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बुधवार, 1 मार्च 2017

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क्यों बढ़ गई जंगल की कटाई

छत्तीसगढ़ के बस्तर में केंद्रीय सुरक्षा बलों की पैठ बढ़ने से नक्सलवाद का असर तो कम हुआ है मगर जंगलों का अंधाधुंध दोहन शुरू हो गया है। आदिवासियों का जीवन जंगल पर निर्भर है। लेकिन जंगल कटेंगे तो वहां के बाशिंदों का जनजीवन भी प्रभावित होगा। दुखद है कि जंगलों की कटाई कई जगह उस कथित विकास के नाम पर की जा रही है, जिसके विरोध के नाम पर नक्सली आदिवािसयों को लामबंद करते रहे हैं। जंगल का कटना यहां के पर्यावरण के साथ जनजातियों के जीवन यापन पर भी असर डाल रहा है। असल में, बस्तर के आदिवासियों के लिए सड़क से यादा जरूरी उनके पारंपरिक जंगलों को सहेजना है।
भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में फिर दो फीसदी वन क्षेत्र कम हो गया है। पिछले 10 साल में वन क्षेत्र में लगातार कमी हो रही है। सरकार स्वीकार करती है कि विकास कार्यो के कारण जंगल घटे हैं। बस्तर में 19 वर्ग किलोमीटर, दंतेवाड़ा में 10 वर्ग किलोमीटर, कांकेर में नौ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हुआ है। हाल में कांकेर के अंतागढ़ के जंगलों में स्थित रावघाट खदान से लौह अयस्क निकालने को वन विभाग ने हामी भर दी है। इसके लिए लगभग 30 लाख पेड़ों को काटा जाएगा। नक्सली और ग्रामीणों के विरोध के कारण लंबे समय से रुकी रावघाट परियोजना अब शुरू हो गई है। प्रशासन के द्वारा ठेकेदारों को सुरक्षा मुहैया कराने के बाद बस्तर में फिर से रावघाट परियोजना के तहत पेड़ों की कटाई शुरू हो गई है। अकेले पेड़ों की कटाई पर व्यय साठ लाख आंका गया है। अभी यह काम शुरू ही हुआ था कि इलाके में एक कंपनी द्वारा मनमाने तरीके से पेड़ कटाई की शिकायतें आने लगीं। राय के वन विकास निगम के अपर प्रबंध संचालक एस.सी. अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ शासन के मुख्य सचिव और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को भेजी रिपोर्ट में कहा है कि कंपनी को जिस क्षेत्र का पट्टा स्वीकृत किया गया है उस सीमा क्षेत्र के बाहर जाकर न केवल पेड़ों की कटाई की गई है बल्कि वन मंडल अधिकारी ने तथ्यों को छिपाकर गंभीर अनियमितता बरती है। इस मामले में हरे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के लिए प्रमुख रूप से डीएफओ राम अवतार दुबे की संलिप्तता पाई गई। खनन कंपनी को खनन के लिए अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता थीं, जिसके वास्ते केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रलय ने चौदह सौ सैंतालीस पेड़ काटने की अनुमति दी। लेकिन कंपनी ने डीएफओ की मिलीभगत से निर्धारित संख्या से बहुत अधिक पेड़ काट दिए। बस्तर का इलाका 39,060 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो केरल से बड़ा है। बस्तर यानी बांस की तरी अर्थात बांस की घाटी में कभी बीस फीसदी बांस के जंगल होते थे, जो आदिवासियों के जीवकोपार्जन का बड़ा सहारा थे। इसके अलावा साल, सागौन, जापत्र सहित 15 प्रजातियों के बड़े पेड़ यहां के जंगलों की शान थे। 1956 से 1981 के बीच विभिन्न विकास योजनाओं के नाम पर यहां के 125,483 हेक्टेयर जंगलों को नेस्तनाबूद किया गया। आज इलाके के कोई दो लाख चालीस हजार हेक्टेयर में सघन वन हैं। जानना जरूरी है कि अबुझमाड़ के ओरछा और नारायणपुर तहसीलों के कोई छह सौ गांव-मजरों-टोलों में से बामुश्किल 134 का रिकॉर्ड शासन के पास है। यह बात सरकार स्वीकारती है कि पिछले कुछ वर्षो में बस्तर में 12 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र में कमी आई है। सलवा जुड़ुम की शुरुआत के बाद पेड़ों की कटाई यादा हुई। वैसे तो यहां के घुप्प अंधेरे जंगलों की सघनता व क्षेत्रफल की तुलना में वन विभाग का अमला बेहद कम है, ऊपर से यहां जंगल-माफिया के हौंसले इतने बुलंद हैं कि आए रोज वन रक्षकों पर जानलेवा हमले होते रहते हैं।
बस्तर जिले में गत एक वर्ष के दौरान ग्रामीणों द्वारा बड़े पैमाने पर जंगलात की जमीन पर कब्जे किए गए। सरकार ने ग्रामीणों को वनाधिकार देने का कानून बनाया तो कतिपय असरदार लोग जल्द ही जमीन के पट्टे दिलवाने का लालच दे कर भोले-भाले ग्रामीणों को जंगल पर कब्जा कर वहां सपाट मैदान बनाने के लिए उकसा रहे हैं। महज पांच सौ से हजार रुपये में ये आदिवासी साल या शीशम पेड़ काट देते हैं और जंगल माफिया इसे एक लाख रुपये तक में बेचता है। बस्तर वन मंडल में बोदल, नेतानार, नागलश्वर, कोलावाडा, मिलकुलवाड़ा वन-इलाकों में सदियों से रह रहे लोगों को लगभग 40 हजार एकड़ वन भूमि पर वनाधिकार के पट्टे बांटे जा चुके हैं। इसके बाद वन उजाड़ने की यहां होड़ लग गई है। कुछ लोगों को और जमीन के पट्टे का लोभ है तो कुछ खेती करने के लिए जंगल काट रहे हैं। इनसे मिली लकड़ी को जंगल से पार करवाने वाला गिरोह सीमावर्ती रायों महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड और मध्य प्रदेश तक अपना सशक्त नेटवर्क रखता है। पेड़ की कटाई अकेले जंगलों को ही नहीं उजाड़ रही है, वहां की जमीन और जल-सरिताओं पर भी उसका विपरीत असर पड़ रहा है। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती है। बहती हुई मिट्टी नदी-नालों और झरनों को भी उथला करती हैं। बस्तर के नैसर्गिक वातावरण में कई सौ-हजार दुलर्भ जड़ी-बूटियां भी हैं। जैव विविधता से खिलवाड़ आने वाली पीढ़ियों के लिए अपूरणीय क्षति है।
बस्तर में इस समय बीएसएफ की कई टुकड़ियां हैं, सीआपीएफ पहले से है। लेकिन केंद्रीय बल स्थानीय बलों की मदद के बिना असरकारी नहीं होते। जंगलों से नक्सलियों का खौफ कम करने में तो सुरक्षा बल कारगर रहे हैं, लेकिन इसके बाद बेखौफ हो रहे जंगल-माफिया, स्थानीय आदिवासी समाज में वन और पर्यावरण के प्रति घटती जागरूकता तथा शहरी समाज में जैव विविधता के प्रति लापरवाही, नक्सलवाद से भी बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि जंगल की कटाई में स्वयं सुरक्षा बल भी शामिल हैं और जलावन के नाम पर इमारती लकड़ी का बड़ा भंडार सुरक्षा बलों के प्रत्येक कैंप में देखा जा सकता है। जरूरी है कि केंद्रीय बल जनहित के कार्यो की श्रंखला में जंगल-संरक्षण का कार्य भी करें। वहीं सरकार भी जंगलों के भीतर विकास के नाम पर ऐसी परियोजनओं को न थोपे जिससे आदिवासियों के नैसर्गिक जीनव में व्यवधान पैदा हो।
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