My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 10 मई 2019

Due to water scarcity wilds are turning to human habitat


बस्ती की ओर आते प्यासे जानवर
पंकज चतुर्वेदी
इस बार तपती गरमी कुछ जल्दी ही हो गई। धोलाधार की हिमाच्छादित पर्वतों की गोद में बसे धर्मशाला में तापमान 35 पार हो चुका है। अभी 26 अप्रेल 2019 को मध्यप्रदेश के निमाड़ इलाके का तापमान 47 डिगरी के पार हो गया और षहर की सड़कें तोते सहित कई पंक्षियों की लाशों से पट गईं। 28 अप्रेल को हरियाणा में यमुना नगर-पांवटा साहेब हाईवे पर कलेसर नेशनल पार्क के करीब एक मादा तेंदुआ उस समयएक वाहन की चपेट में आ कर मारी गई, जब वह प्यास से बेहाल हो कर सड़क पर आ गईं। राजस्थान के झालाना सफारी के तंेदुआ बस्ती की ओर पानी की तलाश में लगातार आ रहे हैं। अयोध्या के जखौली गांव में प्यास से बेहाल बारहसिंघा बस्ती में आ गया और कुत्तों ने उसे घायल कर दिया। हाथियों का उत्पात तो जगह-जगह बढ़ रहा है। गरमी होते ही जंगल में पानी और खाना कम होता है तो विशालकाय षरीर का स्वामी हाथी असहाय हो कर खेत-गांव में घुस जाता है। प्यास के कारण बेहाल बंदर-लंगूर तो हर षहर-गांव में देखे जा सकते हैं। बहुत सी जगह नदी-तालाब सूखने पर मगरमच्छ गांव-खेत में घुस आए।

गरमी से परेशान हाथियों का बस्ती-खेत में घुस आना बेहद भयावह होता है। हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है । गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है । थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है । ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडं़त होती है। सनद रहे  अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में सन 2012-18 के छह सालों में हाथियों की चपेट में आ कर 199 लोग मारे गए। अस्सी करोड़ की तीन परियोजनाएं असफल रहीं। सन 2014 की परियोजना में जरूर हाथी के लिए जंगल में स्टाप डेम बनाने की बात थी  वरना जंगल महकमा अपने इलाके से हाथी भगाने के अलावा कुछ सोचता नहीं।

ऐसा नहीं कि इस बार ज्यादा गरमी है और जानवर बेहाल हैं, असल में ऐसे हालात गत दो दशकों से हर साल गर्मी में बनते हैं। विडंबना है कि जंगल केसंरक्षक जानवर हों या फिर खेती-किसानी के सहयोगी मवेशी,उनके  के लिए पानी या औ भोजन की कोई नीति नहीं है। जब कही कुछ हल्ला होता है तो तदर्थ व्यवस्थाएं तो होती हैं लेकिन इस पर कोई दीर्घकालीक नीति बनी नहीं।
प्रकृति ने धरती पर इंसान , वनस्पति और जीव जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया, लेकिन इंसान ने  भौतिक सुखों की लिप्सा में खुद को श्रेष्ठ मान लिया और प्रकृति की प्रत्येक देन पर अपना अधिक अधिकार हथिया लिया। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का ना तो प्रतिरोध कर सकते हैं और ना ही अपना दर्द कह पाते हैं। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया। आज पर्यावरण संकट का जो चरम रूप सामने दिख रहा है, उसका मूल कारण इंसन द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य श्रंखला टूट जाएगी धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी। समूची खाद्य श्रंखला का उत्पादन व उपभोग बेहद नियोजित प्रक्रिया है। जंगल बहुत विशाल तो उससे मिलने वाली हरियाली पर जीवनयापन करने वाले उससे कम तो हरियाली खाने वाले जानवरों को मार कर खाने वाले उससे कम। हमारा आदि -समाज इस चक्र से भलीभांति परिचित था तभी वह प्रत्येक जीव को पूजता था, उसके अस्तित्व की कामना करता था। जंगलों में प्राकृतिक जल संसाधनों ंका इस्तेमाल अपने लिए कतई नहीं करता था- न खेती के लिए न ही निस्तार के लिए और न ही उसमें ंगंदगी डालने को ।

जानना जरूरी है कि भारत में संसार का केवल 2.4 प्रतिशत भू−भाग है, जिसके 7 से 8 प्रतिशत भू−भाग पर भिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रजातियों की संवृधि के मामले में भारत स्तनधारियों में 7वें, पक्षियों में 9वें और सरीसृप में 5वें स्थान पर है। विश्व के 11 प्रतिशत के मुकाबले भारत में 44 प्रतिशत भू−भाग पर फसलें बोई जाती हैं। भारत के 23.39 प्रतिशत भू−भाग पर पेड़ और जंगल फैले हुए हैं। दुनियाभर की 34 चिह्नित जगहों में से भारत में जैवविविधता के तीन हॉटस्पॉट हैं− जैसे हिमालय, भारत बर्मा, श्रीलंका और पश्चिमी घाट। यह वनस्पति और जीव जंतुओं के मामले में बहुत समृद्ध है और जैव विविधता के संरक्षण का कार्य करता है। पर्यावरण के अहम मुदद्ों में से आज जैव विविधता का संरक्षण एक अहम मुदद्ों है।
भारत में संरक्षित वन क्षेत्र तो बहुत से विकसित किए गए और वहां मानव गतिविधियों पर रोक के आदेश भी दिए,लेकिन दुर्भाग्य है कि सभी ऐसे जंगलों के करीब तेज गति वाली सड़कें बनवा दी गईं। इसके लिए पहाड़ काटे गए, जानवरों के नैसर्गिक आवागमन रास्तों पर काली सड़कें बिछा दी गईं। इस निर्माण के कारण कई झरने, सरितांए प्रभावित हुए। जंगल की हरियाली घटने और हरियाली बढ़ाने के लिए गैर-स्थानीय पेड बोने के कारण भी जानवरों को भोजन की कमी महसूस हुई। अब वानर को  लें, वास्तव में यह जंगल का जीव है। जब तक जंगल में उसे बीजदार फल खाने को मिले वह कंक्रीट के जंगल में आया नहीं। वानर के पर्यावास उजड़ने व पानी की कमी के कारण वह सड़क की ओर आया। जंगल से गुजरती सड़कों पर आवागमन और उस पर ही बस गया। यहां उसे खाने को  तो मिल जाता है लेकिन पानी के लिए तड़पता रहता है। साथ ही तेज गति के वाहनों की चपेट में भी आता रहता है।
प्रत्येक वन में सैंकडों छोटी नदियां, तालाब और जोहड़ होते है।  इनमें पानी का आगम बरसात के साथ-साथ जंगल के पहाड़ों के सोते- सरिताओं से होता है। असल में पहाड़जंगल औरउसमें बसने वाले जानवरों की संरक्षण-छत होता है। चूंकि येपहाड़ विभिन्न खनिजों के भंडार होते है। सो खनिज उत्खनन के अंधाधुघ दिए गए ठेकों ने पहाड़ों को जमींदोज कर दिया। कहीं-कहीं पहाड़ की जगह गहरी खाई बन गईं और कई बार प्यासे जानवर ऐसी खाईयों में भी गिर कर मरते हैं।
यदि हमें प्रकृति के अस्तित्व के लिए अनिवाय अपनी जैव विविधता को जिंदा रखना है तो जंगलों के नैसर्गिक वृक्षों के विस्तार पर काम करना होगा। साथ ही संरक्षित वन क्षेत्रों के पास से रेलवे लाईन या हाईवे बनाने से परहेज करना होगा। पहाड़ और जंगल के जल संसाधनों पर तो ध्यान देना ही होगा। जंगल के जल-संसाधन केवल जंगल के जानवरों के लिए है- यही नीति जानवरों को प्यासा मरने से बचा सकती है। गर्मी से पहले जंगल के तालाबों में पानी की उपलब्ध्ता पर नियमित सर्वें होना चाहिए और जहां पानी की कमी दिखे, वहां टैंकरों जैसे माध्यमों से उनमें पर्याप्त पानी सुनिश्चित करना होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Keep Katchatheevu away from electoral politics.

  कच्चातिवु को परे   रखो चुनावी सियासत से पंकज चतुर्वेदी सन 1974 की सरकार का एक फैसला, जिसके बाद लगभग आधे समय गैरकान्ग्रेसी सरकार सत्ता ...