My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

Primary education and local languages

रूम टू रीड की पञिका का यह अंक प्राथमिक शिक्षा में भाषा बोली के सवाल पर बेहद तथ्‍यात्‍मक और विचारणीय आलेख प्रस्‍तुत करता है, सभी आलेख जरूर पढें, यदि आप चाहते हैं कि पञिका का पीडीएफ आपको भेजूंु तो अपना ईमेल भेज दें, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये सभी आलेख आपकी शिक्षा के सवालों से जुडी विचार श्रंखला को विस्‍तार देंगे
भाषा बोली के चौथे अंक में एक लेख मेरा भी है जिसका जेपीजी लगा रहा हूं, इसे विस्‍तार से पढने के लिए इस लिंक http://issuu.com/kartiksahu/docs/bhasha_boli_issue_4 या मेरे ब्‍लाग को देख सकते हैं pankajbooks.blogspot.com





मैं क्यों पढूं इस स्कूल की भाषा में ?

                                                                पंकज चतुर्वेदी
 0 बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध््रा प्रदेश से सटे सुकमा जिले में देारला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली हैं दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर, वहां द्रविड परिवार की बोलिसां भी है, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्क्त महसूस करता है। दोरली बोलने वाले बहुत कम हुआ करते थे, पिछली जनगणना में शायद  बीस हजार । फिर खून खराबे का दौर चला, पुलिस व नक्सली दोनेा तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्रप्रदेश के वारंगल जिले में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बच्चों की दोरली में तेलुगू का घालमेल हो चुका था। एक तो बड़ी मुष्किल से दोरली बोलने वाला शिक्षक मिला था और जब उसने देखा कि उसके बच्चों की दोरली भी अपभ्रंष हो गई है तो उसकी चिंता असीम हो गई कि अब पढाई कैसे आगे बढ़ाई जाए। यह चिंता कोटां गांव के कट्टम सीताराम की।
0 मान लिया कि वह बेहद विषम इलाका है, बोलियों का संजाल है वहां लेकिन लखनऊ महानगर की सीमा से सटे फैजाबदा मार्ग पर स्थित चिन्हट के एक माध्यमिक स्कूल की कक्षा आठ की एक घटना राज्य में शिक्षण व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी है । स्कूल श्‍ाुरू होने के कई महीने बाद विज्ञान की किताब के पहले पाठ पर चर्चा हो रही थी । पाठ था पौघों के जीवन का । दूसरे या तीसरे पृष्‍ठ पर लिखा था कि पौध्ेा श्‍वसन क्रिया करते हैं । बच्चों से पूछा कि क्या वे भी श्‍वसन करते हैं तो कोई बच्चा यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वे भी श्‍वसन करते है। । यानि जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है उसे व्यावहारिक धरातल पर समझाने के कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं, महज तोता रटन को ही शिक्षा मान लिया जा रहा है ।
0 वह बामुश्‍किल तीन साल की बच्ची होगी, पापा की गोदी में जब कार से उतरी तो चहक रही थी। जैसे ही बस्ता उसके कंधे पर गया तो वह सुबकने लगी, रंग बिरंगे पुते, दरवाजे तक पहुंची तो दहाड़ें मारने लगी। वह स्कूल क्या है, खेल-घर है, वहां खिलौने हैं, ढूले हैं, खरगोष व कबूतर हैं, कठपुतलियां हैं। फिर भी बच्ची वहां जाना नहीं चाहती। अब पापा को तो आफिस की देर हो रही है , सो उन्होंने मचलती बच्ची केा चैाकीदार को सौंपा और रूदन को अनदेखा कर  फुर्र हो गए।  मान लिया कि वह बच्ची बहुत छोटी है, उसे मम्मी-पापा की याद आती होगी व उसके माता-पिता नौकरी करते होंगे सो दिन में बच्ची को व्यस्त रखने के लिए उस प्ले स्कूल में दाखिला करवा दिया होगा। लेकिन यह भी सच है कि आम बच्चे के लिए स्कूल एक जबरदस्ती, अनमने मन से जाने वाली जगह और वहां होने वाली गतिविधियों उसकी मन मर्जी की होती नहीं हैं। कई बार तो स्कूल की पढ़ाई पूरा कर लेने तक बच्चे को समझ ही नहीं आता है कि वह अभी 12-14 साल करता क्या रहा है। उसका आकलन तो साल में एक बार कागज के एक टुकड़े पर कुछ अंक या ग्रेड के तौर पर होता है और वह अपनी पहचान, काबिलियत उस अंक सूची के बाहर तलाशने को छटपटाता रहता है।
ऊपर उल्लेखित तीनों हालात बताते हैं कि बच्चे के लिए स्कूल व शिक्षा कितनी  गूढ़ पहेली होता है। उसे मां-बाप की आज्ञा का पालन करना है, उसे स्कूल में टीचर की बात मानना है, उसे सवाल पूछने का हक नहीं है, सो वह अनमने मन से वह सबकुछ पढ़ता जाता है जो उसे कतई नहीं सुहाता। वह ना तो उसकी अपनी जुबान में है, ना ही परिवेश में और ना ही व्याहवारिकता में ।
11वीं पंचवर्षीय योजना में लक्ष्य रखा गया था कि  भारत में आठवीं कक्षा तक जाते -जाते स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के 50 प्रतिषत को 20 प्रतिषत तक नीचे ले आया जाए, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। आज भी  कोई 40 प्रतिशत बच्चे आठ से आगे के दर्जे का स्कूल नहीं देख पाते हैं। हां, यह तय है कि ऊपर स्कूल ना जाने के लिए मचल रही जिस बच्ची का जिक्र किया गया है , उस सामाजिक-आर्थिक हालात के बच्चे आमतौर पर कक्षा आठ के बाद के ड्राप आउट की श्रेणी में नहीं आते हैं। सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों में अधिकांश गरीब, उपेक्षित जाति व समाज के और बच्चियां होती हैं। कई नजीर हैं कि बहुत से उपेक्षित या अछूत जैसी त्रासदी भोग रही जाति के लोगों ने आज से कई दशक पहले  स्कूल भी पढ़ा और गरीबी के बावजूद कालेज भी और उससे आगे भी। असल में वे लोग छोटी उम्र में ही जान गए थे कि शिक्षा नौकरी दिलवाने की कुंजी नहीं, बल्कि बदलाव व जागरूकता का माध्यम है। लेकिन ऐसे लोग विरले ही होते हैं और औसत बच्चों के लिए आज भी स्कूल कुछ ऐसी गतिविधि है जो उनकी अपेक्षा के अनुरूप या मन के मुताबिक नहीं है। उसको वहां पढाई जा रही पुस्तकों में वह कुछ ऐसा नहीं पाता जो उसके मौजूदा जीवन में काम आए।
जब बच्चा चाहता है कि वह गाय को करीब से जा कर देखे, तब स्कूल में वह खिडकी बंद कर दी जाती है जिससे बाहर झांक कर वह गाय को साक्षात देखता है। उसे गाय काले बोर्ड पर सफेद लकीरों व शब्दों में पढ़ाई जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी गाय ना तो दूध देती है और ना ही सींग हिला कर अपनी रक्षा करने का मंत्र सिखाती है। जो रामायण की कहानी बच्चे को कई साल में समझ नहीं आती, वह उसे एक रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होने या रामलीला देखने पर रट जाती है।  ठेठ गंाव के बच्चों को पढाया जाता है कि ‘अ’ ‘अनार’ का, ना तो उनके इलाके में अनार होता है और ना ही उनहोंने उसे देखा होता है, और ना ही उनके परिवार की हैसियत अनार को खरीदने की होती है। सारा गांव जिसे गन्ना कहता है।, उसे ईख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बच्चे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग-आकृति- अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेष ही बेहद नीरस और अनमना सा होता है। और मन और सीखने के बीच की खाई साल दर साल बढती जाती हे। इस बीच उसे डाक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, पायलट जैसी डिगरियां रटा दी जाती हैं और दिमाग में ठोक ठोक कर भर दिया जाता है कि यदि पढ़-लिख कर वह यह सब नहीं बना तो उसकी पढ़ाई बेकार है। विडंबना है कि यही मानसिकता, कस्बाई व शहरी बच्चों को घर से भागने, नशा, झूठ बोलने की ओर प्रेरित करती है, जबकि गांव के बच्चे स्कूल छोड़ कर कोई काम करना श्रेयस्कर समझते हैं। असल में पूरी स्कूली व्यवस्था ब्लेक बोर्ड व एक तरफ से सवाल और दूसरी तरफ से जवाब के बीच प्रश्‍न के तौर पर बच्चों को विचलित करती रहती है। स्कूल, शिक्षक व कक्षा उसके लिए यातना घर की तरह होते हैं। परिवार में भी उसे डराया जाता है कि बदमाशी मत करो, वरना स्कूल भेज देंगे। बात मान लो, वरना टीचर से कह देंगे।  कहीं भी बच्चे के मन में स्कूल जाने की उत्कंठा नहीं रह जाती है और वह शिक्षक को एक भयावह स्वप्न की तरह याद करता है।
बच्चे अपने परिवेश को नहीं पहचानते- अपने आसपास मिलने वाले पेड़, पौधे, पक्षी-जानवर, मिट्टी, कंकड़, सबकुछ से अनभिज्ञ यह बाल-वर्ग किस तरह देश-समाज को अपना समझ सकता है? समय आ गया है कि कक्षा व पाठ्यक्रम को पुस्तको व कमरों से बाहर निकाल कर प्रकृति व समाज की मदद से पढ़ा-समझा जाए। थामस अल्वा एडीसन या मेडम क्यूरी के साथ-साथ सफाई करने वाले, पंचर जोड़ने वाले, खेत में काम करने वाले को भी पाठ में शामिल किया जाए। जब स्‍कूल से भाग जाने को आतुर बच्चा यह देखेगा कि उसकी किताब में वह पाठ भी है जो उसके पिताजी करते हैं तो उसे यह सबकुछ अपना सा लगेगा। 
मध्यमवर्गीय परिवारों के प्री नर्सरी हो या गांव का सरकारी स्कूल,  पांच साल की आयु तक हर तरह की पुस्तक, होमवर्क, परीक्षा से मुक्त रखा जाए। कभी सोचा है कि तीन साल के बच्चे को जब बताया जाता है कि अमुक क्लास में अव्वल आया व अमुक फिसड्डी रहा तो उसके दिल व दिमाग में अजीब किस्म की डर, अहंकार या षिक्षा से पलायन की प्रवृति विकसित होती है जो ताजिंदगी उसके साथ-साथ चलती है। तभी शिक्षा व्यवस्था में सफल से ज्यादा असफल लोगों की संख्या बढती जा रही है। हालांकि परीक्षा में उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता ने भी शिक्षा के स्तर को लेकर सवाल खड़े कर दिए है। दिल्ली में ही कई सरकारी स्कूल के शिक्षक बच्चों की परीक्षा काॅपी में उलटे हाथ से खुद लिखते है। और सीधे हाथ से नंबर देते हैं। एक क्लास में 100 से ज्यादा बच्चे, बैठने-पानी-शौचालय की व्यवस्था ना होना और टीचर के पास पठन-पाठन के अलावा बहुत से काम होना, जैसे कई कारण हैं जिससे बच्चा स्कूल में कुछ अपना सा महसूस नहीं नहीं करता है, वह वहां उबासी लेता है और यही सोचता हता है कि उसे यहां भेजा क्यों गया है। जैसे ही अवसर मिलता है वह बस्ता, किताब, कक्षा से दूर भाग जाता है।
मैंने कक्षा आठ से 11वीं तक की पढ़ाई मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के जावरा कस्बे में के सरकारी स्कूल में की, छोटा सा कस्बा, लेकिन एकमात्र स्कूल, लेकिन भव्य। वहां हर बच्चे को हिंदी, अंग्रेजी के अलावा एक भाषा हर साल पढना जरूरी होता था- मैने वहां एक साल मराठी पढ़ी तो एक साल बांग्ला और एक साल गुजराती। भाषाओं का सालाना इम्तेहान भी होता था, लेकिन उसके नंबर  परिणाम में नहीं जुड़ते थे। आज भी जब मैं देश के किसी भी हिस्से के बच्चे से बातचीत करता हूं तो वह इस बात से प्रसन्न हो जाता है कि मैं उसकी बोली-भाषा के कुछ शब्द समझता हूं, बोलता हूं और पढ़ भी लेता हूं। यकीन मानिए इससे उस समाज में अपने प्रति विश्‍वास जगाने की सहज कुंजी मेरे पास होती है। शायद आजादी के बाद स्कूली शिक्षा के लिए बने त्रिभाषा फार्मूले की आत्मा भी यही थी कि एक स्थानीय, एक राज्य की और एक देश की बोली सीखी जाए।  दखिणी राज्यों में यह नीति बड़ी ईमानदारी से निभाई भी गई, लेकिन हिंदभाषी राजयों ने इसमें बेईमानी की और देश की भाषा की जगह संस्कृत को डाल दिया। और तीसरी भाषा में अंग्रेजी को। अब बच्चे के साथ दिक्कतों का दौर यहीं से शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, राजस्थानी , बुंदेली, या भीली, गोंडी, धुरबी। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है - ‘आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके ‘पहले अध्यापक’ मां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाशा को जो उसे ‘सभ्य‘ बनाने का वायदा करती है या फिर  जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं हे।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और माञभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्‍य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं।  बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चैाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता हे तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
स्थानीय बोलियों में प्राथमिक शिक्षा का बसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि बच्चा अपने कुल-परिवार की बोली में जो ज्ञान सीखता है, उसमें उसे अपने मां-बाप की भावनाओं का आस्वाद महसूस होता है। वह भले ही स्कूल जाने वाले या अक्षर ज्ञान वाली पहली पीढ़ी हो, लेकिन उसे पाठ से उसके मां-बाप बिल्कुल अनभिज्ञ नहीं होते। जब बच्चा खुद को अभिव्यक्त करना, भाषा का संप्रेषण सीख ले तो उसे खड़ी बोली या राज्य की बोली में पारंगत किया जाए, फिर साथ में करीबी इलाके की एक भाषा और। अंग्रेेजी को पढ़ाना कक्षा छह से पहले करना ही नहीं चाहिए। इस तरह बच्चे अपनी शिक्षा में कुछ अपनापन महसूस करेंगे। हां, पूरी प्रक्रिया में दिक्कत भी हैं, हो सकता है कि दंडामी गोंडी वाले इलाके में दंडामी गोंडी बोलने वाला शिक्षक तलाशना मुश्‍किल हो, परंतु जब एकबार यह बोली भी रोजगार पाने का जरिया बनती दिखेगी तो लोग जरूर इसमें पढ़ाई करना पसंद करेंगे। इसी तरह स्थानीय आशा कार्यकर्ता, पंचायत सचिव  जैसे पद भी स्थानीय बोली के जानकारों को ही देने की रीति से सरकार के साथ लोगों में संवाद बढ़ेगा व उन बोलियों में पढ़ाई करने वाले भी हिचकिचांएगे नहीं।
आए रोज अखबारों में छपता रहता है कि यूनेस्को बार-बार चेता रही हे कि भारत में बोली-भाषाएं गुम हो रही है और इनमें भी सबसे बड़ा संकट आदिवासी बोलियों पर है। अंग्रेजीदां-शहरी युवा या तो इस से बेपरवाह रहते हैं या यह सवाल करने से भी नहीं चूकते कि हम क्या करेंगे इन ‘गंवार-बोलियों’ को बचा कर। यह जान लेना जरूरी है कि ‘‘गूगल बाबा‘‘ या पुस्तकों में इतना ज्ञान, सूचना, संस्कृति, साहित्‍य उपलब्ध नहीं है जितना कि हमारे पारंपरिक  मूल निवासियों के पास है। उनका ज्ञान निहायत मौखिक है और वह भीली, गोंडी, धुरबी, दोरली, आओ, मिससिंग, खासी, जैसी छोटी-छोटी बोलियों में ही है। उस ज्ञान को जिंदा रखने के लिए उन बोलियों को भी जीवंत रखना जरूरी है और देश की विविधता, लारेक जीवन, ज्ञान, गीत, संगीत, हस्त कला, समाज को आने वाली पीढि़यों तक अपने मूल स्वरूप में पहुंचाने के लिए बोलियों को जिंदा रखना भी जरूरी है। यदि हम चाहते हैं कि स्थानीय समाज स्कूल में हंसते-खेलते आए, उसे वहां अन्यमनस्कता ना लगे तो उसकी अपनी बोली में भाषा का प्रारंभिक पाठ अनिवार्य होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...