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मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

Do not break the path of most pure river of world

 

अविरल उमनगोत के लिए लड़ते आदिवासी

पंकज चतुर्वेदी



कोई कहता है कि यह एशिया की तो, कोई दुनिया की सबसे स्वच्छ नदी है- पानी इतना साफ है कि तैरती नावें कांच पर स्थापित प्रतिमा के मानिंद नजर आती हैं। आखिर हो भी क्यों न , वहां का समाज इस नदी को जान से ज्यादा चाहता है और इसकी सफाई उनकी अपनी जिम्मेदारी है . इतनी विरली नदी के किनारों पर इन दिनों असंतोष की आग सुलग रही है . सरकार चाहती है कि इस नदी की अविरल धरा को बाँध कर उससे बिजली उगाई जाए, जबकि समाज इस नदी के मूल स्वरुप से किसी भी किस्म की छेड़छाड़ को स्वीकार नहीं कर रहा है .  मेघालय में शिलांग से  कोई 85 किलोमीटर दूर उमनगोत को धरती का  एक आश्चर्य कहें तो अतिशियोक्ति नहीं होगी .

मेघालय ऊर्जा निगम लिमिटेड ने जब से उमनगोत नदी पर बांध बना कर  210 मेगावाट बिजली उत्पादन की परियोजना की घोषणा की है , खेती, मछली पकड़ने और पर्यटन से अपना जीवकोपार्जन करने वाला स्थानीय समाज सड़कों पर हैं, गत दो महीने से वहां आन्दोलन हो रहे हैं . इस बीच मेघालय राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दो बार जनसुनवाई का आयोजन किया लेकिन प्रदर्शनकारियों ने यहाँ तक अफसरों को पहुँचने नहीं दिया . पूर्वी खासी हिल्स जिले के मवाकिन्यू ब्लॉक के अंतर्गत सियांगखनाई गांव में पहली जन  सुनवाई से पहले लोगों ने 20 किमी दूर म्यांगसंग गांव में अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट सहित अधिकारियों को रोक दिया है। किसानों ने अधिकारियों के किसी भी वाहन को नहीं जाने दिया।

उमनगोत नदी का उद्गम उमंगोट नदी पूर्वी शिलांग में समुद्र तल से 1,800 मीटर ऊपर स्थित एक पहाड़ की छोटी से . पर्यवरण-मित्र पर्यटन के लिए विश्व मानचित्र पर चर्चित दावकी शहर के पास यह नदी बांग्लादेश में कुछ देर को प्रवेश करती है और वहां इसे डावी नदी कहते हैं। उसके बाद मेघालय में यह नदी, री पनार (जयंतिया पहाड़ियों में निवास करने वाली जनजाति) तथा हेमा खिरिम (खासी पहाड़ियों में निवास करने वाली जनजाति) के बीच एक नैसर्गिक सीमा का काम करती  है .

उमनगोत जिन तीन गांवों - दावकी, दारंग और शेंनान्गडेंग से बहती है, वहां के निवासी खासी आदिवासी  ही इसको पवित्र और उसके प्राकृतिक  स्वरुप में रखने का काम करते हैं. जब पर्यटक कम आते हैं और मौसम ठीक होता है तब सारे गाँव वाले “सामुदायिक सेवा “ कर नदी और उसके आसपास सफाई का काम करते हैं . इस दिन गांव के हर घर से कम से कम एक व्यक्ति नदी की सफाई के लिए आता है. यदि कोई किसी भी तरह की गंदगी फैलाते देखा जाए तो उस पर 5000 रु. तक जुर्माना लगता है . तभी इस नदी में 15 फीट गहराई तक पानी के नीचे का एक एक पत्थर क्रिसटल की तरह साफ-साफ नजर आता है। पानी में धूल का एक भी कण दिखाई नहीं देता. इस पूरे इलाके को साफ - सुथरा और प्लास्टिक मुक्त रखने की जिम्मेदारी यहाँ का हर एक ग्रामीण निभाता है ये लोग  नदी में मछली पकड़ना पसंद करते हैं, लेकिन जाल या रासायनिक चारा का उपयोग कतई नहीं करते . यहाँ कोई शोर नहीं है – पक्षी से ले कर अपने साँस का स्वर भी साफ़ सुन सकते हैं . हवा में कोई प्रदूषण नहीं , तभी स्थानीय लोग इसे अपना स्वर्ग मानते हैं . यहाँ नवंबर से अप्रैल तक सबसे अधिक पर्यटक आते हैं. मानसून में बोटिंग बंद रहती है, विदित हो एशिया के सबसे साफ गांव का दर्जा हासिल मावलिननॉन्ग भी उमनगोत के करीब ही है .

मेघालय के जल-जंगल –जमीं- जन और जानवर को पीढ़ियों से अपने मूल स्वरुप में सहेज कर रख रहे आदिवासियों का कहना है कि नदी पर बाँध बनने के बाद उनके गाँवों  तक नदी में पानी का बहाव कम हो जाएगा, खासकर सर्दियों में , जब सबसे ज्यादा पर्यटक आते हैं, यह जल धरा सूख जायेगी .  पूर्वी खासी हिल्स जिले के किसानो में यह भय है कि प्रस्तावित जलविद्युत परियोजना के कारण उनकी खेती योग्य भूमि डूब जाएगी. पश्चिम जयंतिया हिल्स और पूर्वी खासी हिल्स में के 13 गांवों की लगभग 296 हेक्टेयर खेती लायक भूमि यह बाँध खा जाएगा . परियोजना के दस्तावेज बानगी हैं कि इसके कारण निचली ढलान के कई गाँवों को विस्थापित करना पड़ेगा और संभव है कि शोंपडेंग और दावकी  जैसे पर्यटन केन्द्रों का नामोनिशान मिट जाए . 
उधर सरकार का दावा है कि बांध से उत्पन्न बिजली से गाँवों में विकास आएगा , उपरी हिस्से में कुछ गाँव इस परियोजना का समर्थन भी इसी लिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें भरोसा है कि बाँध के जलाशय सयून्हें ज्यादा पानी मिलेगा. नदी पर निर्भर लोगों की चिंता है कि यदि बाँध बनता है तो पर्यटक वहां ज्यादा जायेंगे, विस्थापन और डूब से उनके पारम्परिक रोजगार छूट जायेंगे और साथ ही बाँध के पानी के कारण मछलियों की पारंपरिक प्रजातियों पर भी संकट होगा . जान लें इस पहाड़ी क्षेत्र में वैसे भी खेती लायक मैदानी जमीं का अभाव होता है और यदि थोड़े भी खेत डूब में आते हैं तो किसान को मिलने वाले मुआवजे से उनका जीवन नहीं कटेगा , अब पहाड़ों की कतई या जंगल जला कर झूम खेती पर वैसे ही पाबन्दी है और ऐसे में नए खेत की कोई संभावना नहीं है .
प्रकृति पर निर्भर आदिवासी विकास की नयी परिभाषा से सहमत नहीं हैं . उनका कहना है कि एक सडक या बिजली के लोभ में वे अपनी नदी , पेड़ , स्वच्छता से समझौता कर नहीं सकते , वे अपने जीवन से संतुष्ट हैं और प्रकृति के बलिदान की कीमत पर कोई समझौता करना नहीं चाहते . 

 

 

 

 

 

 

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