My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

Flood in Rivers - The men made disaster

छेड़छाड़ से बिफर रही हैं नदियां
        पंकज चतुर्वेदी

जो देश अभी एक सप्ताह पहले एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहा था, बादल क्या बरसे, आधे से ज्यादा इलाका बाढ़ की चपेट में आ गया। असम जैसे राज्य में 26 से ज्यादा मौत हो चुकी हैं व 25 जिले पूरी तरह जलमग्न है।। असम, बिहार, पूर्वी उ.्रप तो हर साल बारिश में हलकान रहता है,लेकिन इस बार तो जम्मू-कश्मीर, गुजरात का सौराश्ट्र और राजस्थान के शेखावटी के रेतीले इलाके भी जलमग्न हैं। भयंकर सूखे से हैरान मध्यप्रदेश के कोई 12 जिलों की छोटी नदियां आशाढ की पहली फुहारों में ही उफन गईं।  पिछले कुछ सालों के आंकड़ें देखें तो पायेंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके में कई गुना बढ़ौतरी हुई है । कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही, उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है । गंभीरता से देखें तो यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध और मध्यम नदियों के उथले होने का दुष्परिणाम है। बाढ़ अकेले कुछ दिनों की तबाही ही नहीं लाती है, बल्कि वह उस इलाके के विकस को सालेां पीछे ले जाती है ।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी । 1960 में यह बढ़ कर ढ़ाई करोड़ हेक्टेयर हो गई । 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया । अभी यह तबाही कोई सात करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है । पिछले साल आई बाढ़ से साढ़े नौ सौ से अधिक लोगों के मरने, तीन लाख मकान ढ़हने और चार लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल बह जाने की जानकारी सरकारी सूत्र देते हैं । यह जान कर आश्चर्य होगा कि सूखे और मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है ।ं देश में बाढ़ की पहली दस्तक असम में होती है । असम का जीवन कहे जाने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां मई-जून के मध्य में ही विनाश फैलाने लगती हैं । हर साल लाखों बाढ़ पीड़ित शरणार्थी इधर-उधर भागते है । बाढ़ से उजड़े लोगों को पुनर्वास के नाम पर एक बार फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय ही होता है । यहां के प्राकृतिक पहाडों की बेतरतीब खुदाई कर हुआ अनियोजित शहरीकरण और सड़कों का निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ की बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी है । सनद रहे वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है और भूमि पर मिट्टी की उपरी परत, गहराई तक छेदता है ।यह मिट्टी बह कर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं । हाल ही में दिल्ली में एनजीटी ने मेट्रो कारपोरेशन को चताया है कि वह यमुना के किनारे  जमा किए गए हजारों ट्रक मलवे को हटवाए। यह पूरे देश में हो रहा है कि विकास कार्याें के दौरान निकली मिट्टी व मलवे को स्थानीय नदी-नालों में चुपके से डाल दिया जा रहा है। और तभी थोड़ी सी बारिश में ही  इन जल निधियों का प्रवाह कम हो जाता है व पानी बस्ती,खेत, ंजगलों में घुसने लगता है।
   देश के कुल बाढ़ प्रभवित क्षेत्र का 16 फीसदी बिहार में है । यहां कोशी, गंड़क, बूढ़ी गंड़क, बाधमती, कमला, महानंदा, गंगा आदि नदियां तबाही लाती हैं । इन नदियों पर तटबंध बनाने का काम केन्दª सरकार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण अधूरा हैं । यहां बाढ़ का मुख्य कारण नेपाल में हिमालय से निकलने वाली नदियां हैं । ‘‘बिहार का शोक’’ कहे जाने वाली कोशी के उपरी भाग पर कोई 70 किलोमीटर लंबाई का तटबंध नेपाल में है । लेकिन इसके रखरखाव और सुरक्षा पर सालाना खर्च होने वाला कोई 20 करोड़ रूपया बिहार सरकार को झेलना पड़ता है । हालांकि तटबंध भी बाढ़ से निबटने में सफल रहे नहीं हैं । कोशी के तटबंधों के कारण उसके तट पर बसे 400 गांव डूब में आ गए हैं । कोशी की सहयोगी कमला-बलान नदी के तटबंध का तल सील्ट (गाद) के भराव से उंचा हो जाने के कारण बाढ़ की तबाही अब पहले से भी अधिक होती हैं । फरक्का बराज की दोषपूर्ण संरचना के कारण भागलपुर, नौगछिया, कटिहार, मंुगेर, पूर्णिया, सहरसा आदि में बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । विदित हो आजादी से पहले अंग्रेज सरकार व्दारा बाढ़ नियंत्रण में बड़े बांध या तटबंधों को तकनीकी दृष्टि से उचित नहीं माना था । तत्कालीन गवर्नर हेल्ट की अध्यक्षता में पटना में हुए एक सम्मेलन में डा. राजेन्दªप्रसाद सहित कई विद्वानों ने बाढ़ के विकल्प के रूप में तटबंधों की उपयोगिता को नकारा था । इसके बावजूद आजादी के बाद हर छोटी-बड़ी नदी को बांधने का काम अनवरत जारी है ।
    बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों के कई उदाहरण पूरे देश में देखने को मिल रहे हैं। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे है । जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़ कर कंक्रीट जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है । फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है । यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है । फलस्वरूप नदी की जल ग्रहण क्षमता कम होती है ।
   कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में बाढ़ का कारण जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हो रहा जमीन का अनियंत्रित शहरीकरण ही है । इससे वहां भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं और इसका मलवा भी नदियों में ही जाता है । पहाड़ों पर खनन से दोहरा नुकसान है । इससे वहां की हरियाली उजड़ती है और फिर खदानों से निकली धूल और मलवा नदी नालों में अवरोध पैदा करता है । हिमालय से निकलने वाली नदियों के मामले में तो मामला और भी गंभीर हो जाता है । सनद रहे हिमालय, पृथ्वी का सबसे कम उम्र का पहाड़ है । इसकी विकास प्रक्रिया सतत जारी है, तभी इसे ‘‘जीवित-पहाड़’’ भी कहा जाता है । इसकी नवोदित हालत के कारण यहां का बड़ा भाग कठोर-चट्टानें ना हो कर, कोमल मिट्टी है । बारिश या बरफ के पिघलने पर, जब पानी नीचे की ओर बहता है तो साथ में पर्वतीय मिट्टी भी बहा कर लाता है । पर्वतीय नदियों में आई बाढ़ के कारण यह मिट्टी नदी के तटों पर फैल जाती है । इन नदियों का पानी जिस तेजी से चढ़ता है, उसी तेजी से उतर जाता है । इस मिट्टी के कारण नदियों के तट बेहद उपजाऊ हुआ करते हैं । लेकिन अब इन नदियों को जगह-जगह बांधा जा रहा है, सो बेेशकीमती मिट्टी अब बांध्बांधंांेे में ही रुक जाती है और नदियों को उथला बनाती रहती है । साथ ही पहाड़ी नदियों में पानी चढ़ तो जल्दी जाता है, पर उतरता बड़े धीरे-धीरे है ।
  मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेउ़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
पंकज चतुर्वेदी
फ्लेट यूजी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
संपर्क: 9891928376, 011- 26707758(आफिस),

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...