मुसीबत बनता मधुमेह
दो साल पहले के सरकारी आंकड़ों को सही मानें तो उस समय देश में कोई सात करोड़ तीस लाख लोग ऐसे थे जो मधुमेह या डायबीटिज की चपेट में आ चुके थे। अनुमान है कि 2045 तक यह संख्या 13 करोड़ को पार कर जाएगी। मधुमेह वैसे तो खुद में एक बीमारी है, लेकिन इसके कारण शरीर को खोखला होने की जो प्रक्रिया शुरू होती है उससे मरीजों की जेब भी खोखली हो रही है और देश के मानव संसाधन की कार्य क्षमता पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। जानकर आश्चर्य होगा कि बीते एक साल में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत के लोगों ने मधुमेह या उससे उपजी बीमारियों पर सवा दो लाख करोड़ रुपये खर्च किए, जो कि हमारे कुल सालाना बजट का 10 फीसद है। बीते दो दशक के दौरान इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या में 65 प्रतिशत की बढ़ोतरी होना भी कम चिंता की बात नहीं है।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआइ) की एक रिपोर्ट बताती है कि 2017 में देश के साढ़े पांच करोड़ लोगों के लिए स्वास्थ्य पर किया गया व्यय उनकी हैसियत से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा। यह संख्या दक्षिण कोरिया या स्पेन की आबादी से अधिक है। इनमें से 60 फीसद यानी तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चो के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। पहले मधुमेह, दिल के रोग आदि खाते-पीते या अमीर लोगों की बीमारी माने जाते थे, लेकिन अब ये ग्रामीण, गरीब बस्तियों और तीस साल तक के युवाओं को शिकार बना रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मधुमेह जीवनशैली बिगड़ने पर उपजने वाला रोग है। फिर भी बेरोजगारी, बेहतर भौतिक सुख जोड़ने की अंधी दौड़ तो खून में शर्करा की मात्र बढ़ा ही रही हैं, कुपोषण, निम्न गुणवत्ता वाला भोजन भी इसके मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी के बड़े कारक हैं। बदलती जीवनशैली कैसे मधुमेह को आमंत्रित करती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण लेह-लद्दाख है। पहाड़ी इलाका होने के चलते पहले वहां लोग खूब पैदल चलते थे, जीवकोपार्जन के लिए उन्हें खूब मेहनत करनी पड़ती थी सो लोग ज्यादा बीमार नहीं होते थे। पिछले कुछ दशकों में वहां पर्यटक बढ़े। उनके लिए घर में जल की व्यवस्था वाले पक्के मकान बने। बाहरी दखल के चलते वहां चीनी यानी शक्कर का इस्तेमाल होने लगा और इसी का कुप्रभाव है कि स्थानीय समाज में अब मधुमेह जैसे रोग घर कर रहे हैं। ठीक इसी तरह अपने भोजन के समय, मात्र, सामग्री में परिवेश एवं शरीर की मांग के मुताबिक सामंजस्य ना बैठा पाने के चलते ही अमीर एवं सर्वसुविधा संपन्न वर्ग के लेग मधुमेह में फंस रहे हैं।
हाल ही में दवा कंपनी सनोफी इंडिया के एक सर्वे में ये डरावने तथ्य सामने आए हैं कि मधुमेह की चपेट में आए लोगों में से 14.4 फीसद को किडनी और 13.1 फीसद को आंखों की रोशनी जाने का रोग लग जाता है। इस बीमारी से ग्रस्त लोगों में से 14 फीसद मरीजों के पैरों की धमनियां जवाब दे जाती हैं जिससे उनके पैर खराब हो जाते हैं। वहीं लगभग 20 फीसद लोग किसी ना किसी तरह की दिल की बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। वहीं 6.9 प्रतिशत लोगों को न्यूरो अर्थात तंत्रिका से संबंधित दिक्कतें भी हो जाती हैं। जाहिर है कि मधुमेह अकेले नहीं आता, वह कई अन्य शारीरिक विकारों को साथ लाता है।
यह तथ्य बानगी है कि भारत को रक्त की मिठास बुरी तरह खोखला कर रही है। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्र को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं। सभी जानते हैं कि एक बार मधुमेह हो जाने पर मरीज को जिंदगी भर दवाएं खानी पड़ती हैं। मधुमेह नियंत्रण के साथ-साथ रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल की दवाओं को लेना आम बात है। जब इतनी दवाएं लेंगे तो पेट में बनने वाले अम्ल के नाश के लिए भी एक दवा जरूरी है। जब अम्ल नाश करना है तो उसे नियंत्रित करने के लिए कोई मल्टी विटामिन अनिवार्य है। एक साथ इतनी दवाओं के बाद लीवर पर तो असर पड़ेगा ही। प्रत्येक मरीज हर महीने औसतन डेढ़ हजार रुपये की दवा तो लेता ही है अर्थात सालाना 18 हजार रुपये। देश में अभी कुल साढ़े सात करोड़ मरीज होने का अनुमान है। इस तरह यह राशि तेरह लाख पचास हजार करोड़ रुपये होती है। इसमें शुगर मापने वाली मशीनों एवं टेस्ट को तो जोड़ा ही नहीं गया है।
दुर्भाग्य है कि देश के दूरस्थ अंचलों की बात तो छोड़ दें, राजधानी या महानगरों में ही हजारों ऐसे लैब हैं जिनकी जांच की रिपोर्ट संदिग्ध रहती है। फिर भी गंभीर बीमारियों के लिए प्रधानमंत्री आरोग्य योजना के तहत पांच लाख रुपये तक के इलाज की नि:शुल्क व्यवस्था में मधुमेह जैसे रोगों के लिए कोई जगह नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानी केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसद मधुमेह के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं।
आज भारत मधुमेह को लेकर बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। जरूरत है कि इस पर सरकार अलग से कोई नीति बनाए, जिसमें जांच, दवाओं के लिए कुछ कम तनाव वाली व्यवस्था हो। वहीं स्टेम सेल से मधुमेह के स्थायी इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख रुपये है, लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज शामिल नहीं है। सनद रहे स्टेम सेल थेरेपी में बोन मैरो या एडीपेस से स्टेम सेल लेकर इलाज किया जाता है। इस इलाज की पद्धति को ज्यादा लोकप्रिय और सरकार की विभिन्न योजनाओं में शामिल किया जाए तो बीमारी से लड़ने में सफलता मिलेगी। इसके साथ ही बाजार में मिलने वाले डिब्बाबंद सामानों एवं हलवाई की दुकानों की सामग्रियों की कड़ी पड़ताल, देश में योग या व्यायाम को बढ़ावा देने के और अधिक प्रयास युवा आबादी की कार्यक्षमता को बढ़ाने और इस बीमारी से लड़ने में मददगार साबित हो सकते हैं।
आज भारत मधुमेह को लेकर बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। जरूरत है कि इस पर सरकार अलग से कोई नीति बनाए, जिसमें जांच, दवाओं के लिए कुछ कम तनाव वाली व्यवस्था हो
पंकज चतुर्वेदी
यक़ीनन मधुमेह एक भयानक महामारी का रूप धर चुकी है। मैं निजी तौर पर यह मानता हूँ तमाम अन्य वजहों के साथ जानकारी का अभाव भी इसके विस्तार का एक बहुत बड़ा कारण है।
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