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रविवार, 28 जुलाई 2019

Grasshoppers from pakistan are attacing Rajstahn

कश्मीर पहुंच गए हैं अफ्रीकी टिड्डे

                                                                                                                               
पंकज चतुर्वेदी

इस साल राजस्थान के थार में अभी तक कुछ खास बारिश हुई नहीं, रेत के धारों में उतनी हरियाली भी नहीं उपजी और अचानक पिछले दिनों बीकानेर के आसमान में इतना बड़ा टिड्डी दल मंडराता दिखा कि दिन में अंधेरा दिखने लगा। प्रकाश का अंधेरा तो छंट गया लेकिन बीकानेर के बाद चुरू, सरदार शहर तक के आंचलिक क्षेत्रों में जिस तरह ट्ड्डिी दल पहुंच रहे हैं, उससे वहां कि किसानों की मेहनत जरूर काली होती दिख रही है। जेसलमेर और बाडमेर भी कई बड़े टिड्डी दल सीमा पार से आ कर डेरा जमा चुके हैं। इस बात की प्रबल आशंका है कि राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के तीन दर्जन जिलों में आने वाले महीनों में हरियाली का नामोंनिशान तक नहीं दिखे,क्योंकि वहां अफ्रीका से पाकिस्तान के रास्ते आने वाले कुख्यात टिड्डों का हमला होने वाला हैं । टिड्डी दल का इतना बड़ा हमला आखिरी बार 1993 में यानि 26 साल पहले हुआ था। वैसे इस साल 21 मई को एक टिड्डी दल फलौदी के पास दिखा था, लेकिन उसे गंभीरता से लिया  नहीं गया।
राजस्थान के बीकानेर,जेसलमेर, बाडमेर और गुजरात के कच्छ इलाकों में बारिश और हरियाली ना के बराबर है। या तो किसी मीठे पानी के ताल यानि सर के पास कुछ पेड़ दिखेंगे या फिर यदा-कदा बबूल जैसी कंटीली झाड़ियां ही दिखती हैं। इस साल आषाढ़ लगते ही दो दिन धुंआधार बारिश हुई थी जिसने रेगिस्तान में कई जगह नखलिस्तान बना दिया था। सूखी, उदास सी रहने वाली लूनी नदी लबालब है । पानी मिलने से लोग बेहद खुश हैं,लेकिन इसमें एक आशंका व भय भी छिपा हुआ है । खड़ी फसल को पलभर में चट कर उजाड़ने के लिए मशहूर अफ्रीकी टिड्डे इस हरियाली की ओर आकर्शित हो रहे हैं और आने वाले महीनों में इनके बड़े-बड़े झुंडों का हमारे यहां आना षुरू हो जाएगा । पाकिस्तान ऐसे टिड्डी दल को देखते ही हवाई जहाज से दवा छिड्कवा देता है , ऐसे में हवा में उपर उड़ रहे ट्डिृडी दल भारत की ओर ही भागते हैं।
सोमालिया जैसे उत्तर-पूर्वी अफ्रीकी देशों से ये टिड्डे बारास्ता यमन, सऊदी अरब और पाकिस्तान भारत पहुंचते रहे हैं । विश्व स्वास्थ संगठन ने स्पश्ट चेतावनी दी है कि यदि ये कीट एक बार इलाके में घुस गए तो इनका प्रकोप कम से कम तीन साल जरूर रहेगा । अतीत गवाह है कि 1959 में ऐसे टिड्डों के बड़े दल ने बीकानेर की तरफ से धावा बोला था, जो 1961-62 तक टीकमगढ़(मध्यप्रदेश) में तबाही मचाता रहा था । इसके बाद 1967-68, 1991-92 में भी इनके हमले हो चुके हैं। अफ्रीकी देशों में महामारी के तौर पर पनपे टिड्डी दलों के बढ़ने की खबरों में मद्देनजर हाल ही में राजस्थान सरकार ने अफसरों की मींिटंग बुला कर इस समस्या ने निबटने के उपाय तत्काल करने के निर्देश दिए हैं ।
हमारी फसल और जंगलों के दुश्मन टिड्डे, वास्तव में मध्यम या बड़े आकार के वे साधारण टिड्डे(ग्रास होपर) हैं, जो हमें यदा कदा दिखलाई देते हैं । जब ये छुटपुट संख्या में होते हैं तो सामान्य रहते हैं, इसे इनकी एकाकी अवस्था कहते हैं । प्रकृति का अनुकूल वातावरण पा कर इनकी संख्या में अप्रत्याशित बढ़ौतरी हो जाती है और तब ये बेहद हानिकारक होते हैं। रेगिस्तानी टिड्डे इनकी सबसे खतरनाक प्रजाति हैं । इनकी पहचान पीले रंग और विशाल झुंड के कारण होती हैं। मादा टिड्डी का आकार नर से कुछ बड़ा होता हैं और यह पीछे से भारी होती हैं। तभी जहां नर टिड्डा एक सेकंड में 18 बार पंख फड्फड़ाता है,वहीं मादा की रफ्तार 16 बार होती हैं । गिगेरियस जाति के इस कीट के मानसून और रेत के घोरों में पनपने के आसार अधिक होते हैं ।
एक मादा हल्की नमी वाली रेतीली जमीन पर ं40 से 120 अंडे देती है और इसे एक तरह के तरल पदार्थ से ढंक देती हैं । कुछ देर में यह तरल सूख कर कड़ा हो जाता है और इस तरह यह अंडों के रक्षा कवच का काम करता हैं। सात से दस दिन में अंडे पक जाते हैं । बच्चा टिड्डा पांच बार रंग बदलता हैं । पहले इनका रंग काला होता है, इसके बाद हल्का पीला और लाल हो जाता हैं । पांचवी कैंचुली छूटने पर इनके रंग निकल आते हैं और रंग गुलाबी हो जाता हैं । पूर्ण वयस्क हाने पर इनका रंग पीला हो जाता हैं । इस तरह हर दो तीन हफ्ते में टिड्डी दल हजारों गुणा की गति से बढ़ता जाता हैं ।
यह टिड्डी दल दिन में तेज धूप की रोशनी होने के कारण बहुधा आकाश में उड़ते रहते हैं और षाम ढलते ही पेड़-पौधों पर बैठ कर उन्हें चट कर जाते हैं । अगली सुबह सूरज उगने से पहले ही ये आगे उड़ जाते हैं । जब आकाश में बादल हों तो ये कम उड़ते हैं, पर यह उनके प्रजनन का माकूल मौसम होता हैं । ताजा षोध से पता चला है कि जब अकेली टिड्डी एक विशेश अवस्था में पहुंच जाती है तो उससे एक गंधयुक्त रसायन निकलता हैं । इसी रासायनिक संदेश से टिड्डियां एकत्र होने लगती हैं और उनका घना झुंड बन जाता हैं । इस विशेश रसायन को नश्ट करने या उसके प्रभाव को रोकने की कोई युक्ति अभी तक नहीं खोजी जा सकी हैं ।
रेगिस्तानी इलाकों में बढ़ती हरियाली को देख कर संभावित टिड्डी हमले के खौफ से उससे सटे जिलों के किसानों की नींद उड़ गई हैं । पिछले कुछ दिनों में अभी तक कोई 155 हैक्टर फसल इन ट्ड्डिो की चपेट में आ चुकी है। खुदा ना खास्ता टिड्डी दलों का बड़ा हमला हो गया तो सरकारी अमले हल्ला, दौरा और चिंता जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाएंगे । कुछ जगहों पर कंट्रोल रूम बनाने की भी चर्चा भी है,लेकिन इनका कंट्रोल कागजों पर ही ज्यादा हैं । पिछले टिड्डी हमलों के दौरान राजस्थान व मध्यप्रदेश सरकार ने मेलाथियान और बीएचसी का छिड़काव करवाया था और दोनों ही असरहीन रहे थे । अब सरकार को ही नहीं मालूम कि हमला होने पर कौन सा कीटनाशक काम में लाया जाएगा ।
वैसे टिड्डों के व्यवहार से अंदाज लगाया जा सकता है कि उनका प्रकोप आने वाले साल में जून-जुलाई तक चरम पर होगा । यदि राजस्थान और उससे सटे पाकिस्तान सीमा पर टिड्डी दलों के भीतर घुसते ही सघन हवाई छिड़काव किया जाए, साथ ही रेत के धौरों में अंडफली नश्ट करने का काम जनता के सहयोग से शुरू किया जाए तो अच्छे मानसून का पूरा मजा लिया जा सकता हैं ।
खबर है कि अफ्रीकी देशों से एक किलोमीटर तक लंबाई के टिड्डी दल आगे बढ़ रहे हैं । सोमालिया जैसे देशो ंमें आंतरिक संघर्श और गरीबी के कारण सरकार इनसे बेखबर हैं । यमन या अरब में कोई खेती होती नहीं हैं । जाहिर है कि इनसे निबटने के लिए भारत और पाकिस्तान को ही मिलजुल का सोचना पड़ेगा । वैसे दोनो देशों के बीच इस बाबात जानकारी साझा करने का एक सिस्टम हैं, सतत मीटिंग भी होती हैं लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं हैं।

पंकज चतुर्वेदी

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