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सोमवार, 22 दिसंबर 2014

Children needs books not gun security

सुरक्षा नहीं किताबें चाहिए बच्चों को

                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी
हिन्दुस्तान २३ दिसंबर १४ 
पेशा वर के फौजी स्कूल में कुछ राक्षसों द्वारा जो कुछ किया गया, उस पर गुस्सा लाजिमी है, अपने पड़ोसी के दर्द में साथ खड़ा होना भी जरूरी है, हमले से सबक लेना व एहतिहात बरतना ही चाहिए, लेकिन जिस तरह से कुछ लोगों ने इसको ले कर बच्चों के मन में खैफ पैदा किया, वह निहायत गैरजिम्मेदाराना है। बहुत से अखबार और मीडिया चैनल बाकायदा मुहिम चलाए है कि अमुक स्कूल में सुरक्षा के साधन नहीं है, कहीं पर बंदूकधारी गार्ड को दिखा कर सुरक्षा को पुख्ता कहा जा रहा है। माता-पिता इस वाकिये के बाद अपने बच्चों को ज्यादा प्यार जता कर दुआ कर रहे हैं कि ऐसा हमारे यहां ना हो। भावनात्मक स्तर पर यह भले ही स्वाभाविक लगे, लेकिन दूरगामी सोच और बाल मनोविज्ञान की दृश्टि से सोचें तो हम बच्चे को बस्ता, होमवर्क, बेहतर परिवहन, परीक्षा में अव्वल अने, खेल के लिए समय ना मिलने, अपने मन का ना कर पाने, दोस्त के साथ वक्त ना बिता देने जैसे अनगिनत दवाबों के बीच एक ऐसा अनजाना भय दे रहे हैं जो शायद उसके साथ ताजिंदगी रहे।  यह जान लें कि जो षिक्षा या किताबे या सीख, बच्चों को आने वाली चुनौतियों से जूझने और विशम परिस्थितियों का डट कर मुकाबला करने के लायक नहीं बनाती हैं, वह रद्दी से ज्यादा नहीं हैं।
Jnasandesh Times Lucknow 2-2-15
http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Lucknow/Lucknow/02-02-2015&spgmPic=7
आज जिन परिवारों की आय बेहद सीमित भी है, वे अपना पेट काट कर बच्चें को बेहतर स्कूल में भेज रहे हैं। वहीं देष में लाखों स्कूल ऐसे हैं जहां, षिक्षक, कमरे, ब्लेक बोर्ड, शोचालय, आवागमन के साधन, बिजली, लायब्रेरी, बैठने की टाटपट्टी व फर्नीचर और तो और मास्टरजी को बैठने को कुर्सी नहीं हैं। निजी स्कूलों का बमुश्किल  20 फीसदी ही बच्चों को बेहतर माहौल दे पा रहा है। बच्चे पुस्तकों, अपी जिज्ञासा के सटीक जवाब, स्कूल व पाठ्य पुस्तकों की घुटन के छटपटाते हैं। ऐसे में हम माहौल बना रहे हैं कि स्कूल में बंदूक वाला या तगड़ा सा सुरक्षा गार्ड कयों नहीं है। भारत के स्कूलों में बंगलौर जैसे बड़े षहर में छोटी बच्चियों के साथ दुश्कर्म स्कूल के भीतर, स्कूल के स्टाफ द्वारा ही हो जाता है। क्या यह पेशावर की तालीबानी हरकत से कम घिनौना कृत्य है? स्कूल में बच्चे अपने ही शिक्षक द्वारा की गई निर्मम पिटाई से  जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाते हैं, ट्यूषन या ऐसे ही निजी स्वार्थ के चलते बच्चों से स्कूल में भेदभाव होता है, तो क्या ऐसे असमानता , अत्याचार के हल दरवाजे पर खड़ा बंदूक वाला या पुलिसवाला तलाष सकता है??
आज जरूरत है कि बच्चों को ऐसी तालीम व किताबें मिलें जो उन्हें वक्त आने पर रास्ता भटकने से बचा सकें। जरा विचार करें कि हमारे ही देश  के कई पढ़े-लिखें युवाओं को नाम आतंकवादी घटनाओं में आ रहा है और हम केवल उन पर आपराधिक मुकदमें, जेल में डाल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान रहे हैं । हकीकत में तो समय यह विचार करने का है कि आखिर हमारी तालीम में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि हमारे मुल्क में ही पैदा हुआ युवा किसी विदेषी के हाथों की कठपुतली बनकर अपने ही देश  के खिलाफ काम करने लगा। हमारी किताबें भले ही तकनीकी तौर पर युवाओं को अंतरराश्ट्री स्तर का बना रही हों, लेकिन हमारे लफ्ज यह नहीं बता पा रहे हैं कि जब कोई धर्म, आस्था, संस्कार केनाम पर भड़काए तो क्या करना चाहिए। आज स्कूलों में भी डंडा या बंदूक की नहीं, अपितु ऐसी सीख की जरूरत है कि जब ये बच्चे बड़े हो तो उन्हें कोई तालीबान या आईएस बरगला ना पाए।
संवेदना, श्रद्धांजलि, घटनाओं के  प्रति जागरूकता एक बच्चें के व्यक्तित्व निर्माण के बड़े कदम हैं, लेकिन इनके माध्यम से उसे भयभीत करना, कमजोर करना और तात्त्कालिक  कदम उठाना एक बेहतर भविश्य का रास्ता तो नहीं हो सकता। यदि वास्तव में हम चाहते हैं कि भविश्य में पेषावर जैसी घटनाएं ना हों तो हमारी शि क्षा, व्यवस्था, सरकार व समाज को यह आष्वस्त करना होगा कि भविश्य में कोई तालीबान बनेगा नहीं नहीं क्योंकि उसके बचपन में स्कूल, पुस्तकें, ज्ञान, स्नेह, खेल, सकारात्मकता का इतना भंडार होगा कि वह पथभ्रश्ट हो ही नहीं सकता। भय हर समय भागने की ओर प्रषस्त करता है और भगदड़ हर समय असामयिक घटनाओं का कारक होती है। विशम हालात में एक दूसरे की मदद करना, साथ खड़ा होना, डट कर मुकाबला करना हमारी सीख का हिस्सा होना चाहिए, नाकि आंसू, लाचारी, किसी देष या धर्म या जाति के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मोमबत्ती, भाशण या षोक सभाएं।

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