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जो देश अभी एक सप्ताह पहले एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहा था,आधे से ज्यादा इलाका बाढ़ की चपेट में आ गया।
असम जैसे राज्य के 33 जिले में से 21 बाढ़ की चपेट में है, आठ लाख लोग पीड़ित हैं, 6 लोग मर गए हैं और 27 हजार हेक्टेयर से अधिक की खेती बह गई है। बिहार में पिछले चार दिनों में बाढ़ पीड़ित जिलों में 32 लोगों की मौत हो गई। आपदा प्रबंधन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक नेपाल की सीमा से लगे क्षेत्रों में मूसलाधार बारिश राज्य की पांच नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। राज्य के नौ जिलों-शिवहर, सीतामढ़ी, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, अररिया, किशनगंज, सुपौल, दरभंगा और मुजफ्फरपुर के 55 प्रखंडों में बाढ़ से कुल 17,96,535 आबादी पीड़ित हुई है। सबसे ज्यादा सीतामढ़ी में करीब 11 लाख लोग बाढ़ से घिरे हुए हैं तो अररिया में पांच लाख लोग।भयंकर सूखे से हैरान मध्य प्रदेश के कोई 12 जिलों की छोटी नदियां आषाढ़ की पहली फुहारों में ही उफन गईं।
आंकड़ों को देखें तो बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। गंभीरता से देखें तो यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध और मध्यम नदियों के उथले होने के दुष्परिणाम हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। अभी यह तबाही कोई सात करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है।
पिछले साल बाढ़ से साढ़े नौ सौ से अधिक लोगों के मरने, तीन लाख मकान ढ़हने और चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल बह जाने की जानकारी सरकारी सूत्र देते हैं। हर साल लाखों बाढ़ पीड़ित शरणार्थी इधर-उधर भागते हैं। पुनर्वास के नाम पर उन्हें फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय ही होता है। यहां के प्राकृतिक पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई कर हुआ अनियोजित शहरीकरण और सड़कों का निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ की बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी है।
पिछले साल बाढ़ से साढ़े नौ सौ से अधिक लोगों के मरने, तीन लाख मकान ढ़हने और चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल बह जाने की जानकारी सरकारी सूत्र देते हैं। हर साल लाखों बाढ़ पीड़ित शरणार्थी इधर-उधर भागते हैं। पुनर्वास के नाम पर उन्हें फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय ही होता है। यहां के प्राकृतिक पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई कर हुआ अनियोजित शहरीकरण और सड़कों का निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ की बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी है।
देश के कुल बाढ़ पीड़ित क्षेत्र का 16 फीसद बिहार में है। यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाघमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं। इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केद्र सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा है। यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं। ‘बिहार का शोक’ कोशी के ऊपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है। लेकिन इसके रख-रखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रुपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है। तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं। कोशी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सील्ट (गाद) के भराव से उंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती हैं। फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मुंगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। ब्रिटिश सरकार ने बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को उचित नहीं माना था। इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम जारी है।
हिमालयन नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है। इस कारण यहां का बड़ा भाग कठोर-चट्टानें न हो कर, कोमल मिट्टी है। बारिश या बरफ के पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है। पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है। इस कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हो जाते हैं।लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, सो बेशकीमती मिट्टी अब बांधों में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है। नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो बाढ़ जैसी भीषण विभीषिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
हिमालयन नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है। इस कारण यहां का बड़ा भाग कठोर-चट्टानें न हो कर, कोमल मिट्टी है। बारिश या बरफ के पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है। पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है। इस कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हो जाते हैं।लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, सो बेशकीमती मिट्टी अब बांधों में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है। नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो बाढ़ जैसी भीषण विभीषिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
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