, आज वहां भारी जल संकट दिख रहा है। कर्नाटक का आधा हिस्सा तो अपने इतिहास के बुरे जल संकट के दिन ङोल रहा है। यहां 3,122 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया है। करीब 138 तालुके ऐसे हैं जहां भूजल पाताल की गहराई में जा चुका है, कई जगह 350 फुट से भी नीचे। राज्य में सूपा, अल्माटी, नारायणपुरा, भद्रा, केआरएस जैसे 13 विशाल जलाशयों में पानी का स्तर उनकी न्यूनतम जल क्षमता से भी नीचे चला गया है। कावेरी पर बने बांध में भी पानी नहीं है। नौ मई, 2019 को समाप्त सप्ताह के दौरान देश के 91 प्रमुख जलाशयों में 38.734 बीसीएम अर्थात अरब घनमीटर जल संग्रह हुआ। यह इन जलाशयों की कुल संग्रहण क्षमता का 24 प्रतिशत है। इन 91 जलाशयों की कुल संग्रहण क्षमता 161.993 बीसीएम है, जो समग्र रूप से देश की अनुमानित कुल जल संग्रहण क्षमता 257.812 बीसीएम का लगभग 63 प्रतिशत है। इन 91 जलाशयों में से 37 जलाशयों में लगभग 60 मेगावाट बिजली भी पैदा होती है। उत्तरी क्षेत्र के तहत आने वाले हिमाचल प्रदेश, पंजाब तथा राजस्थान में 18.01 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले छह जलाशय हैं। यहां इनकी क्षमता का महज 49 प्रतिशत जल अर्थात 8.80 बीसीएम बचा है। वैसे यदि बीते दस साल के औसत से तुलना करें तो यहां संग्रहित जल की स्थिति बेहतर है।
देश के पूर्वी क्षेत्र के झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में कुल 15 जलाशय हैं जिनकी क्षमता 18.83 बीसीएम है। यहां महज 31 फीसद पानी बचा है 5.87 बीसीएम। दस साल की तुलनात्मक स्थिति में यह संग्रह औसत है। पश्चिमी क्षेत्र में आने वाले गुजरात तथा महाराष्ट्र के 27 जलाशयों में बीते दस साल का सबसे कम पानी जमा हुआ। यहां के जलाशयों की क्षमता 31.26 बीसीएम है और महज 4.74 बीसीएम पानी ही बचा है। मध्य क्षेत्र के हालात भी औसत हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में 42.30 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले 12 जलाशय हैं, जिनमें कुल उपलब्ध संग्रहण 11.95 बीसीएम पानी बचा है।
दक्षिणी क्षेत्र में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल एवं तमिलनाडु आते हैं। इस क्षेत्र में 51.59 बीसीएम की कुल संग्रहण क्षमता वाले जलाशयों में कुल उपलब्ध संग्रहण 7.38 बीसीएम है, जो इनकी कुल संग्रहण क्षमता का तकरीबन 14 प्रतिशत है।
कमी पानी नहीं, प्रबंधन की
यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्रहि-त्रहि करती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता पैदा हो रही है! उधर कम बरसात की आशंका होते ही दाल, सब्जी व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो जाते हैं। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आंकड़ा गड़बड़ाएगा। केंद्र से लेकर राज्य व जिला से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनाने में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहतकार्य के लिए कितना व कैसे बजट होगा। असल में इस बात को लोग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
भारत की जल-कुंडली
जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद पैदा हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से करीब चार फीसद हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी करीब 17 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4,000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1,869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1,122 घनमीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती और उनका इस्तेमाल सालों-साल कम होता जा रहा है, वहीं ज्यादा पानी की खपत करने वाले सोयाबीन और अन्य नकदी फसलों ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है।
देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी का 80 फीसद तक जून से लेकन सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में तो यह आंकड़ा करीब 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ न तो बारिश से होती है और न ही नदियों से।
आधुनिक जीवनशैली अपनाने के क्रम में हमने पानी को लेकर अपनी आदतें खराब की हैं। जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल निकाला जाता था। घर में टोटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल से चलने वाले ट्यूबवेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ साल भर के पानी की कमी से जूझने की रही है। अब कस्बाई लोग भी 15 रुपये में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का एक बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
सूखे के कारण जमीन के बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन बरसात दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा होती है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस पानी को संग्रह करने पर जोर दिया जाए।
गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमरेली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के निवासियों ने डेढ़ लाख रुपये की लागत व कुछ दिनों की मेहनत से 12 रोक बांध बनाए और एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ और देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सुखाड़ को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्कत तो होना नहीं चाहिए।
हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं- मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घनमीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों लोगों की मौत होती है और अरबों रुपये का नुकसान होता है। इजरायल में औसत बारिश 10 सेंटीमीटर है, इसके बावजूद वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है।
जल संकट के लिए कुख्यात मराठवाड़ा के लातूर जिले में पेयजल और सिंचाई की कुल 142 परियोजनाओं में से 39 का एक-एक बूंद पानी अप्रैल महीना समाप्त होते ही सूख गया था। शेष 86 परियोजनाओं में भी नाम मात्र का पानी बचा है, जबकि वहां अभी अच्छी बरसात आने में महीना भर तो लगेगा ही। इस क्षेत्र में पिछले साल बरसात 75 प्रतिशत हुई थी और सिंचाई विभाग के जलाशयों में महज 51 से 75 प्रतिशत पानी ही भर पाया था। झीलों की नगरी कहलाने वाले भोपाल में मार्च महीने से ही घरों में पानी की कटौती शुरू हो गई थी। अप्रैल तक वहां के मुख्य जल स्त्रोत बड़े तालाब का एक-चौथाई पानी सूख चुका था। इस तालाब का कुल आकार 31 वर्ग किलोमीटर है और इसमें पूरा जल भरने पर क्षमता 1,666 वर्ग फुट की होती है। देश के बड़े इलाके में जल संकट पैदा हो चुका है और ऐसे में इसके संरक्षण पर जोर देना होगा
पंकज चतुर्वेदी
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