फिर जाड़े की आहट और फिर सांसों में जहर
पंकज चतुर्वेदी
अभी
तो महज सुबह शाम कुछ देर हलकी सी ठण्ड लगती है लेकी दिल्ली और उसके आसपास हवा का
जहर होना शुरू हो गया है . अक्तूबर-23 के तीसरे हफ्ते आते-आते ही हवा की हालत पतली
हो गी और ग्रेप का दूसरा पायदान लागु करने
की नौबत आ गई . हालाँकि यह कड़वा सच है कि
दिल्ली की हवा तो बरसात के दस दिन छोड़ कर सारे साल ही बेहद खतरनाक स्तर पर होती
है, बस उन दिनों जाड़े के मौसम की तरह कालिख कुछ कम दिखती है, इसी लिए इसका सारा
ठीकरा पंजाब-हरियाणा के खेतों में जलने वाले फसल-अवशेष अर्थात पराली पर फोड़ दिया
जाता है . हकीकत यह है कि दिल्ली का दम
घोटने में सबसे बड़ी भूमिका ट्राफिक जाम और पूरे शहर में चल रहे निर्माण
कार्यों से उड़ रही धूल की अधिक है . एक साल
सम-विषम का तमाशा हुआ, पिछले
साल प्रदूषण सोख लेने वाले
टावर का हल्ला रहा . पराली को खेत में
खत्म करने वाले रसायन के विज्ञापन भी खूब
छपे . लेकिन जमीन पर कुछ बदला नहीं .
अभी
आश्विन मास चल रहा है , धूप में दिन के समय तीखापन होता है, लेकिन स्मोग के प्रकोप से समूचा हरियाणा – दिल्ली
और पश्चिमी उत्तर प्रदेश बेहाल है . दिल्ली का एक्म्स हो या गाज़ियाबाद का सरकारी
अस्पताल या फिर अम्बाला के नर्सिंग होम , हर जग सांस के मरीजों की संख्या
रिकार्डतोड़ हो गई है . जान लें शरद पूर्णिमा का उजला चाँद शायद ही इस बार आकाश में
दिख पाए क्योंकि लाख दावों के बाद भी हरियाणा-पंजाब में धान के खेतों को अगली फसल
के लिए जल्दी से तैयार करने के लिए अवशेष
को जला देना शुरू हो चूका है .
दिल्ली में रविवार (22 अक्टूबर) को एयर क्वालिटी इंडेक्स 266 बना हुआ है जो कि खराब श्रेणी में आता है.
दिल्ली के कुछ इलाकों में हवा बहुत खराब श्रेणी में जा चुकी है, आनंद विहार में एक्यूआई 273, दिल्ली यूनिवर्सिटी के
आसपास एक्यूआई 317 और नोएडा में 290 बना
हुआ है. गाज़ियाबाद में यह आंकडा 300 के पार है . हरियाणा के किसी भी जिले में सांस
लेने लायक शुद्ध हवा बची नहीं हैं .
सबसे खतरनाक है हवा में सूक्ष्म कणों (पीएम2.5) की मात्र बढना पी एम् 2.5 युक्त हवा में सांस लेने
से हृदय रोग, अस्थमा और जन्म के समय कम वजन जैसी स्वास्थ्य
समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है।
इसके अलावा यदि आप पहले से ही कुछ
बीमारियों जैस डायबिटीज, श्वसन
रोग या हृदय की समस्याओं के शिकार रहे हैं तो वायु प्रदूषण के कारण हालात के और भी
गंभीर रूप लेने का जोखिम हो सकता है।
विदित
हो केंद्र सरकार हर साल पराली जलाने से रोकने के लिएय किसानों को मशीने खरीदने और
नाने कार्य के लिए राज्यों को पैसा देती रही है . वर्ष 2018 से 2020-21 के दौरान पंजाब,
हरियाणा, उप्र व दिल्ली को पराली समस्या से
निबटने के लिए कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए थे जिसका
सर्वाािक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड दिया गया। इस साल
भी इस मद में 600
करोड़ का प्रावधान है और इसमें से 105 करोड़ पंजाब को और 90 करोड़ हरियाणा को जारी
किये जा चुके हैं . विडंबना है कि इन्हं
राज्यों से सबसे अधिक पराली का धुआं उठ
रहा है . जाहिर है कि आर्थिक मदद , रासायनिक घोल , मशीनों से परली के निबटान जैसे
प्रयोग जितने सरल और लुभावने लग रहे हैं, किसान को वे आकर्षित नहीं कर रहे या उनके
लिए लाभकारी नहीं हैं . सरकार इसे कानून से दबाने की कोशिश कर रही है जबकि इसका
निदान किसान की व्यहवारिक दिक्कतों को समझ आकर उसका माकूल हल निकालने में है .
इस बार शुरू के दिनों में बारिश कमजोर रही और
फिर अगस्त में बाढ़ जैसे हालात बन गए . इसके चलते कई जगह धान की रोपाई देर से
हुई और इसी के चलते पंजाब और हरियाणा के
कुछ हिस्सों में धान की कटाई में एक से दो सप्ताह की देरी हो रही है. यह इशारा कर रहा है कि अगली फसल के लिए अपने
खेत को तैयार करने के लिए किसान समय के विपरीत तेजी से भाग रहा है, वह मशीन से
अवशेष के निबटान के तरीके में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और वह अवशेष को आग
लगाने को ही सबसे सरल तरीका मान रहा है .
किसान
का पक्ष है कि पराली को मशीन से निबटाने
पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय
होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में
कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय
रोकने के लिए मानसून आने से पहले धान ना
बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार
होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने
के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह
फसल अवषेश का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान
की फसल की रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का
पानी सहेजने के कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15
मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात
मिलेगा नहीं।
इंडियन
इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमोस्फियर
रिसर्च लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि
यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया
जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो
हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह
जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग
बनेगा ही नहीं।
किसानों
का एक बड़ा वर्ग पराली निबटान की मशीनों पर सरकार की सबसिडी योजना को धोखा मानते
हैं . उनका कहना है कि पराली को नष्ट करने
की मशीन बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध
है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मशीन डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी
उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा
दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी
यानी कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं. आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है,
जो किसानों को उचित दामों पर मशीनें किराए पर देती हैं।
किसान
यहां से मशीन इस लिए नहीं लेता क्योंकि
उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रूपए तक बढ़ जाता है।
जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो
फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75
हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना
पड़ता है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता
है। उधर कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा
देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।
दुर्भाग्य
है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो
लुभावनी हैं, लेकिन खेत में व्यावहारिक नहीं।
जरूरत है कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके
निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशें , जिसमें दस दिन कम समय में तैयार होने वाली धान
की नस्ल को प्रोत्साहित करना, धान के रकवे को कम करना , केवल डार्क ज़ोन से बाहर के इलाकों में धान बुवाई की
अनुमति आदि शामिल है .मशीने कभी भी पर्यावरण का विकल्प नहीं होतीं, इसके लिए स्वनियंत्रण ही एकमात्र निदान होता है।
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