दर्द के ‘ईद’ गाह में राहत का पर्व
पंकज चतुर्वेदी
‘‘ क्या तुम लोगों का नाम मोबाईल में रजिस्टर्ड हो गया ? नहीं हुआ तो जान लेना आज शाम से यहां नहीं रह पाओगे।’’ लोगों को दर्द व जुल्म के मंजर को सुनते हुए भीगती आंखों और शून्य हो रहे दिमाग ने तारतम्य को भंग कर दिया। सिर उठा कर देखा - दुबली, सांवली सी वह लड़की, देख कर अंदाज लगाया जा सकता है कि वह किसी ‘व्यावसायिक’ एनजीओ की तरफ से नौकरी बजा रही है। ‘ सुबह तो लोग नहाने आपे जले घर से कुछ तलाशने चले जाते हैं, थोड़ी देर में आओ तो ठीक रहेगा।’ सिर में 35 टांके खा चुके एक इलेक्ट्रिशयन ने निवेदन किया। ‘‘सुबह साढ़े पांच बजे की घर से निकली हूं। इतनी दूर है एक तो यह कैंप । तो क्या देर रात घर पहुंचूं? मुझे नहीं पता नाम नहीं मिला मेबाईल में तो रात में यहां ठहरने को नहीं मिलेगा। ’’ निरीह आंखें याद कर रही हैं कि नाम लिखा है कि नहीं और रात में निकाल दिया तो कहां जाएंगे। तब तक एनजीओ मेडम आगे बढ़ जाती हैं।
दिल्ली की पहचान बन गए सिग्नेचर बिज्र से नेशनल हाई नो पर कोई तीन किलोमीटर चलने पर यमुना विहार के पहले एक संकरी सी सड़क भीतर जाती है- ब्रिज विहार रोड़। इस पर ही आगे चल कर भागीरथी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट वगैरह हैं। लेकिन यहां वह शिव विहार, बाबू नगर आदि हैं जहां अभी दस दिन पहले मानवीयता ने दम तोड़ दिया था। लाशें, घायल लोग, एक कपड़े में जान बचा कर भागे लोग- कोई रिक्शा चलाता है तो कोई मजदूरी या किसी छोटे कारखाने मे नौकरी। अब सभी बेघर और लावारिस हैं। दंगा ग्रस्त रहे इलाके के पहले ही मुस्तफाबाद है। बेहद ंसंकरी गलियों के बीच घनी मुस्लिम बस्ती वाला मुहल्ला। शायद 20 या उससे अधिक गलियां हैं। जिनमें मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के शानादार मकान, दुकान और छोटे-मोटे कारखाने हैं।
नाला पार करते ही पहली संकरी सी गली में है ईदगाह।
अरबी में ईद का अर्थ होेता है- खुशी या पर्व। लेकिन दिल्ली के मुस्तफाबाद का ईदगाह इस समय दर्द का गाह बना हुआ है । अकेले गम ही नहीं है यहां- समाज सेवा वालों का चरागाह भी है। कोई अंदाज नहीं लगा सकता कि इतनी पतली गली में भीतर जा कर इतना बड़ा मैदान होगा। यह ईदगाह मैदान मजबूत बड़े से दरवाजे से घिरा हुआ है और उसके भीतर हैं कई सौ वे लोग जो राजधानी के रूतबे, पच्चासी हजार संख्या और दुनिया के बेहतरीन कही जाने वाली दिल्ली पुलिस की मौजूदगी के बावजूद अपने ही घरों में महफूज ना रह सके। दरवाजे पर सीमा सुरक्षा बल के जवान तैनात हैं। कुछ वालेंटियर हैं, वक्फ बोर्ड से जुड़े लोग भी। बाहर तमाशबीनों , मददगारों की भीड़ बनी ही रहती है।
भीतर जाने के समय लिखे हुए हैं, रिश्तेदार कब मिल सकते हैं और एनजीओ कब आ सकते हैं। मुख्य सड़क से गली में घुसते ही एक दुकान है, जहो एनजीओ व अन्य समाज सेवा करने के इच्छुक लोगों के पास बनते हे।ं बगैर पास के भीतर नहीं जा सकते। इस दुकान के सामने लगातार आने वाली बड़ी-बड़ी गाडिरूों व टैक्सियो ंसे अंदाज हो जता है कि कई लोग यहां सेवा करना चाहते हैं।
ईदगाह के भीतर एक छोटे से गेट से घुसते ही बायें हाथ पर एक पंजीकरण जैसा स्टॉल है, उसके बाद मेडिकल का। यहां सरकारी मेडिकल सुविधा दिखती नही- कोई अधिवक्ता संघ और उसके बाद एक ईसाई मिशनीरी का मेडिकल कैंप है। उसके बाद दिल्ली पुलिस है- लेागो की जान-माल की शिकायतें केवल प्राप्त करने के लिए- इन पर मुकदमा हेागा कि नहीं, यह निर्धारण उस शिकायत के थाने जाने के बाद ही तय होता है। पुलिस के ठीक पास में कोई 10 गुणा-दस फुट का एक घेरा है जिसे बच्चों के मनोरजंन कंेद्र का नाम दिया गया है। वहां कुछ खिलौन आदि है। लेकिन बच्चे नहीं। उसके ठीक बाहर एक एनजीओ नुमा लड़की किताबों के ढेर के साथ खड़ी है। अधिकांश किताबें हिंदी बारह खड़ी की है और किसी ‘‘कमल’8 के निशान वाले प्रकाशक की। बच्चे वहां से किताब ले रहे हैं।
यहीं से शुरू हो जाता है मर्दांे के लिए फोल्डिंग पलंग का दौर। निराश, चोटों के साथ, अपने आने वाले दिनों की आशंकओं में डुबे लोग। अंबिका विहार का वह इंसान मजदूरी करता था। 25 तारीख की रात में उनके यहां नफरत की चिंगारी पहुंची। वह बताता है- ‘‘भीड़ में मेरे आस पस के ही लोग थे जो बता रहे थे कि मुसलमान के मकान कौन से हैं। लेकिन मेरे पड़ोसी पंडितजी ने ही हमें छत से अपने घर में उतारा और चौबीस घंटे रखा। जब मिलेटरी(शायद बीएसएफ के लिए कह रहे थे) आई तब उन्होंने हमें उनके हाथ सौंपा।’’ किसी दुकान पर इलेक्ट्रिीशयन का काम करने वाले ने बताया कि वह तो टेंपो से घर के लिए उतरा था, एक भीड़ मिली, नाम पूछा और पिटाई कर दी। फल बेचने वाले साठ साल के बुर्जुग की तो ठेली भी गई और पिटाई भी हुई। हर चारपाई की अलग कहानियां है लेकिन मसला एक ही है - नफरत, प्रशासन की असफलता, लाचारी।
कैंप के सामने की तरफ आरतों के लिए जगह है। जहां हर एक को जाने की अनुमति नहीं। बोतल पैक पान के डिस्पेंसर लगे हैं और बह भी रहे हैं। कुछ कार्टन-खाके हैं जिनमें दंगा पीड़ितों के प्रति दया जताने के लिए लोगों ने अपने घर मे बेकार पडे़ कपड़े भर कर भेजे हैं। खासकर औरतें उनमें कुछ अपने नाप का, हैयित का तलाशती हैं लेकिन बहुत ही कम को कुछ हाथ लगता है। राहत कैप के हर ब्लाक के बाहर कूुड़े का ढेर है और वहां घूम रहे वालेंटियर अपना मुंह मास्ॅक के ढंके हैं। तभी एक सज्जन आ कर टोकते हैं - यहां फोटो या वीडिया ना बनाएं, कल किसी ने वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर गलत तरीके से डाल दिया। वहीं सामने बरखा दत्त लोगों से बातचीत रिकार्ड करती दिखती हैं।
जेल की तरह बंद इस राहत शिविर में शैाचालय की व्यवस्था नहीं है। भीतर व बाहर कुछ प्लास्टिक के शौचालय खरीद कर टिकाई गए हैं लेकिन उनमें ताले ही पड़े हैं। संकरी गली में सचल शौचालय लगाए गए हैं, लोगों की संख्या को देखते हुए उनकी संख्या कम है और नियमित सफाई ना होने के कारण उनके इस्तेमाल करने के बनिस्पत परिचित लोगो के घर गुसल को चले जाते हैं। राहत कार्य के नाम पर खरीदी में कोई कोताही नहीं है, विभिन्न संस्थाओं द्वारा जमा सामग्री पर अपनी मुहर लगा कर वितरित करने का ख्ेाल भी यहां है। हकीकत में ईदगार राहत शिविर दिल्ली सरकार का है औ सबसे अधिक लोग इसमें है सा मशहूर भी हो गया। तभी हर एनजीओ यहां आ कर अपना बैनर चमका रहा है। हकीकत तो यह है कि मौजपुरए गोकलपुरीए कर्दमपुरीए चांदबागए कबीरनगर व विजय पार्क से ले कर घोंडा, खजूरी तक दंगे के निशान मौजूद हैं। जिनका सबकुछ लुट गया, उनकी बड़ी संख्या पलायन कर गई है, कई पीड़ित लोगों के घरों में आसरा लिए हैं। ईदगाह से आगे चल कर ऐसे लोगों की खबर लेने की परवाह बुहत कम लोगों को है। दंगा पीड़तों की दिक्कतें अनंत हैं- अपने घर को संभालना, अपने पुराने घर लाटने की हिम्मत और भरोसा जुटाना, पुलिए द्वारा दर्ज कर लिए गए दो हजार से ज्यादा मुकदमों में अपना नाम आने से बचानां, अपने रोजगार की व्यवस्था देखना।
मुस्तफाबाद में दंगे नहीं हुए क्योंकि यहां एक तो लोग संपन्न हैं और दूसरे अधिकांश आबादी एक ही समुदाय की है। इसके बावजूद असुरक्षा का भाव ऐसा है कि हर गली के शुरू होने वालीे जगह पर लोहे के दरवाजे लगाए जा रहे हैं। इन मेहफूज दरवाजों के भीतर फिलहाल जो सैंकड़ेा लोग आसरा पाए हैं, उनके फिर से सामान्य जीवन शुरू किए बगैर ऐसी सुरक्षा व्यवस्था बेमानी है और उसके लिए भरोसे की बहाली के मजबूत दरवाजों की ज्यादा जरूरत है।
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