भूजल के बदौलत तो नल रीते ही रहेंगे
पंकज चतुर्वेदी
भारत सरकार सन 2024 तक हर घर में नल के जरिये शुद्ध पेयजल पहुंचाने की जिस योजना पर काम कर रही है, उनकी हकीकत मार्च में गरमी शुरू होते ही सामने आने लगी। मध्यप्रदेश के लगभग सभी जिलों में ऐसी योजनाएं दम तोड़ रही हैं। बिहार में टंकी बनाने व पाईप बिछाने का काम तो हो गया लेकिन घर में नल सूखे ही रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बड़गांव में तो दस साल से टंकी व पाईप हैं लेकिन नहीं है तो पानी। यह कड़वा सच है कि आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है। यह भी विडंबना है कि अब तक हर एक को पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गाँवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19,000 गाँव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है। सन 1950 में लागू भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 में भले ही यह दर्ज हो कि प्रत्येक देश वासी को साफ पानी मुहैया करवाना राज्य का दायित्व है लेकिन 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने का पानी की आस अभी बहुत दूर है। हजारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चल कर पानी लाते हैं। राजधानी दिल्ली की बीस फीसदी से ज्यादा आबादी पानी के लिए टैंकरों पर निर्भर है। यह आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।
यह जान लें कि जब तक नल या टंकी के लिए
पानी का जरिया नहीं खोजा जाता और साथ में घर में नल आने के बाद वहां से निकलने वाले गंदे पानी के कुषल निबटान
व पुनर्चक्रण की योजना नहीं बनती, ऐसी
हर योजना पूरी तरह सफल होगी नहीं। इस योजना के साकार होने में सबसे बड़ा अड़ंगा है
कि ग्रामीण भारत की 85
फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है
,
दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूशित
हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। तीसरा देश के अधिकांष हिस्से में जिसे भूजल मान कर हैंडपंप
रोपे जाते हैं , वह असल में जमीन की
अल्प गहराई में एकत्र बरसात की रिसाव होता है जो गरमी आते आते समाप्त हो जाता है।
नल-जल योजना का मूल आधार बरसात के जल को
सलीके से एकत्र करना और उसका इस्तेमाल ही है। समझना होगा कि यदि नदी में अविरल
धारा रहती है, यदि तालाब में लबालब
पानी रहता है तो उसके करीब के कुओं से पंप लगा कर सारे साल घरों तक पानी भेजा जा
सकता है। यदि हर घर तक ईमानदारी से पानी
पहुंचाने का संकल्प है तो ओवर हेड टैंक या ऊंची पानी की टंकी बना कर उसमें अधिक
बिजली लगा कर पानी भरने और फिर बिजली पंप से दवाब से घर तक पानी भेजन से बेहतर और किफायती
होगा कि हर मुहल्ला-पुरवा में ऐसे कुएं
विकसित किए जाएं जो तालाब, झील, जोहड़, नदी
के करीब हों व उनमें साल भर पानी रहे। एक कुंए से 75 से
100
घरों को पानी सप्लाई का लक्ष्य रखा जाए व उस कुएं व पंप की देखभाल के लिए उपभोक्ता
की ही समिति कार्य करे तो ना केवल ऐसी योजनाएं
दूरगामी रहेंगी, बल्कि
समाज भी पानी का मोल समझेगा।
सनद रहे कि हमारे पूर्वजां ने देश -काल
परिस्थिति के अनुसार बारिष को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की
थीं, जिसमें तालाब सबसे
लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानि पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन
कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा
से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये
आमतौर पर वर्षा -जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध
के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने
वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘‘पाट’’ पहाड़ी
क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्क्े बांध तक
पानी ले जाने की प्रणाली ‘‘नाड़ा
या बंधा’’ अब देखने को नहीं
मिल रही है। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं,बल्कि
हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई
और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु
में ऐरी, नगालेंड में जोबो तो
लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र
में पैट, उत्तराखंड में गुल
हिमाचल प्रदेश में कुल और और जम्मू में
कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम
हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुतीर्ण
होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक
मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिष की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के
प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिष भी बहुत
कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बरफ रहती है और दिन में धूप के
कारण कुछ पानी बनता है जो शाम को बहता है।
वहां के लोग जानते थे कि षाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों
को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए व इसी पर नल-जल योजना स्थापित कर
जिम्मेदारी स्थानीय समाज को दी जाए।जान लें भूजल के बदौलत कंठ को गीला रखना संभव
नहीं और भूगर्भ यदि सूखा रहा तो रेगिस्तान के विस्तार , भूकंप
जैसी कई आपदाएं इंसानियत के लिए खतरा
बनेंगी।
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