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शनिवार, 25 मई 2019

Better management can save water

कमी पानी की नहीं प्रबंधन की है
.पंकज चतुर्वेदी



अभी कुछ महीने पहले जो केरल भयानक जल प्लावन से बरबाद हो गया था, आज पानी की एक -एक बूंद के लिए तरस रहा है। मध्यप्रदेश में झीलों के शहर के नाम से मशहूर भोपल हो या तालाबों से आच्छादित पन्ना, पानी के भीषण संकट से गुजर रहे हैं। भारत का बड़ा हिस्सा सूखे, पानी की कमी और पलायन से जूझने जा रहा है। बुंदेलखंड में तो सैंकड़ों गांव वीरान होने षुरू भी हो गए हैं। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों(जलाशयों) में पिछले सालों की तुलना में बहुत कम पानी रह गया है। फिर मौसम महकमे ने भी कह दिया कि बरसात औसत से कम होगी। प्री-मानसून तो बहुत कम हुआ ही है। सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाउ़ कर पानी देती है उसे सारे साल सहेज कर रखने की तकनीक नहीं। हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया। जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहां रंग, लेाक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहां के पुश्तैनी बाशिंदे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे। यह आम अदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भंडार पूरे भर कर झलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के  दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिंतित हो जाते है।

यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता ! उधर कम बरसात की आंशका होते ही दाल, सब्जी, व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो जाते हैं। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थ व्यवस्था में जीडीपी का आंकड़ा गड़बड़ाएगा। केंद्र से लेकर राज्य व जिला से ले कर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहत कार्य के लिए कितना व कैसे बजट  होगा। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा मौसम महकमे की घोशणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पान बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
     भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का  पहियां जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्श्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यानों के उत्पादन में कमी और देश में खद्यान की कमी में भारी अंतर है। यदि देश के पूरे हालात को गंभीरता से देखा जाए तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भंडारण, भ्रष्टाचारी  के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबंधन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहां कुपोशण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृप की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं ।

असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुंए से रस्सी डाल कर पानी खंीचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूडा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है । अब कस्बाई लोग बीस रूपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव मं कई बार षौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
सूखे के कारण जमीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते है। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुरू खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के लेागों ने डेढ लाख व कुछ दिन की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नल कूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्यप्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से ले कर असम तक और बिहार से ले कर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लेागो ने सुखाड़ को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्क्त तो होना नहीं चाहिए।
खेती या बागान की घड़ा प्रणाली हमारी परंपरा का वह पारसमणि है जो कम से कम बारिश में भी सोना उगा सकता है। बस जमीन में गहराई में मिट्टी का घडा़ा दबाना होता है। उसके आसपास कंपोस्ट, नीम की खाद आदि डाल दें तो बाग में खाद व रासायनिक दवा का खर्च बच जाता है। घड़े का मुंह खुला उपर छोड देते हैं व उसमें पानी भर देते हैं। इस तरह एक  घउ़े के पानी से एक महीने तक पांच पौधों को सहजता से नमी मिलती है। जबकि नहर या ट्यूब वेल से इतने के लिए सौ लीटर से कम पानी नहीं लगेगा। ऐसी ही कई पारंपरिक प्रणालियां हमारे लोक जीवन में उपलब्ध हैं और वे सभी कम पानी में षानदार जीवन के सूत्र हैं।
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

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