आतंकवादी डॉक्टर्स : समाज और शिक्षा के सरोकार
...पंकज
चतुर्वेदी
एक-दो नहीं कोई आधे दर्जन डॉक्टर्स एक ऐसे गिरोह में शामिल थे जो देश को
अस्थिर करने और निर्दोष लोगों की हत्या के लिए धर्म की आड़ ले रहे थे। दिल्ली में
बेकसूर अनजान की लोगों की जान उन लोगों ने ले ली जिन्होंने इस बात की शिक्षा ली थी कि हर हाल में लोगों की
जान बचनी हैं। वह भी उस राज्य के लोग जहां
साक्षरता स्तर देश एक औसत से अधिक 82
फीसदी से अधिक है ।
इस नफ़रत के दरिया में डूबते- तैरते
सहभागी भले ही कुछ कुतर्क गढ़ें और किसी
धर्म विशेष को निशाने पर लेने में उससे जुड़े लोग खुद को उससे अलग दिखाएं लेकिन
सवाल तो उठता है कि क्या समाज का बड़ा वर्ग और साथ ही हमारी शिक्षा हिंसा , घृणा,
भावनाओं पर नियन्त्रण ना होना जैसे मसलों पर व्यवहारिक ज्ञान या नैतिकता का पाठ
पढ़ाने में असफल रहा है । चूंकि इतनी बड़ी संख्या में डॉक्टर्स एक ही संप्रदाय से जुड़े हैं , इस लिए इस बात पर
तो विचार करना होगा कि समाज का शिक्षित और पढ़-लिखा वर्ग क्या अपने घर में, धार्मिक
स्थल और सामाजिक विमर्श में इस तरह की अलगाववादी और हिंसक
हरकतों के खिलाफ सशक्त दखल रखता है ? असल में सवाल के दायरे में वे सभी आते हैं जो
समुदाय के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक रहनुमाई का दावा करते हैं। बात केवल नींद करने
और उनसे खुद को अलग करने की नहीं है ।
सवाल के दायरे में वे भी हैं जो बंदूक के
दवाब में हुए कतिपय राजनीतिक बदलाव के बाद यह मान बैठे हैं कि अब सब कुछ सामान्य
हो गया है । जिस राज्य का साक्षरता प्रतिशत इतना अच्छा हो, खासकर किशोर और युवाओं
में, जहां से आब्दि संख्या में डॉक्टर निकल रहे हैं – वहां के युवा यदि बंदूकें ले कर खुद ही मसले
को निबटाने या अपने विद्वेष में आतंकवाद को औजार बनाने के लिए आतुर हैं तो ज़ाहिर है कि वे अभी तक स्कूल –कालेज में जो
पढ़ते रहे , उसका उनके व्यवहारिक जीवन में कोई महत्व या मायने है ही नहीं . यदि
सीखना एक सामाजिक प्रक्रिया है तो हमारी वर्तमान विद्यालय प्रणाली इसमें शून्य है
. यह कडवा सच है कि पाठ्यक्रम और उसकी सीख महज विद्यालय के परिसर के एकालाप और
परीक्षा में उत्तीर्ण होने का माध्य है . इसमें समाज या बच्चे के पालक की कोई भागीदारी नहीं है .
किसी असहमति को , विग्रह को किस तरह संयम के साथ साहचर्य से सुलझाया जाए , ऐसी कोई सीख
विद्यालय समाज तक दे नहीं पाया । फर्राटेदार
अंग्रेजी बोल रहे लड़के हाथों में अस्लाहा लिए महज किसी जाती या समाज को जड़ से समाप्त कर देने के लिए आतुर दिखे. उनके
अनुसार विवाद का हल दूसरे समुदाय को जड़ से मिटा देने के अलावा कुछ नहीं . लगा
किताबों के पहाड़, डिग्रियों के बंडल और
दुनिया की समझ एक कारतूस के सामने बौने ही हैं ।
यह शक के
दायरे में है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व
देश की शिक्षा का असली मर्म समझ पा रहा है। महंगाई की मार के बीच उच्च
शिक्षा प्राप्त युवाओं का रोजगार,
घाटे
का सौदा होती खेती और विकास के नाम पर हस्तांतरित होते खेत,
पेट
भरने व सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन, प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समाज को उनके पुश्तैनी
घर-गाँव से निष्कासित करना। दूरस्थ
राज्यों के शिक्षित ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या हमारे नीति
निर्धारकों की समझ में है? क्या भारत
के युवा को केवल रोजगार चाहिए ? उसके सपने
का भारत कैसा है ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी
चाहता है? ऐसे ही कई सवाल तरूणाई के ईर्दगिर्द
टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित से।
अभी उत्तर-पूर्व की राज्य मणिपुर में शांति लौट कर
नहीं आई है । याद करें वहाँ भएए पढे लिखे युवा आज भी हाथ में बंदूक ले कर एक दूसरे
समुदाय पर आक्रामक हैं । इधर कश्मीर के
दूरस्थ अंचलों से निकाल कर डॉक्टर बनने वाले
युवा देश की मूल भावना से उदासीन
और किसी असंभव लक्ष्य की प्राप्ति के लिए
धार्मिक रूप से ब्राइन वक्ष हो रहे हैं । वस्तुतया
कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण किशोर
वास्तव में ‘कच्चे माल’ की तरह है , जिसका
मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं जाता और लाजिमी है कि उनके विद्रोह को कोई सा
भी रंग दे दिया जाता है।
आज जरूरत है कि स्कूल स्तर पर पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र इस तरह हों ताकि
मौलिक कर्तव्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति सम्मान की गहरी भावना,
अपने
देश के साथ अटूट संबंध, और एक
बदलती दुनिया में अपनी भूमिकाओं और
जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता विकसित की जा सके । न केवल विचार में,
बल्कि
आत्मा, बुद्धि और कर्मों में,
बल्कि
भारतीय होने में एक गहन-गर्वित गर्व पैदा करने के लिए, साथ
ही साथ ज्ञान, कौशल, मूल्यों
और प्रस्तावों को विकसित करने के लिए, जो मानव
अधिकारों के लिए जिम्मेदार प्रतिबद्धता का समर्थन करते हैं,
सतत
विकास और जीवन ,और वैश्विक कल्याण,
जिससे
वास्तव में एक वैश्विक नागरिक प्रतिबिंबित हो ।
हम अपने मसले भावनाओं में बह कर गलत तरीके से नहीं,
बल्कि सामंजस्य के साथ साथ बैठ कर , बगैर किसी बाहरी दखल के सुलझा सकें इसके लिए
अनिवार्य है कि स्कूल से ही बच्चों को समुदायिक
और सामूहिक निर्णय लेने की लोकतन्त्रात्मक
प्रणाली के लिए मानसिक रूप से दक्ष किया जाए . इसके लिए स्कूली स्तर पर शारीरिक
शिक्षा, फिटनेस, स्वास्थ्य
और खेल; विज्ञान मंडलियाँ,
गणितँ,
संगीत
और नृत्यँ, शतरंज ,कविता
, भाषा, नाटक ,
वाद-विवाद
मंडलियां ,इको-क्लब, स्वास्थ्य
और कल्याण क्लब , योग क्लब आदि की गतिविधियाँ ,
प्राथमिक
स्तर पर बगैर बस्ते के अधिक दिनों तक आयोजित करना होगा ।
कश्मीर घाटी जैसे छोटे से और पर्याप्त साक्षर राज्य
ने जता दिया कि हमारी शिक्षा में कुछ बात
तो ऐसी है कि वह ऐसे युवाओं, सरकारी कर्मचारियों , खासकर पुलिस को- देश , राष्ट्रवाद,
महिलाओं के लिए सम्मान और अहिंसा जैसी भावनाओं से परिपूर्ण नहीं कर पाई । यह हमारी
धार्मिक और पाठ्य पुस्तकों व उससे उपज रही
शिक्षा का खोखला दर्शन नहीं तो और क्या है
? हम धार्मिक आयोजनों या घर में साथ बैठ कर सियासी मसलों के समाधान में हिंसा और अलगाव की
संभावना को सिरे से नकारने पर सशक्त राय देने से क्यों परहेज करते हैं ?

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