तापमान वृद्धि से बढ़ेंगी दिक्कतें
इस साल 18 फरवरी को पिछले पांच वर्षो में सबसे गर्म दिन बताया गया। पिछले एक पखवाड़े से कभी तेज धूप होती है तो कहीं बादल और बूंदाबांदी होने लगती है, अचानक ठंड सी लगने लगती है। अतीत में देखें तो पाएंगे कि मौसम की यह स्थिति बीते एक दशक से कुछ यादा ही समाज को तंग कर रही है। हाल में, अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी कहा है कि फरवरी में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि ने पूर्व के महीनों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया है। नासा के आंकड़ों के अनुसार यह पर्यावरण के लिए खतरे के संकेत हैं। जेफ मास्टर्स और बाब हेनसन ने लिखा कि यह मानव द्वारा निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के कारण वैश्विक तापमान में लंबे समय में वृद्धि की चेतावनी है। मार्च की शुरुआत में प्रारंभिक नतीजों से यह सुनिश्चित हो गया है कि तापमान में वृद्धि के रिकॉर्ड टूटने जा रहे हैं। 1951 से 1980 के मध्य की आधार अवधि की तुलना में धरती की सतह और समुद्र का तापमान फरवरी में 1.35 सेल्सियस अधिक रहा है जबकि इस साल जनवरी में ही आधार अवधि का रिकॉर्ड टूट चुका है।आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस बदलाव के कारण धरती किस दिशा में जा रही है। फरवरी के तापमान में खतरनाक स्तर पर वृद्धि आखिर क्यों हुई? इस महीने वैश्विक तापमान में 1.35 सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई। धरती की सतह का इस तरह गरम होना चिंताजनक है। तापमान ऊर्जा का प्रतीक तो है लेकिन इसके संतुलन बिगड़ने का अर्थ है हमारे अस्तित्व पर संकट। यह तो सभी जानते हैं कि वायुमंडल में सभी गैसों की मात्र तय है और 750 अरब टन कार्बनडाइ ऑक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्र बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के गरम होने जैसे प्रकृतिनाशक बदलाव हम ङोल रहे हैं। कार्बन की मात्र में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की आशंका बढ़ने का कारक भी है, कार्बन की बेलगाम मात्र।
धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़, प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानी पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते हैं। आज विश्व में अमेरिका सबसे यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बनडाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है। उसके बाद कनाडा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं। जापान, जर्मनी, दक्षिण कोरिया आदि औद्योगिक देशों में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बनडाइ आक्साइड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 203 तक तीन गुणा यानी अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए।
कार्बन उत्सर्जन की मात्र कम करने के लिए हमें एक तो स्वछ ईंधन को बढ़ावा देना होगा। हमारे देश में रसोई गैसे की तो नहीं कमी है, हां सिलेंडर बनाने के लिए जरूरी स्टील, सिलेंडर वितरण के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक नेटवर्क को विकसित करना और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलब्ध करवाना ही बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थो की बिक्री, घटिया सड़कें, ऑटो पुर्जो की बिक्री और छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश में बढ़ता कचरे का ढेर और उसके निबटान की माकूल व्यवस्था का ना होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की बड़ी बाधा है। सनद रहे कि कूड़ा जब सड़ता है तो उससे बड़ी मात्र में मीथेन, कार्बन मोनोडाइ और कार्बनडाइ ऑक्साइड गैसें निकल कर वायुमंडल में कार्बन के घनत्व को बढ़ाती हैं। साथ ही बड़े बांध, सिंचाई नहरों के कारण बढ़ते दल-दल भी कार्बनडाइ ऑक्साइड पैदा करते हैं। कार्बन की बढ़ती मात्र से तापमान में बढ़ोतरी के कारण दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। जाहिर है कि इससे जूझना सारी दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन और पारपंरकि ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है। छोटे तालाब और कुएं, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती और परिवहन के पुराने साधन, कुटीर उद्योग का सशक्तीकरण जैसे कुछ प्रयास हैं, जो बगैर किसी मशीन या बड़ी तकनीक या फिर अर्थव्यवस्था को प्रभावित किए बगैर ही कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं और इसके लिए हमें पश्चिम से उधार में लिए ज्ञान की जरूरत भी नहीं है। धरती के गरम होने से सबसे यादा प्रभावित हो रहे हैं ग्लेशियर। ये हमारे लिए उतने ही जरूरी है जितना साफा हवा या पानी। तापमान बढ़ने से इनका गलना तेजी से होता है। इसके चलते कार्बन उत्सर्जन में तेजी आती है और इससे एक तो धरती के तापमान नियंत्रण प्रणाली पर विपरीत प्रभाव होता है। दूसरा नदियों व उसके जरिये समुद्र में जल का स्तर बढ़ता है। जाहिर है जल स्तर बढ़ने से धरती पर रेत का फैला होता है, साथ ही कई इलाकों के ढूबने की संभावना भी होती है।
ग्लोबल वार्मिग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणाम स्वरूप धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट और उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब पुस्तकों, सेमीनार तथा चेतावनियों से बाहर निकल कर आम लोगों के बीच जाना जरूरी है। साथ ही इसके नाम पर डराया नहीं जाए बल्कि इससे जूझने के तौर-तरीके भी बताया जाना अनिवार्य है। धरती को इन संकटों से बचाने के लिए समाज का मुख्यधारा कहे जाने वाले समाल को आदिवासियों के जीवन से सीखे जाने की बेहद जरूरत है। आदिवासी समाज का जीवन स्थायित्व वाला है और उनका जीवन प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने वाला है।
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