चुनावी रंजिश और वादाखिलाफी के चलते सुलगता है असम
राष्ट्रीय सहारा 25 दिसंबर 14http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx |
पंकज चतुर्वेदी
अभी सितंबर 2012 के नरसंहार के दर्द व डर से लोग उबर नहीं पाए थे कि असम का बोडो बाहुल्य इलाका एक बार फिर रक्तपात से दहल गया। हिंसा का मूल भले ही एक आतंकवादी घटना हो , लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नरसंहार के पीछे, जल्दी ही होने वाले बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी चुनाव में बोडो उम्मीदवार की हार का अंदेशा, इलाके में बोडाे जनजाति की संख्या कम होने और कोई 30 साल पहले अशांत राज्य की आग शांत करने के लिए हुए समझौते के क्रियान्वयन में बेईमानी जैसे कारक भी है। केंद्र व राज्य सरकार का वादा-खिलाफी का जो रवैया रहा है, उससे तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें शांत नहीं माना जा सकता। असम की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह असम ही नहीं पूरे देश्ा की समस्या है। यदि इसे अब और छूट दी गई तो आने वाले दो दशकों में असम भी कश्मीर की तरह देश के लिए नासूर बना जाएगा। असम में वनोपज, तेल जैसे बेशकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अशांति पूरे पूर्वोत्तर के लिए बेहद खतरनाक है।
अभी सितंबर 2012 के नरसंहार के दर्द व डर से लोग उबर नहीं पाए थे कि असम का बोडो बाहुल्य इलाका एक बार फिर रक्तपात से दहल गया। हिंसा का मूल भले ही एक आतंकवादी घटना हो , लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नरसंहार के पीछे, जल्दी ही होने वाले बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी चुनाव में बोडो उम्मीदवार की हार का अंदेशा, इलाके में बोडाे जनजाति की संख्या कम होने और कोई 30 साल पहले अशांत राज्य की आग शांत करने के लिए हुए समझौते के क्रियान्वयन में बेईमानी जैसे कारक भी है। केंद्र व राज्य सरकार का वादा-खिलाफी का जो रवैया रहा है, उससे तो यही लगता है कि भड़कती अंगारों पर यदि राख जम जाए तो उन्हें शांत नहीं माना जा सकता। असम की असली समस्या घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है, असल में यह असम ही नहीं पूरे देश्ा की समस्या है। यदि इसे अब और छूट दी गई तो आने वाले दो दशकों में असम भी कश्मीर की तरह देश के लिए नासूर बना जाएगा। असम में वनोपज, तेल जैसे बेशकीमती भंडार भी हैं। यहां किसी भी तरह की अशांति पूरे पूर्वोत्तर के लिए बेहद खतरनाक है।
राज एक्सप्रेस, भोपाल 25.12.14http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx |
बोडो अलगाववादियों को अलग-थलग करने के लिए कुछ साल पहले सरकार ने बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी का गठन किया गया था, जिसमें कोकराझार, बाक्सा, उदालगुडी और चिरांग जिले शामिल हैं असल में यह इलाका बीते कई सालों से बोडो लोगों की आबादी घटने से सुलग रहा है। यहां घुसपैठिये बढ रहे हैं। कोकराझार लोकसभा सीट पर इस बार एक गैर बोडो व पूर्व उल्फा कमांडर हीरा सारानिया जीत गया। कहा जाता है कि इलाके के मुसलमानों और गैर बोडो आदिवासियों ने सारानिया को वोट कर दिया, जबकि बोडो वोट तीन हिस्सों में बंट गया था। याद हो लोकसभा चुनाव के ठीक बाद दो मई को ही कई गांवों में आगजनी, एके-47 से गोलीबारी , लूट-खसोट हो गई थी । उस समय भी आरेाप एनडीबीएफ(संगकिपित गुट) पर ही लगा था जिस पर इस बार के नरसंहार का भी शक है । यहां यह जानना जरूरी है कि असम के आंचलिक क्षेत्रों में मुसलमान सदियों से हैं और अभी तीन दशक पहले तक जोरहाट जैसे जिलों में हर धर्म की बच्चियां मदरसों में जा कर ही अपनी प्राथमिक शिक्षा लेती थीं। यहां के मुसलमान दो तरह के हैं - असमियाभाषी मुसलमान और बांग्लाभाषी मुसलमान। कहा जाता है कि बांग्लाभाषी मुसलमान अवैध घुसपैठिए हैं।
सनद रहे बोडो समुदाय वाले इलाकों में सन 1996 में बोडो व अन्य आदिवासियों के बीच झगड़ा हुआ था, उसके बाद पहली बार गत दिनों कथित बोडो आतंकवादियों के हाथों अन्य आदिवासी मारे गए हैं। असम के मूल निवासियों की बीते कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया। चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 28 साल बीत गए हैं और विदेशियों- बांग्लादेशी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेशी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोषित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है। सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिषत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देशों से लोगों की भीड़ आना शुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी। स्थानीय बोडो लोगों को करीबी अरूणाचल प्रदेष से आकर बस रहे आदिवासियों व नेपालियों की बढ़ती आबादी से भी अल्पसंख्यक होने का खतरा बना हुआ है। इलाके की आबादी का जातिय गणित साफ है कि बीटीडीए यानि बोडो टेरीटोरियल डेवलपमेंट अथरिटी के जल्द ही होने वाले चुनाव में किसी भी बोडो का जीतना मुश्िकिल है। इस संस्था के करोड़ो रूप्ए के बजट पर सभी की निगाह होती है, जिसमें शांति प्रक्रिया से खुद को अलग रखे हुए एनडीबीएफ(संगकिपित गुट) भी है।
असम में विदेषियों के शरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेशी , जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध शरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगुवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। शुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेशनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेषनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। सनद रहे इस साल के अभी तक के नौ महीनों में कांजीरंगा में चालीस एक सींग वाले गैंडे मारे जा चुके हैं और वन महकमा दबी जुबान से मानता है कि इस अपराण के मूल में यही घुसपैठिये हैं।
इन अवांछित बांशिंदों के कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कुछ साल पहले राज्य के तत्कालीन राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राष्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाशना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
उल्फा से हथियार डलवा कर तो सरकार ने भले ही कुछ तात्कालीक शांति ला दी थी, लेकिन जब-जब राज्य के मूल बाशिंदों को बिजली, पानी व अन्य मूलभूत जरूरतों की कमी खटकेगी, उन्हें महसूस होगा कि उनकी सुविधाओं पर डाका डालने वाले देश के अवैध नागरिक हैं, आंदोलन फिर होंगे, हिंसा फिर होगी; आखिर यह एक संस्कृति-सभ्यता के अस्तित्व का मामला जो है। हां यह बात है कि उनको भडकाने वाले दीगर सियासतदां होते हैं, कुछ स्वार्थी तत्व और आईएसआई भी।
सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचारना होगा कि किसी समझौते को लागू करने में 30 साल का समय कम नहीं होता है और यह वादा-खिलाफी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं हैं। एक बात और , दिल्ली या राश्ट्रीय मीडिया के लिए असम की इस तरह की खबरें गैरजरूरी सी प्रतीत होती है- वहां होने वाली हिंसा की खबरें जरूर यदा-कदा सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन हिंसा के क्या कारण हैं उसे जानने के लिए कभी कोई हकीकत को कुरेदने का प्रयास नहीं करता है। अभी दो साल पहले ही बोडो व बाहरी मुसलमानों के बीच संघर्ष में कई सौ लोग मारे गए थे। असल में वह दंगा या गत दिनों का नरसंहार पुलिस डायरी का अपराध मात्र नहीं है, वह संस्कृतियों के टकराव का विद्रूप चैहरा था और उसके कारकों को सरकार नजरअंदाज कर रही है।
यही कारण है कि एकबारगी दवाब बना कर सरकार कुछ संगठनों को हिंसा त्यागने पर मजबूर करती है तो वादाखिलाफी से त्रस्त कोई दूसरे युवा हथियार उठा लेते हैं। लब्बोलुवाब यह है कि यदि वहां स्थाई षांति चाहिए तो घुसपैठियों की समस्या का सटीक व त्वरित हल खोजना जरूरी है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद-201005
संपर्क 9891928376
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