गांवों को लीलते शहर
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जनसुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा-सब कुछ बुरी तरह चरमरा गया है। इस महानगर की आबादी सवा करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग यहां बसने आ रहे हैं। यही हाल देश के अन्य सात महानगरों, विभिन्न प्रदेश की राजधानियों और औद्योगिक बस्तियों का है। इसके विपरीत गांवों में ताले लगे घरों की संख्या में इजाफा हो रहा है। खेती और पशुपालन के व्यवसाय पर अब मशीनधारी बाहरी लोगों का कब्जा हो रहा है। गांवों के टूटने और शहरों के बिगड़ने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों का चेहरा विद्रूप हो गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।
शहर भी दिवास्वप्न से ज्यादा नहीं हैं, देश के दीगर 9,735 शहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4,041 को ही सरकारी दस्तावेज में शहर की मान्यता मिली है। शेष 3,894 शहरों में नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़कर बेढ़ब मकान खड़े कर दिए गए हैं, जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर है। शहर को बसाने के लिए आसपास के गांवों की बेशकीमती जमीन को होम किया जाता है। खेत उजड़ने पर किसान शहरों में मजदूरी करने के लिए विवश होता है।
गांवों में ही उच्च या तकनीकी शिक्षा के संस्थान खोलना, स्थानीय उत्पादों के मद्देनजर ग्रामीण अंचलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना, खेती के पारंपरिक बीज, खाद को प्रोत्साहित करना, ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनसे ग्रामीण युवाओं के पलायन को रोका जा सकता है। इसमें पंचायत समितियां अहम भूमिका निभा सकती हैं। इसके लिए सरकार और समाज दोनों को साझा तौर पर आज और अभी चेतना होगा। अन्यथा कुछ ही वर्षों में ये हालात देश की सबसे बड़ी समस्या का कारक बनेंगे-जब शहर बेगार, लाचार और कुंठित लोगों से भरे होंगे, और गांव मानव संसाधन विहीन हो जाएंगे।
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