My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

Be always prepare for less rain


तैयार रहना होगा अल्प वर्षा के लिए


अभी गरमी का आगाज हुआ ही है और बस्तर, बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा आदि अंचलों में पानी की कमी की खबरें आने लगी हैं। बुंदेलखंड में बीती बारिश तो बढि़या हुई लेकिन कोई बीस दिन पहले यहां आंधी व ओलावृष्टि ने किसान की उम्मीदों को तोड़ दिया। गांव के पटवारी, सरपंच और सयाने लोग उपलब्ध जल, आने वाले दिनों की मांग, भयंकर गरमी का सटीक आकलन रखते हैं, लेकिन सरकारी अमला इंतजार करता है कि जब प्यास व पलायन से हालात भयावह हों, तब कागजी घोड़े दौड़ाए जाएं। है। इन दिनों जगलों में पानी की कमी है, सो कई जगह मांसभक्षी जीव बस्तियों में आ रहे हैं और मारे भी जा रहे हैं। यह इशारा है कि आने वाले दिन कितने जटिल हैं।

अब यह जान लेना चाहिए कि सूखे या पानी की कमी के लिए हमें हर साल मौसम विभाग या पटवारी की गिरदावरी का इंतजार नहीं करना चाहिए। हमने अपने पारंपरिक जल संसाधनों की जो दुर्गति की है, जिस तरह नदियों के साथ खिलवाड़ किया है, खेतों में रासायनिक खाद व दवा के प्रयोग से सिंचाई की जरूरत में इजाफा किया है, इसके साथ ही धरती का बढ़ता तापमान, भौतिक सुखों के लिए पानी की बढ़ती मांग और भी कई कारक हैं, जिनसे पानी की कमी तो होना ही है। ऐसे में सारे साल, पूरे देश में कम पानी से बेहतर जीवन और जल-प्रबंधन, ग्रामीण अंचल में पलायन थामने और वैकल्पिक रोजगार मुहैया करवाने की योजनाएं बनाना अनिवार्य हो गया है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने एक संगठन की जनहित याचिका पर देश में सूखे के हालात पर शासकीय कोताही की धज्जियां उड़ाई थीं। उस समय राज्य अपने यहां सूखे के सही हालात का आकलन तक नहीं कर पा रहे थे, जाहिर था कि जब तक आंकड़े जमा हुए, तब तक बारिश हो गई व लोक समाज अपना पुराना दर्द भूल कर आगे की तैयारी में लग गया। सरकारी अमला यथावत सुप्तावस्था में आ गया। यह बानगी है कि हमारी व्यवस्था किस तरह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने व लाल बस्ते के घोड़े दौड़ाने में ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है।

आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादो में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गरमी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। खतरा यह है कि ऐसे जिलों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ बारिश भी हो और प्रबधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। एक तो यह जान लें कि पानी उलीचने की मशीनों ने पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी की है। जब आंगन में एक कुआं होता था तो इंसान अपनी जरूरत की एक बाल्टी खींचता था और उसी से काम चलाता था। आज एक गिलास पानी के लिए भी हैंड पंप या बिजली संचालित मोटर का बटन दबा कर एक बाल्टी से ज्यादा पानी बेकार कर देता है। दूसरा शहरी नालियों की प्रणाली, और उनका स्थानीय नदियों में मिलना व उस पानी का सीधा समुद्र के खारे पान में घुल जाने के बीच जमीन में पानी की नमी को सहेज कर रखने के साधन कम हो गए हैं। कुएं तो लगभग खत्म हो गए, बावड़ी जैसी संरचनाएं उपेक्षा की खंडहर बन गईं व तालाब गंदा पानी निस्तारण के नाबदान। जरा इस व्यवस्था को भी सुधारना होगा या यों कहें कि इसके लिए अपने अतीत व परंपरा की ओर लौटना होगा। जरा सरकारी घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कंुडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालोंसाल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी का जुगाड़ न तो बारिश से होता है और न ही नदियों से। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं।कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगो को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढि़यों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। आज यह आवश्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करने, वहां राहत के लिए पैसा भेजने जैसी पारंपरिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोक जाए, इसके स्थान पर पूरे देश के संभावित अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोजगार, पशुपालन की नई परियोजनाएं स्थाई रूप से लागू की जाएं, जोकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मान कर सहजता से जूझा जा सके। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास हैं, जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...