बेंगलुरु की बेलंदूर झील सभी शहरों के लिए सबक
यह शायद भारत में ही हुआ, जब एक बड़े से तालाब से पहले लपटें उठीं और फिर घना धुआं। बदबू, धुएं से हैरान-परेशान लोग समझ नहीं पा रहे थे कि यह अजूबा है या प्राकृतिक त्रासदी? दैवीय घटना है या वैज्ञानिक प्रक्रिया? पता चला कि कभी समाज को जीवन देने वाले तालाब के नैसर्गिक ढांचे से की गई छेड़छाड़ और उसमें बेपनाह जहर मिलाने से नाराज तालाब ने ही इन चिनगारियों के जरिये समाज को चेताया है। यह हुआ 16 फरवरी को, बेहतरीन मौसम के लिए मशहूर बेंगलुरु में। इससे पहले 2015 में भी यह झील कई बार सुलग चुकी है।बीती 16 फरवरी की शाम पांच बजे यहां की बेलंदूर झील की सतह से पहले लपटें उठीं और बाद में धुएं की गहरी भूरी-बदबूदार परत ने पूरे इलाके को ढक लिया। इसका असर कई किलोमीटर तक रहा, जिससे लोगों को सांस लेने में परेशानी हुई, यातायात प्रभावित हुआ। हालात सामान्य होने में कई घंटे लग गए। पता चला कि झील के तट को नगर निगम ने कूड़ाघर में तब्दील कर रखा है। उस दिन उसी कूड़ाघर में आग लगा दी गई थी, जिसकी लपटों से झील पर बिछी रसायन की परत ने आग पकड़ ली। दरअसल देश के सबसे खूबसूरत महानगर कहे जाने वाले बेंगलुरु की फिजा अब बदल चुकी है। यहां भीषण गरमी पड़ने लगी है और थोड़ी सी बारिश में जल-प्लावन जैसी स्थिति आ जाती है।
नब्बे साल पहले बेंगलुरु शहर में 2,789 केरे यानी झीलें हुआ करती थीं। सन साठ आते-आते मात्र 230 रह गईं। 1985 में शहर में 34 तालाब थे और अब यह संख्या 30 तक सिमट गई है। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि न केवल इस शहर का मौसम बदला, बल्कि लोग पानी को भी तरस रहे हैं। सेंटर फॉर कंजर्वेसन, एनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट ऐंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट भी दहलाने वाली है। एक अन्य शोध में चेताया गया है कि शहर के अधिकांश तालाबों के पानी की पीएच वैल्यू बहुत ज्यादा है, यानी वे अम्लीय हो चुके हैं।
बिसरा दी गई बेलंदूर झील शहर के दक्षिण-पूर्व में स्थित है और आज भी यहां की सबसे बड़ी झील है। इसमें आग अचानक नहीं लगी। इससे पहले 26 अप्रैल, 2015 को वर्तुर झील में भी कई-कई फुट ऊंचे सफेद झाग के जंगल खडे़ हो गए थे। जानलेवा बदबू और उसके पानी से शरीर पर छाले पड़ने का नजारा घंटों तक देखा गया था। जब हंगामा हुआ, तो जिम्मेदार महकमों ने एक-दूसरे के ऊपर दोषारोपण करके अपना पल्ला झाड़ लिया था। मई में भी पानी से धुआं उठने और चिनगारी जैसी कई घटनाएं सामने आई थीं।
पारिस्थितिकी विज्ञान केंद्र के पर्यावरण वैज्ञानिक प्रोफेसर वी रामचंद्र के नेतृत्व में शोध के बाद जो निष्कर्ष निकला, वह चौंकाने वाला था। पाया गया कि औद्योगिक इकाइयों में बनने वाले डिटर्जेंट में फॉस्फोरस की मौजूदगी होती है, जिससे फैक्टरियों से निष्कासित प्रवाह के जरिये पानी पर फोम का निर्माण होता है, जो आग का कारण बनता है। वर्तुर झील के शोध में निकला कि इन झीलों का पानी सिंचाई और घरेलू उपयोग के अनुकूल तो नहीं ही है, इनसे भू-जल दूषित होने के भी आसार पैदा हो गए हैं। शोध में कई खतरों की ओर इशारा किया गया था। यह तो सामने आ चुका है कि बेलंदूर में आग लगने का कारण इलाके के कारखानों और गैराज से बहे डीजल, पेट्रोल, ग्रीस, डिटर्जेंट और जल-मल हैं और मीथेन की परत के जल के ऊपरी स्तर पर बढ़ जाने से आग लगी।
बेलंदूर तो एक बानगी है। बेंगलुरु शहर में बस डिपो से लेकर स्टेडियम तक और फ्लाई ओवर से लेकर बड़ी कॉलोनियां तक उन जगहों पर बसी हैं, जहां चार दशक पहले तक उफनते तालाब थे। अब शहर में जरा सी बारिश में सड़कें तालाब बन जाती हैं। रहे-बचे तालाब उफनकर अपने में समाई गंदगी-बदबू को बाहर फेंकने लगते हैं। बेलंदूर की घटना बेंगलुरु ही नहीं, तेजी से विकसित हो रहे तमाम शहरों के लिए एक चेतावनी हैं कि यदि अब भी तालाबों के अतिक्रमण व उनमें गंदगी घोलने का काम बंद न किया गया, तो आज दिख रही छोटी सी चिनगारी कभी भी ज्वाला बन सकती है, जिसमें जल-संकट, बीमारियां, पर्यावरण असंतुलन की लपटें होंगी। दुर्भाग्य है कि तमाम चेतावनियों के बावजूद चीजें अभी बदल नहीं रही हैं।
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