नदियों का काल बनता रेत खनन
उत्तर और मध्य भारत की अधिकांश नदियों का उथला होते जाना और थोड़ी सी बरसात में उफन जाना, तटों के कटाव के कारण बाढ़ आना और नदियों में जीव-जंतु कम होने के कारण पानी में ऑक्सीजन की मात्र कम होने से पानी में बदबू आना, ऐसे ही कई कारण हैं जो मनमाने रेत उत्खनन से जल निधियों के अस्तित्व पर संकट की तरह मंडरा रहे हैं। आज हालात यह है कि कई नदियों में ना तो जल प्रवाह बच रहा है और ना ही रेत।
सभी जानते हैं कि देश की बड़ी नदियों को विशालता देने का कार्य उनकी सहायक छोटी नदियां ही करती हैं। बीते एक-डेढ़ दशक में देश में कोई तीन हजार छोटी नदियां लुप्त हो गईं। इसका असल कारण ऐसी मौसमी छोटी नदियों से बेतहाशा रेत को निकालना था, जिसके चलते उनका अपने उद्गम व बड़ी नदियों से मिलन का रास्ता बंद हो गया। देखते ही देखते वहां से पानी रूठ गया। खासकर नर्मदा नदी को सबसे ज्यादा नुकसान उनकी सहायक नदियों के रेत के कारण समाप्त होने से हुआ है। इसका ही असर है कि बड़ी नदियों में जल प्रवाह की मात्र साल दर साल कम हो रही है।
नदियों का रेत निर्माण कार्य के अनुकूल : देश की जीडीपी को गति देने के लिए सीमेंट और लोहे की खपत बढ़ाना नीतिगत निर्णय है। अधिक से अधिक लोगों को पक्के मकान देना और नए स्कूल-अस्पताल का निर्माण होना भी आज की जरूरत है, लेकिन इसके लिए रेत उगाहना अपने आप में ऐसी पर्यावरणीय त्रसदी का जनक है जिसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं है।
देश में वैसे तो रेत की कोई कमी नहीं है, विशाल समुद्री तट है और कई हजार वर्ग किलोमीटर में फैला रेगिस्तान भी, लेकिन समुद्री रेत लवणीय होती है, जबकि रेगिस्तान की बालू बेहद गोल व चिकनी, लिहाजा इनका इस्तेमाल निर्माण में नहीं होता। प्रवाहित नदियों की भीतरी सतह में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को नियंत्रित करने का अवरोधक, जल को शुद्ध रखने का छन्ना और नदी में कीचड़ रोकने की दीवार भी होती है। तटों तक रेत का विस्तार नदी को सांस लेने का अंग होता है। नदी केवल एक बहता जल का माध्यम नहीं होती, बल्कि उसका अपना एक पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके तहत उसमें पलने वाले जीव, उसके तट के सूक्ष्म बैक्टीरिया सहित कई तत्व शामिल होते हैं और उनके बीच सामंजस्य का कार्य रेत का होता है। नदियों की कोख को अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से खोदने के चलते यह पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो रहा है। तभी अब नदियों में रेत भी नहीं आ पा रही है, पानी तो है ही नहीं। रेत के लालची नदी के साथ-साथ उससे सटे इलाकों को भी खोदने से बाज नहीं आते।
..तो खत्म हो जाएगी रेत : छत्तीसगढ़ के लिए की गई चेतावनी अब सरकारी दस्तावेजों में भी दर्ज है। कुछ साल पहले रायपुर के आसपास रेत की 60 खदानें थी, प्रशासन ने उनकी संख्या घटा कर दस कर दी। ऐसे में यहां उत्पादन कम है और खपत अधिक है। रायपुर में विकास के कारण आए दिन रेत की मांग बढ़ती जा रही है। ऐसे में विशेषज्ञों की चेतावनी है कि समय रहते यदि चेता नहीं गया तो रायपुर से लगी शिवनाथ, खारुन और महानदी में आगामी कुछ वर्षो में रेत खत्म हो जाएगी।
कानून तो कहता है कि ना तो नदी को तीन मीटर से ज्यादा गहरा खोदो और ना ही उसके जल के प्रवाह को अवरुद्ध करो, लेकिन लालच के लिए कोई भी इनकी परवाह नहीं करता। रेत नदी के पानी को साफ रखने के साथ ही अपने करीबी इलाकों के भूजल को भी सहेजता है। कई बार एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट निर्देश दे चुके हैं। पिछले साल तो आंध्र प्रदेश सरकार को रेत का अवैध उत्खनन ना रोक पाने के कारण 100 करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगा दिया गया था। इसके बावजूद मध्य प्रदेश की सरकार ने एनजीटी के निर्देशों की अवहेलना करते हुए रेत खनन की नीति बना दी। एनजीटी ने कहा था कि रेत ढोने वाले वाहनों पर जीपीएस अवश्य लगा हो, ताकि उन्हें ट्रैक किया जा सके, लेकिन आज भी पूरे प्रदेश में खेती कार्य के लिए स्वीकृत ट्रैक्टरों से रेत ढोई जा रही है। स्वीकृत गहराई से दोगुनी-तिगुनी गहराई तक पहुंच कर रेत खनन किया जाता है। जिन चिन्हित क्षेत्रों के लिए रेत खनन पट्टा होता है उनसे बाहर जाकर भी खनन होता है। बीच नदी में आधुनिक मशीनों के जरिये खनन आज आम बात है। यह भी दुखद है कि पूरे देश में जब कभी नदी से उत्खनन पर कड़ाई होती है तो सरकारें पत्थरों को पीस कर रेत बनाने की मंजूरी दे देती हैं, इससे पहाड़ तो नष्ट होते ही हैं, आसपास की हवा में भी धूल कण कोहराम मचाते हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में जिला स्तर पर व्यापक अध्ययन किया जाए कि प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी में सालाना रेत आगम की क्षमता कितनी है और इसमें से कितनी को बगैर किसी नुकसान के उत्खनित किया जा सकता है। फिर उसी अनुसार निर्माण कार्य की नीति बनाई जाए। उसी के अनुरूप राज्य सरकारें उस जिले में रेत के ठेके दें। इंजीनियरों को रेत के विकल्प खोजने पर भी काम करना चाहिए। आज यह भी जरूरी है कि मशीनों से रेत निकालने, नदी के किस हिस्से में रेत खनन पर पूरी तरह पांबदी हो, परिवहन में किस तरह के मार्ग का इस्तेमाल हो, ऐसे मुद्दों पर व्यापक अध्ययन होना चाहिए। साथ ही नदी तट के बाशिंदों को रेत-उत्खनन के कुप्रभावों के प्रति संवेदनशील बनाने का प्रयास भी होना चाहिए।
प्रकृति ने हमें नदी दी थी जल के लिए, लेकिन समाज ने उसे रेत उगाहने का जरिया बना लिया और उसके लिए नदी का रास्ता बदलने से भी परहेज नहीं किया
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