पराली तो केवल बदनाम है
जाम दम घोटता है दिल्ली का
पंकज चतुर्वेदी
अभी मौसम की रंगत थोड़ी ही बदली थी कि
दिल्ली में हवा मौत बांटने लगी। बयानबाजी, आरोप-प्रत्यारोप, सरकारी विज्ञापन, बंद हो गए स्माग टावर और सड़क पर पानी छिडकते वाहन; सभी
कुछ इस तरह हैं कि नल खुला छोड़ दो और फर्श
पर पोंछा लगाओ। हालांकि दिल्ली और उसके आसपास सालभर ही हवा जहरीली रहती है कि लेकिन इस मौसम में स्मॉग
होता है तो इसका ठीकरा किसानों पर फोड़ना
सरल होता है। हकीकत यह है कि दिल्ली अपने
ही पाप का परिणाम भोगती है। एक अंतर्राष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण
स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में
हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक
मौत के मुंह में जाएंगे। भले ही पराली ना जले या कोई आतिशबाजी न चलाए, तपती गर्मी के भी दिन हों फिर भी
राजधानी की आवोहवा का विश दिन-दुगना, रात चौगुना बढ़ता ही है।
यह कड़वा सच है कि दिल्ली एनसीआर की कोई तीन करोड़ आबादी में जिसके घर में कोई बीमार
होता है वह तो संजीदा हो जाता है लेकिन बाकी
आबादी बेखबर रहती है।
असल में हम दिल्ली एनसीआर को समग्रता
में लेते ही नहीं है। बानगी है कि दिल्ली की चर्चा तो पहले पन्ने पर है लेकिन
दिल्ली से चिपके गाजियाबाद के बीते दो सालों ं से लगातार देश मे सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में पहले या दूसरे नंबर पर बने
रहने की चर्चा होती नहीं। अब हवा तो भौगोलिक सीमा मानती नहीं, यदि गाजियाबाद की हवा जहरीली होगी तो उससे षून्य
किलोमीटर की दूरी वाले दिलशाद गार्डन, विवेक विहार या शाहदरा
निरापद तो रह नहीं सकते ! अभी वह विज्ञान समझ से परे ही है कि वायु को जहरीला करने
वाला धुआं क्यों कर सीमा पार कर दिल्ली तक नहीं आता हे। हकीकत तो यह है कि दिल्ली
एनसीआर में पूरे साल , महज बरसात के पंद्रह से पच्चीस दिन
छोड़ कर, वायु प्रदूषण के यही हालात रहते हैं। हकीकत तो यह है
कि दिल्ली व उससे सटे इलाकों के प्रषासन वायु प्रदूशण के असली कारण पर बात ही नहीं
करना चाहते। कभी पराली तो कभी आतिशबाजी की बात करते हैं। अब तो दिल्ली के भीतर
ट्रक आने रोकने के लिए ईर्स्टन पेरफिरल रोड़ भी चालू हो गया, इसके
बावजूद एमसीडी के टोल बूथ गवाही देते हैं कि दिल्ली में घुसने वाले ट्रकों की
संख्या कम नहीं हुई है। ट्रकों को क्या दोश दें, दिल्ली-एनसीआर के बाषिंदों का वाहनों के प्रति मोह हर दिन बढ़
रही है और जीडीपी और विकास के आंकड़ों में उलझाी सरकार यह भी नहीं देख रही कि क्या
सड़कें या फिर गाड़ी खरीदने वाले के घर में उसे रखने की जगह भी है कि नहीं ? बस कर्ज दे कर बैंक समृद्ध हैं और वाहन बेच कर कंपनियां, उसमें फुंक रहे ईंधन के चलते देष के विदेषी मुद्रा कें भंडार व लोगों की
जिंदगी में घुल रही कालीख की परवाह किसी को नहीं।
दरअसल इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक
पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस
खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल
करीब 10 लाख लोगों की जिंदगी बचाई जा सकेंगी ।
यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में
वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही
कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को
और गंभीर बना रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समस्या बेहद गंभीर है ।
सीआरआरआई की एक रपट के मुताबिक कनाट प्लेस के कस्तूरबागांधी मार्ग पर प्रत्येक दिन
81042 मोटर वाहन गुजरते हैं व रेंगते हुए चलने के कारण 2226 किग्रा इंधन जाया करते हैं।। इससे निकला 6442
किग्रा कार्बन वातावरण को काला करता है। और यह हाल दिल्ली के चप्पे-चप्पे का है।
यानि यहां सडकों पर हर रोज कई चालीस हजार लीटर इंधन महज जाम में फंस कर बर्बाद
होता है। रिंग रोड़ पर भीकाजी कामा प्लेस सेे मेडिकल तक हो या फिर बारापुला से नीचे
उतर की सराय कालेखां का रास्ता या फिर
रोहिणी की सड़कें , पूरे दिन रेंगते वाहनों के चलते जहरीले
रहते हैं। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50 पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए।
लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुणा
ज्यादा ना हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर
व दिल के रोग।
यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान
प्रयोगशाला के आंकड़ों पर भरोसा करंे तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के
घुलने में सबसे बड़ा योगदान 23 फीसदी धूल और मिट्टी
के कणों का है। 17
प्रतिशत वाहनों का उत्सर्जन है। जनरेटर जैसे उपकरणों के चलते 16 प्रतिशत सात प्रतिशत औद्योगिक उत्सर्जन और 12 प्रतिशत पराली या अन्य
जैव पदार्थों के जलाने से हवा जहरीली हो रही है। सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी
के कण नजर आ रहे हैं और इनका सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली एनसीआर में दो सौ से अधिक
स्थानों प चल रहे बड़े निर्माण कार्यांे, जैसे कि मेट्रो,
फ्लाई ओवर और इसमें भी सबसे ज्यादा एनएच-24 के
चौड़ीकरण की उपज है। एक तो ये निर्माण बगैर वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध करवाए व्यापक
स्तर पर चल रहे हैं, दूसरा ये अपने निर्धारित समय-सीमा से
कहीं बहुत बहुत दूर हैं। ये निर्माण कार्य धूल-मिट्टी तो उड़ा ही रहे हैं, इनके कारण हो रहे लंबे-लंबे जाम भी हवा को भयंकर जहरीला कर रहे हैं।
राजधानी की विडंबना है कि तपती धूप हो तो भी प्रदूषण बढ़ता है, बरसात हो तो जाम होता है व उससे भी हवा जहरीली होती है। ठंड हो तो भी धुंध
के साथ धुंआ के साथ मिल कर हवा जहरीली । याद रहे कि वाहन जब 40 किलोमीटर से कम की गति पर रैंगता है तो उससे उगलने वाला प्रदूषण कई गुना
ज्यादा होता है।
दिल्ली में ऐसे ही लगभग 300 स्थान हैं जहां जाम एक स्थाई समस्या है। जान कर
आष्चर्य होगा कि इनमें से कई स्थान वे मेट्रो स्टेषन है। जिन्हें जाम खतम करने के
लिए बनाया गया था। मेट्रो स्टेषन यानी बैटरी व साईकिल रिक्षा, आटो के बेतरतीब पार्कि्रग, गलत दिषा में चालन,
ओवर लोडिंग और साथ में अपने लोगों को लेने व छोड़ने वालों का आधी सड़क
पर कब्जा। दिल्ली में जितने फ्लाई ओवर या
अंडर पास बनते हैं, मेट्रो का जितना विस्तार होता है,
जाम का झाम उतना ही बढ़ता जाता है।
जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने
से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों
में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। सनद रहे कि इतनी बड़ी
आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन
दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं आज भी
दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूाल उड़ रही है
वह यहां की सेहत ही खबरा कर रही है, भले ही इसे भविश्य के लिए
कहा जा रहा हो। लेकिन उस अंजान भविश्य के लिए वर्तमान बड़ी भारी कीमत चुका रहा है।
निर्माण कार्य के लिए ईंट हो या बजरी, सभी कुछ भारी प्रदूशण
उपजा कर उपजाया जा रहा है।
दिल्लीवासी इतना प्रदूषण ख्ुाद फैला
रहे हैं और उसका दोष किसानों पर मढ़ कर महज खुद को ही धोखा दे रहे हैं। बेहतर कूड़ा
प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक
पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की
गैरजरूरी गतिविधियों व प्रतिष्ठानों को कम से कम दो सौ किलोमीटर दूर शिफ्ट करने , कार्यालयों व स्कूलों के समय और उनके बंदी के दिनों में बदलाव जैसे
दूरगामी कदम ही दिल्ली को मरता शहर बनाने से बचा सकते हैं।
राजधानी के वायु प्रदूशण से जूझने के स्थाई कदम
1.यदि दिल्ली की संास थमने से
बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे
आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे
जो दिल्ली षहर के लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब दिल्ली में ही
जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड
वाहन, मेट्रो स्टेषनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले
दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने स्कूटरों को जुगाड के
जरिये रिक्षे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने
में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल या
पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे
निकलने वाला धुआं जानलेवाा ही होगा।
2. यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम
बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। सनद रहे कि इतनी
बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन
दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं आज भी
दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूाल उड़ रही है
वह यहां की सेहत ही खबरा कर रही है, भले ही इसे भविश्य के
लिए कहा जा रहा हो।
3. हवा को जहर बनाने वाले पैटकॉन
पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। पेट्रो पदार्थों
को रिफायनरी में षोधित करते समय सबसे अंतिम उत्पाद होता है - पैटकॉन। इसके दहन से
कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत
कम होने के चलते दिल्ली व करीबी इलाकें के अधिकांष बड़े कारखाने भट्टियों में इसे
ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है
उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।
4.यदि वास्तव में दिल्ली की हवा को
साफ रखना है तो तो इसकी कार्य योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौडाई
नहीं , बल्कि महानगर की जनसंख्या कम करने के कड़े कदम होना
चाहिए। दिल्ली में सरकारी स्तर के कई सौ ऐसे आफिस है जिनका संसद या मंत्रालय के
करीब होना कोई जरूरी नहीं। इन्हें एक साल के भीतर दिल्ली से दूर ले जाने के कड़वे
फैसले के लिए कोई भी तंत्र तैयार नहीं दिखता।
5. सरकारी कार्यालयों के समय और
बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन
किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेष देने, एक ही कालेानी में
विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता
है।
बहुत अच्छा लेख है
जवाब देंहटाएंस्कूलों का समय अलग करने वाली बात तो बिना किसी परेशानी के हो सकती है। बाकी सभी सुझाव भी बिल्कुल सही हैं