My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 30 जुलाई 2017

knowledge of languages make comfortable to mix with mass




भाषाओं के परिचय से मिलता आनंद 


 कुछ साल पहले की बात है- नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) ने असम के नलबारी में पुस्तक मेला आयोचित किया। तय किया गया कि मेला परिसर में एक बाल-मंडप बनाया जाएगा, जहां हर रोज कुछ न कुछ गतिविधियों का आयोजन होगा। जिम्मेदारी मुझ पर थी। नलबाड़ी यानि नल का गांव! असम के अधिकांश हिंसक आंदोलनों की नाल में यह इलाका अग्रणी रहा है। यूं भी कहा जा सकता है कि जब कभी सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा उठता दिखता है तो उसके निराकरण के लिए यहां के लोग बंदूक की नाल को अधिक सहज राह मानते हैं । मन में विचार आया कि कहीं इसीलिए तो इसे नलबाड़ी नहीं कहते हैं, बंदूक की नाल वाली नलबाड़ी! नहीं, ऐसा नहीं है ; भारत के पिता 'नल' यानि नल-दमयंती वाले नल के नाम पर इस शहर का नाम पड़ा है। यहां के लोगों का विश्वास है कि हमारे देश की प्रारंभ भूमि यही है और इस देश में सूरज की सबसे पहले किरणें यहीं पड़ती है। या यूं कहें कि ज्ञान की किरणें यहीं दमकती है। भूटान की सीमा पर लगे इस हरे-भरे कस्बे में स्कूली बच्च्यिां पारम्परिक मेखला यानी साड़ी से मिलता-जुलता परिवेश पहनकर ही स्कूल जाती हैं। बाल मंडप में पहले ही दिन दो सौ से ज्यादा बच्चे थे। हालांकि एक स्थानीय व्यक्ति सहयोग के लिए था, लेकिन मेरी हिंदी और संपर्क व्यक्ति की असमिया के जरिये बात जब तक बच्चों तक पुहंचती तो कुछ न कुछ ट्रांसमिशन-लाॅस हो जाता। आमतौर पर पूर्वोत्तर राज्य के लोगों के लिए दिल्ली और दिल्ली वाले दूर के ही महसूस होते हैं। साफ झलक रहा था कि बच्चों में स्कूल के क्लास रूम की तरह उबासी है। तभी कुछ शब्द बोर्ड पर लिखने की बात आई। मैंने अपनी टूटी-फूटी बांग्ला में वे शब्द लिख दिए। मुझे पता था कि र और व के अलावा बांग्ला और असमिया लिपि लगभग एक ही है। जैसे ही मैंने बोर्ड पर उनकी लिपि में कुछ लिखा, बच्चों के चेहरे पर चमक लौट आई। 'सर आप असमिया जानते हैं?' मैंने हंसकर बात टाल दी। लेकिन वह एक पहला सूत्र था जब बच्चों ने मेरे साथ खुद का जुड़ाव महसूस किया।
फिर अगले आठ दिन खूब-खूब बच्चे आते, वे असमिया में बोलते, कुछ हिंदी के शब्द होते, वे मेरी हिंदी खूब समझते और जब-तब मैं कुछ वाक्य उनकी लिपि में बोर्ड पर लिखकर उन्हें अपने ही बीच का बना लेता। यह मेरे लिए एक अनूठा अवसर और अनुभव था कि किस तरह एक भाषा पूरे समाज से आपको जोड़ती है। अभी कुछ दिनों पहले की बता है, मेरे कार्यालय में एक परिचित पुस्तक वितरक आए, उन्हें किसी स्कूल से गुजराती पुस्तकों का आर्डर मिला था। वे खुद गुजराती जानते नहीं थे, न ही मेरी बुक शॉप में किसी को गुजराती आती है। हमारे गुजराती संपादक टूर पर थे। निराश सज्जन मेरे पास आए और मैंने उनकी पुस्तकों के नाम अंग्रेजी या हिंदी में लिख दिए। कुछ ही देर में उन्हें भी पुस्तकें मिल गईं। इस बात से वे सज्जन, बुक शॉप वाले और मैं स्वयं बहुत आनंदित था कि मेरे थोड़े से भाषा-परिचय के चलते दिल्ली का कोई स्कूल गुजराती पुस्तकों से वंचित होने से रह गया।
मैं कक्षा आठ से 11 वीं तक मध्यप्रदेश के जावरा जिला रतलाम के जिए स्कूल में पढ़ा था। वहां के प्राचार्य ज्ञान सिंह का ही सपना था कि बच्चे एक से अधिक भारतीय भाषा सीखें, सो उन्होंने कक्षा नौ से आगे अनिवार्य कर दिया कि हर बच्चा एक भाषा जरूर पढ़ेगा- गुजराती, मराठी, बांग्ला या उर्दू। उर्दू जाफरी साहब पढ़ाते थे और उनकी छड़ी उर्दू की कोमलता के बिल्कुल विपरीत थी। हिंेदी वाले जोशी सर एक पीरियड गुजराती का लेते थे, जबकि अंग्रेजी के एसआर मिश्र सर बांग्ला पढ़ाते थे । एक भाषा पढ़ना ही होगा, उसका इम्तेहान भी देना होगा , हां सालाना नतीजे में उसके परिणाम का कोई असर नहीं होता था। मैंने वहां एक साल गुजराती और दूसरे साल बांग्ला पढ़ी। कई-कई बार हम लोग इतिहास जैसे विषयों के नोट उन लिपियों में लिखते थे और शाम को उसे फिर से हिंदी या अंग्रेजी में उतारने की मगजमारी होती थी। आज पीछे पलटकर देखता हूं और कई भाषाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ लेता हूं और इसका लाभ मुझे पूरे देश में भ्रमण, खासतौर पर बच्चों के साथ काम करन के दौरान िलता है तो याद आता है कि सरकारी स्कूल भी उतने ही बेहतर इंसान बनाते हैं जितना कि 'मशहूर वाले' स्कूल। एक प्राचार्य ने अपनी इच्छा-शक्ति के चलते देश का स्वप्न बन गया 'त्रिभाषा फॉर्मूला' सार्थक किया था। यह आज भी मेरे काम आ रहा है। मुझे आनंद दे रहा है और दूसरों को आनंद दे रहा है कि मध्यप्रदेश या दिल्ली का कोई व्यक्ति उनकी भाषा के कुछ शब्द जानता-समझता है।


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