भीलों का भगोरिया
पंकज चतुर्वेदी
टेसू के फूलों की महक एवं आम के पेड़ो पर
छाई मोरों अमराई की भीनी भीनी खुशबु ने फागुन की दस्तक दे दी है। भगोरिया उत्सव का
मौसम आ गया है। मध्यप्रदेश भारत के हृदय प्रदेश के रूप में प्रतिष्ठित है। मालवा
अंचल मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक इलाके के रूप में जाना जाता है। धार, झाबुआ, खरगोन जिले मालवा
अंचल के आदिवासी संस्कृति के प्रमुख केन्द्र हैं। भगोरिया राजा भोज के समय से ही
मनाया जाता है। उस समय के दो भील राजाओं कासूमार व बालून ने अपनी राजधानी भागोर
में विशाल मेले और हाट का आयोजन करना शुरू किया। ऐसा आदिवासी संस्कृति पर रचित
पुस्तकों में उल्लेख मिलता है। इन संदर्भां के अनुसार भगोरिया का प्रारम्भ राजा
भोज के समय लगने वाले हाटों को कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि क्षेत्र का भगोर
नाम का गाँव देवी मां के श्राप के कारण उजड़ गया था। वहॉ के राजा ने देवी को
प्रसन्न करने के लिए गाँव के नाम से वार्षिक मेले का आयोजन शुरू कर दिया। चूँकि यह
मेला भगोर से शुरू हुआ, इसलिये इसका नाम भगोरिया रख दिया गया। वैसे इसे गुलालिया हाट यानी गुलाल
फेंकने वालों का हाट भी कहा जाता है। धीरे-धीरे भील राजाओं ने इन्ही का अनुसरण
करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहना शुरू हुआ। अन्य राय के अनुसार
चूँकि इन मेलों में युवक युवतियॉ अपनी मर्जी से भागकर शादी करते हैं इसलिए इसे
भगोरिया कहा जाता है। भगोरिया उत्सव होली का ही एक रूप है और हर तरफ फागुन और
प्यार का रंग बिखरा नजर आता है।
यह पर्व धार, झाबुआ, अलिराजपुर व
बड़वानी जिले के आदिवासियों के लिए खास महत्व रखता है। आदिवासी समाज मुलतरू किसान
हैं। ऐसी मान्यता है कि यह उत्सव फसलों के खेंतो से घर आने के बाद आदिवासी समाज
हर्ष-उल्लास और मोज-मस्ती को पर्व के रूप में सांस्कृतिक परिवेश में मनाता है। इस
पर्व में समाज का हर आयु वर्ग सांस्कृतिक पर्व के रूप में सज-धज कर त्यौहार के रूप
में मनाता है। भगोरिया पर्व आदिवासी संस्कृति के लिए धरोहर है इसलिए ये वाद्य
यंत्र के साथ मांदल की थाप पर हाट-बाजार में पहुंचते हैं और मोज-मस्ती के साथ
उत्सव के रूप में मनाते हैं। भगोरिया के समय धार, झाबुआ, खरगोन आदि
क्षेत्रों के हाट-बाजार मेले का रूप ले लेते हैं और हर तरफ फागुन और प्यार का रंग
बिखरा नजर आता है ।
हर साल टेसू (पलाश) के पेड़ों पर खिलने
वाले सिंदूरी फूल पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासियों को फागुन के आने की खबर दे
देते हैं और वे भगोरिया मनाने के लिये तैयार हो जाते हैं। भगोरिया हाट-बाजारों में
युवक-युवती बेहद सजधज कर अपने भावी जीवनसाथी को ढूँढने आते हैं। इनमें आपसी
रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है। सबसे पहले लड़का लड़की को
पान खाने के लिए देता है। यदि लड़की पान खा ले तो हाँ समझी जाती है। इसके बाद
लड़का लड़की को लेकर भगोरिया हाट से भाग जाता है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसी
तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के
गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है।
फागुन की मदमाती बयारों और बसंत के साथ
मध्यप्रदेश और बस्तर आदिवासी इलाकों में भगोरिया पर्व का शुभारंभ हो जाता है।
रंग-रंगीले, मस्ती भरे, परंपरागत
लोक-संस्कृति के प्रतीक भगोरिया पर्व में ढोल-मांदल की थाप, बाँसुरी की मधुर
धुन और थाली की झंकार के साथ युवाओं की उमंग का आलम देखने को मिलता है।
नव पल्लवित वृक्षों के समान ही नए-नए
आवरणों में सजे युवक और युवतियाँ जब इस उत्सव को मनाने टोलियों में आते हैं तो
उनके मन की उमंग देखते ही बनती है। युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे
नहीं रहते। आदिवासियों को मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम यदि इनकी परंपराओं
पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज
तनावग्रस्त है वही परंपराएँ इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं।
हमारे सभ्य समाज में मनपसंद जीवनसाथी की
तलाश करने में स्वेदकण बहाने वालों को अपने गरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि
हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है? क्या हमारे पास हैं
ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों? लेकिन आदिवासियों
के पास हैं इस मामले में वे हमसे अधिक समृद्ध हैं।
भगोरिया हाट के दिन सभी गाँवों, फलियों और घरों में
एक विशेष उत्साह, उन्माद व सरगर्मी नजर आती है। गाँवों में ढोलों के स्वर दूर-दूर तक
प्रतिध्वनित होते हैं। कहीं घुँघरुओं की छम-छम तो कहीं थाली की झंकार, कहीं कुंडी या फिर
शहनाई का तीव्र नाद, कहीं मांदल की थाप से उपजे संगीत के मधुर स्वर, बड़ी दूर-दूर तक वन
प्रांतों, पहाड़ों की घाटियों, नदियों व जलाशयों
की तरंगों, खेतों व खलिहानों
में अविरल और सहज प्रतिध्वनित हो उठते हैं।
बाजारों की सरहदों पर ढोल-मांदलों आदि के
संगीत पर नृत्य करती टोलियों की बड़ी संख्या से धूम बढ़ जाती है। भगोरिया हाट में
दूर-दूर से कई किस्म की दुकानें नए-पुराने व्यापारी लाते व लगाते हैं। इनमें झूले, मिठाइयाँ, वस्त्र, सोने-चाँदी आदि
धातुओं व प्लास्टिक के आभूषण, श्रृंगार के प्रसाधन, खिलौने, भोजन सामग्री आदि प्रमुख रहते हैं।
भील युवा तरह-तरह की समस्याओं से घिरे
रहने के बावजूद सदा खिले ही रहते हैं। यह अनूठा प्रेम है, जो इस समाज के लिए
परमात्मा का वरदान है। भगोरिया शब्द की व्युत्पत्ति भगोर क्षेत्र से तथा उसके
आसपास होने वाले होलिका दहन के पूर्व के अंतिम हाट से हुई है। वैसे इसका असली नाम
गलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा गया है।
पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले
आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल
पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास भगौरिया भी तो है अपनी पसंद को निःसंकोच अपने प्रिय
के समक्ष जाहिर कर सकने का पर्व। इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय
किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है। होली के पूर्व
हठवारे में झाबुआ में लगने वाले अंतिम हाटों को, जो रबी की फसल के
तुरंत बाद लगते हैं और यहाँ के भील जिसमें सर्वाधिक क्रय-विक्रय करते हैं, उस हाट को भगोरिया
हाट या फिर गलालिया हाट कहते हैं।
भगोरिया हाट को आदिवासी युवक-युवतियों का
मिलन समारोह कहा जा सकता है। परंपरा के मुताबिक भगोरिया हाट में आदिवासी युवक, युवती को पान का
बीड़ा पेश करके अपने प्रेम का मौन इजहार करता है। युवती के बीड़ा ले लेने का मतलब
है कि वह भी युवक को पसंद करती है।
इसके बाद यह जोड़ा भगोरिया हाट से भाग
जाता है और तब तक घर नहीं लौटता, जब तक दोनों के परिवार उनकी शादी के लिये रजामंद नहीं हो जाते।
बहरहाल, आधुनिकता का रंग
प्रेम की इस सदियों पुरानी जनजातीय परंपरा पर भी गहराता जा रहा है। जनजातीय
संस्कृति के जानकार बताते हैं कि भगोरिया हाट अब मेलों में तब्दील हो गये हैं और
इनमें परंपरागत तरीके से जीवनसाथी चुनने के दृश्य उतनी प्रमुखता से नहीं दिखते।
मगर वक्त के तमाम बदलावों के बावजूद भगोरिया का उल्लास जस का तस बना हुआ है।
भगोरिया प्राचीन समय में होनेवाले स्वयंवर का ही जनजातीय स्वरूप है। इन हाट
बाजारों मे युवक युवती बेहद सजधज कर जीवन साथी ढूँढते है ये दृश्य बहुत ही मनमोहक
होते हैं। फिर देवता की पूजा अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव पूजा के बाद
बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं और युवाओं की निगाहें भीड़ में
मनपसंद जीवन साथी तलाशती हैं। फिर शुरू होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला। लाल
गुलाबी, हरे पीले फेटे, कानों में चांदी की
लड़ें, कलाइयों और कमर में
कंदोरे, आँखों पर काला
चश्मा और पैरों में चांदी के मोटे कड़े पहने नौजवानों की टोलियॉ हाट की रंगीनी
बढाती है। वहीं सुर्ख लाल, नांरगी, नीले,
जामुनी, बैंगनी, काले कत्थई आदि चटख
शोख रंग मे भिलोंडी लहॅगें और औढनी पहने, सिर से पाँव तक चांदी के गहनों से सजी अल्हड़
बालाओं की शोखियाँ भगोरिया की मस्ती को सुरूर में तब्दील करने के लिए काफी हैं। अब
इन पारंपारिक वेशभूषा में हेडफोन व मोबाइल भी विशेष रूप से युवक युवतियों की पसंद
बनते जा रहे हैं जिनका प्रयोग ये बात करने में कम एफएम रेडियो ओर गाने सुनने में
ज्यादा करते हैं। प्रसिद्व रिबोक व एक्शन जैसी अन्य नामी कम्पनियों की तरह बनने
वाले स्पोटर्स शू का फैशन भी बढा है।
हालाँकि भगोरिया हाटों में अब परंपरा की
जगह आधुनिकता हावी होती नजर आती है। ताड़ी की जगह शराब का सुरूर सिर चढ कर बोलता
है। छाछ नींबू व रंगीन शरबत की जगह प्रसिद्व कंपनियों के पेय ने ले ली है। लेकिन
रंगीन शरबत आज भी पहली पसंद बना हुआ है। ऐसा कहने में अतिश्योक्ति नहीं कि भगोरिया
के आदर्शो, गरिमाओं और भव्यता
के आगे योरप और अमेरिका के प्रेम पर्वो की संस्कृतियों को भी फीका करने का माद्दा
है, क्योंकि ये अपनी
पवित्रता, सामाजिक और
सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से आज भी ओतप्रोत है।
दो दशक पूर्व तक प्रणय निवेदन तथा
स्वीकृति के बीच दोनों पक्षों मे खून-खराबा होना बहुत सामान्य बात थी। लेकिन अब
प्रशासन की चुस्त व्यवस्था से पिछले वर्षो में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई है। मेलों
में अब सशस्त्र बल व घुड़सवार पुलिस की तैनाती से अब मामले हिंसक नहीं होते।
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