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शुक्रवार, 13 मार्च 2020

decreasing number of bird is negative sign for nature

पृथ्वी के अस्तित्व पर चेतावनी है पंक्षियों का कम होना

पंकज चतुर्वेदी 

‘भारत में पक्षियों की स्थिति-2020’ रिपोर्ट के नतीजे नभचरों के लिए ही नहीं धरती पर रहने वाले इंसानों के लिए भी खतरे की घंटी हैं। बीते 25 सालों के दौरान हमारी पक्षी विविधता पर बड़ा हमला हुआ है, कई प्रजाति लुप्त हो गई तो बहुत की संख्या नगण्य पर आ गईं। पक्षियों पर मंडरा रहा यह खतरा शिकार से कही ज्यादा विकास की नई अवधारणा के कारण उपजा है। अधिक फसल के लालच में खेतों में डाले गए कीटनाशक, विकास के नाम पर उजाड़े गए उनके पारंपरिक पर्यावास, नैसर्गिक परिवेष  की कमी से उनकी प्रजनन क्षमता पर असर; ऐसे ही कई कारण है जिनकेचलते हमारे गली-आंगन में पंक्षियों की चहचहाहट कम होती जा रही है।
कोई 15500 पक्षी वैज्ञानिकों व प्रकृति प्रेमियों द्वारा लगभग एक करोड़ आकलन के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में भारत में पाए जाने वाली पक्षियों की 1333 प्रजातयों में से 867 का आकलन कर ‘ईबर्ड’ डिजिटल प्लेटफार्म पर दर्ज किया गया है। इनमें 101 प्रजति के पक्षियों को संरक्षण की बेहद आवष्यकता, 319 को सामान्य चिंता की श्रेणी में पाया गया। 442 ऐसी भी प्रजाति हैं जिनके बारे में फिलहाल चिंता की जरूरत नहीं।  रिपोर्ट कहती है कि हैं 52 फीसदी पक्षियों की संख्या लंबे समय से घट रही है, जिससे उनके विलुप्त होने की आशंका पैदा हो गई है। 52प्रतिशत में ऐसे पक्षियों की संख्या 22 फीसदी है जिनकी संख्या काफी तेजी से कम हो रही है। शेष 48 प्रतिशत में पांच प्रतिशत पक्षियों की संख्या बढ़ी है, जबकि 43प्रतिशत की संख्या लगभग स्थिर है।

जंगल में रहने वाले पक्षी जैसे कि  कठफोडवा, सुग्गा या तोता, मैना, सातभाई की कई प्रजातियां, चिपका आदि की संख्या घटने के पीछे तेजी से घने जंगलों में कमी आने से जोड़ा जा रहा है। खेतों में पाए जाने वाले बटेर, लवा  का कम होना जाहिर हैकि फसल के जहरीले होने के कारण है। समुद्र तट पर पाए जाने वाले प्लोवर या चिखली,कर्ल, पानी में मिलने वाले गंगा चील बतख की संख्या बहुत गति से कम हो रही है। इसका मुख्य कारण समुद्र व तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण व अत्याधिक औद्योगिक व परिवहन गतिविधि का होना है। घने जंगलों के  मषहूर पूर्वोत्तर राज्यों में पक्षियों पर संकट बहुत चौंकाने वाला है। यहां 66 पक्षी-बिरादरी लगभग समाप्त होने के कगार पर हैं। इनमें 23 अरूणाचल प्रदेष में, 22 असम, सात मणिपुर, तीन मेघालय, चार मिजोरम , पांच नगालैंड और दो बिरादरी के पक्षी त्रिपुरा में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड  या गोडावण को तो अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने इसे संकटग्रस्त पक्षियों की सूची में शामिल किया है। वर्ष 2011 में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क क्षेत्रों में इनकी संख्या 250 थी जो 2018 तक 150 रह गयी। भारत में इंडियन बस्टर्ड की बड़ी संख्या राजस्थान में मिलती है। चूंकि यह शुष्क  क्षेत्र का पक्षी है सो जैसे-जैसे रेगिस्तानी इलाकों में सिंचाई का विस्तार हुआ, इसका इलाका सिमटता गया।फिर इनके प्राकृतिक पर्यावासों पर सड़क, कारखाने, बंजर को हरियाली में बदलने के  सरकारी प्रयोग शुरू  हुए, नतीजा हुआ कि इस पक्षी को अंडे देने को भी जगह नहीं बची। फिर इसका शिकार तो हुआ ही। यही नहीं जंगल में हाई टेंशन  बिजी लाईन में फंस कर भी ये मारे गए। कॉर्बेट फाउंडेशन ने ऐसे कई मामलों का दस्तावेजीकरण किया जहां बस्टर्ड निवास और उनके प्रवासी मार्गों में बिजली की लाइनें बनाई गई हैं। भारी वजन और घूमने के लिए सीमित क्षेत्र होने के कारण बस्टर्ड को इन विद्युत लाइनों से बचने में परेशानी होती है और अक्सर वे बिजली का शिकार हो जाते हैं। यह केवल एक बानगी है। इसी तरह अंडमान टली या कलहंस या चंबल नदी के पानी में चतुराई से षिकार करने वाला हिमालयी पक्षी इंडियन स्कीमर, या फिर नारकोंडम का धनेष; ये सभी पक्षी समाज में फैली भ्रांतियों और अंधविष्वास के चलते षिकारियों के हाथ मारे जा रहे हैं। पालघाट के घने जंगलों में हरसंभव ऊंचाई पर रहने के लिए मषहूर नीलगिरी ब्लू रोबिन या षोलाकिली  पक्षी की संख्या जिस तेजी से घट रही है, उससे स्पश्ट है कि अगले दषक में यह केवल कितबों में दर्ज रह जाएगा। इसका मुख्य कारण पर्यटन, खनन व अन्य कारणों से पहाड़ों पर इंसान की गतिविधियों में इजाफा होना है।

भारत के लिए गंभीर विचार की विशय यह भी है कि साल दर साल ठंड के दिनों में आने वाले प्रवासी पक्षी कम हो रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान शून्य  से चालीस डिगरी तक नीचे जाने लगता है तो वहां के पक्षी मेहमान बन कर भारत की ओर आ जाते हैं । ऐसा हजारों साल से हो रहा है, ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हजारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है। यही नहीं इनमें से कई के प्रजनन का स्थल भी भारत है। नियमित भारत आने वाले पक्षियों में साइबेरिया से पिनटेल डक, शोवलर, डक, कॉमनटील, डेल चिक, मेलर्ड, पेचर्ड, गारगेनी टेल तो उत्तर-पूर्व और मध्य एशिया से पोचर्ड, ह्विस्लिंग डक, कॉमन सैंड पाइपर के साथ-साथ फ्लेमिंगो की संख्या साल-दर साल कम होती जा रही है। काजीरंगा, भरतपुर और सांभर झील में इस बार कई प्रजातियां दिखी ही नहीं। इसका मुख्य कारण शहर-कस्बे के तालाबों  में गंदगी, मछली जैसे भोजन की कमी  है। इस साल राजस्थान की सांभर झील में पच्चीस हजार से ज्यादा पक्षियों के मारे जाने की घटना से सरकार को सबक लेना होगा कि मेहमान पक्ष्यिों केलिए किसी तरह की व्यवस्था की जाए।
सबसे बड़ी चिंता की बात है कि इंसान के साथ उसके घर-आंगन में रहने वाले पक्षियों की संख्या घट रही है। गौरेया के गायब होने की चिंता तो आमतौर पर सुनाई देती है लेकिन हकीकत यह है कि गौरैया की संख्या कम नहीं हुई है, वह स्थिर है लेकिन बड़े षहरों से उसने अपना डेरा उठा दिया है। कारण- महानगरों में बेशुमार  कीटनाशकों  के इस्तेमाल से उसका पसंदीदा भोजन छोटे कीड़े-मकोड़े कम हो गए। साथ ही उसके घोसले के लिए माकूल स्थान महानगरों के ंकंक्रीट का जंगल खा गया। ठीक ऐसा ही कौए और गिद्ध के साथ हुआ है। जब तक पंक्षी हैं तब तक यह धरती इंसानों के रहने को मुफीद है- यह धर्म भी है, दर्शन  भी और विज्ञान भी। यदि धरती  को बचाना है तो पक्षिों के लिए अनिवार्य भोजन, नमी, धरती, जंगल, पर्यावास की चिंता समाज और सरकार दोनों को करनी होगी।

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