My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

Crying Ganga

 गंगा अब भी मैली ही

 ’नमामि गंगे’ की जगह अब ’अर्थ गंगा’ पर जोर जबकि स्वच्छ गंगा मिशन भी मान रहा कि नदी के निर्मल होने का सपना अब भी दूर। तीन साल बाद भी जलयान से माल ढुलाई अधर में। क्रूज कितने दिन चल पाएगाकहना मुश्किल

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पंकज चतुर्वेदी




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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर सितंबर, 2022 में कड़ी टिप्पणी करते हुए यह तक कहा कि राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) ’आंखों में धूल झांक रही है’ और ’गंगा को साफ करने के लिए बहुत थोड़ा काम कर रही है।’ उसने यह भी कहा कि एनएमसीजी धन बांटने का उपकरण मात्र है और गंगा नदी को साफ करने को लेकर कोई भी गंभीर नहीं है।  कोर्ट ने कहा कि उत्तर प्रदेश जल निगम राज्य की कार्यदायी संस्था है लेकिन उसने खुद ही माना है कि इस परियोजना की देखरेख के लिए उसके पास योग्य इंजीनियर नहीं हैं। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास गंगा में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई के अधिकार हैं लेकिन वह किसी तरह की कार्रवाई करने में हिचकिचाई हुई लगती है।

भले ही कोर्ट की पिछले साल पहले की सुनवाई में की गई टिप्पणियों को भी मीडिया में उतनी तवज्जो नहीं मिली लेकिन कोर्ट ने कहा बहुत कुछ, ’हम जानते हैं कि नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत गंगा नदी को साफ करने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं लेकिन उनका शायद ही कोई असर हुआ है।’  वैसेयह भी दिलचस्प है कि कोर्ट जिस याचिका की सुनवाई कर रही हैवह पहली बार 2006 में दर्ज की गई थी जिसमें याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि पवित्र मानी जाने वाली नदी के पानी की गुणवत्ता बहुत खराब है और इसमें प्रदूषण भरा पड़ा है। कोर्ट इस पर लगातार सुनवाई कर रही है और पिछले साल ही इसने कम-से-कम चार तिथियों पर सुनवाई की हैहालात कुछ भी बदले हुए लगते तो नहीं।

वैसे भीपिछले दिनोंकोई तीन साल बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संपन्न हुई नमामि गंगे परियोजना की समीक्षा बैठक में भी ये बातें ही सामने आईं कि जितना धन और लगन इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए समर्पित की गईउसके अपेक्षित परिणाम नहीं आए। केन्द्र ने वित्तीय वर्ष 2014-15 से 31 अक्तूबर, 2022 तक इस परियोजना को कुल 13,709,72 करोड़ रुपये जारी किए और इसमें से 13,046,81 करोड़ रुपये खर्च हुए। इनमें से सबसे ज्यादा पैसा- 4,205,41 करोड़ रुपये उत्तर प्रदेश को दिए गए क्योंकि गंगा की 2,525 किलोमीटर लंबाई का लगभग 1,100 किलोमीटर इसी राज्य में है। इतना धन खर्च होने के बावजूद गंगा में गंदे पानी के सीवर मिलने को रोका नहीं जा सका है और यही इसकी असफलता का बड़ा कारण है ।

2014 के बाद से लगभग 30,000 करोड़ रुपये सीवरेज के निर्माण और उसकी बेहतरी के काम करनेसीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगाने तथा नदी के कायाकल्प की गतिविधियां चलाने के लिए आवंटित किए गए। स्वच्छ गंगा मिशन के पिछले साल के नवीनतम आकलनों से संकेत मिलता है कि ’इस परियोजना के अंतर्गत आवंटित 408 परियोजनाओं में से 228 पूरी हो गई हैं जबकि 132 पर ’काम चल रहा है।’ लेकिन कुछ खबरें ऐसी भी हैं कि हालांकि आवंटित तो किए गए 30 हजार करोड़ लेकिन सिर्फ 20 हजार करोड़ रुपये जारी किए गए और अक्तूबर, 2022 तक इनमें से भी 13 हजार करोड़ रुपये ही खर्च किए गए।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और यूपी में कार्यदायी संस्था- उत्तर प्रदेश जल निगम द्वारा कोर्ट में पेश रिपोर्टों में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं भी बताई गई हैं।  सरकारी एजेंसियों के काम योजनाओं की स्वीकृति और राशि आवंटित करने तक सीमित हो गए हैं जबकि निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में किसी पूर्व अनुभव के बिना भी काम करने का दायित्व सौंप दिया गया है। सरकारी एजेंसियां कामों की निगरानी नहीं कर रहीं क्योंकि समय-समय पर शिकायतें मिलने के बावजूद एजेंसियां संबंधित कंपनियों को दंडित नहीं कर रही हैं।

कोर्ट ने पाया कि कुछ एसटीपी का कामकाज निजी कंपनियां संभाल रही हैं लेकिन उन्हें इनके ठेके इस तरह की शर्त के तहत भी दे दिए गए हैं कि अगर बिना शोधन ही प्रदूषित जल नदी में डाल दिया जाता हैतब भी उनको उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा। इनमें कहा गया है कि ये निजी कंपनियां अपनी पूरी क्षमता के साथ एसटीपी चलाएंगी लेकिन ’उनकी क्षमता से बाहर’ एसटीपी अगर प्रदूषित जल का प्रवाह कर देती हैतो वे उत्तरदायी नहीं होंगी। इसके लिए उन्हें दंडित करने का कोई प्रवधान ही नहीं है। ऐसी शर्तों-नियमों पर आश्चर्य और निराशा व्यक्त करते हुए कोर्ट ने कहा भी कि ऐसी हालत में उसे आश्चर्य नहीं है कि नदी सब दिन प्रदूषित ही रहेगी।

नदी के विभिन्न स्थलों के निरीक्षण के बाद यूपी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डकेन्द्र सरकार और एमिकस क्यूरी आदि के प्रतिनिधियों वाली समिति ने फरवरी, 2021 में यह भी सूचना दी थी कि बड़ी मात्रा में बिना शोधन जल नदी में अब भी प्रवाहित हो रहा है और बड़ी मात्रा में सरकारी धन बर्बाद कर दिया गया है। कोर्ट ने तब इन शिकायतों का भी संज्ञान लिया था कि निजी ऑपरटर काफी दिनों तक एसटीपी को बंद रखते हैं ताकि इस पर होने वाले खर्च को बचाया जा सके जिससे जल बिना शोधन ही नदी में जाता रहता है।

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गंगा में जल प्रदूषण में सुधार की नमामि गंगे योजना के इस हिस्से का तो यह हाल है ही, ’अर्थ गंगा’मतलब गंगा से कमाई की योजना अलग से शुरू कर दी गई है। इसका उद्देश्य गंगा में पर्यटनआर्थिक आय बढ़ाना आदि है। इसमें गंगा नदी के इर्द-गिर्द टूरिज्म सर्किट को विकसित करने के साथ-साथ यहां ऑर्गेनिक खेती तथा सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ाना है। अर्थ गंगा के छह हिस्से हैं। पहला नदी के दोनों ओर के हिस्से में 10 किलोमीटर तक रसायन-मुक्त खेती-बाड़ी और गोवर्धन योजना के तहत ’खाद के तौर पर गोबर के अधिकाधिक उपयोग को प्रोत्साहन’ है। दूसरा है सिंचाईउद्योग आदि के लिए बेकार पानी और गाद का पुनःउपयोग करना। स्थानीय उत्पादजड़ी-बूटीऔषधीय पौधों और आयुर्वेदिक आषधियों की बिक्री के लिए नदी तटों पर हाट-बाजार बनाना तीसरा लक्ष्य है। इस योजना के अन्य हिस्सों में नदी की सांस्कृतिक विरासत और पर्यटन संभावनाओंएडवेंचर स्पोर्ट्सलोगों की अधिक-से-अधिक भागीदारी आदि है।

हालांकि कहा नहीं गया लेकिन आम तौर पर यही माना गया कि प्रधानमंत्री ने इसी योजना के तहत पिछले महीने ’दुनिया के सबसे लंबे नदी क्रूज’ को वाराणसी में हरी झंडी दिखाई। वैसेमीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि यह क्रूज किसी निजी कंपनी का है। यह सूचना नहीं मिली है कि सरकार से इस कंपनी को कोई अनुदान या कोई अन्य मदद मिली है या नहीं।

लेकिन नदी जिस हाल में है और तब भी बिना तैयारी इसे जिस तरह चलाया गया हैवह जरूर देखने की बात है। थोड़ी-सी बरसात में उफन जाना और  बरसात थमते ही तलहटी दिखने लगना- गोबर पट्टी कहलाने वाले मैदानी भारत की स्थायी त्रासदी बन गया है। यहां बाढ़ और सुखाड़ एकसाथ डेरा जमाते हैं। असल मेंनदियों की जल ग्रहण क्षमता लगातार कम हो रही है और इसकी वजह है बढ़ रहा मलवा और गाद। गाद हर नदी का स्वाभाविक उत्पाद है। जैसे ही यह नदी के बीच जमती है तो नदी का प्रवाह बदल जाता है। इससे नदी कई धाराओं में बंटे जाती हैकिनारें कटते हैं और यदि गाद किनारे से बाहर नहीं फैलीतो नदी के मैदान का उपजाऊपन और ऊंचाई- दोनों घटने लग जाते हैं। 12 जुलाई, 2022  को सी-गंगायानी सेंटर फॉर गंगा रिवर बेसिन मैनेजमेंट एंड स्टडीज ने जल शक्ति मंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में बताया है कि यूपीबिहारउत्तराखंड और झारखंड की 65 नदियां बढ़ते गाद से हांफ रही हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ऐसी 36 नदियां हैं जिनमें इतनी गाद है कि उनकी गति मंथर हो गई हैकुछ ने अपना मार्ग बदल लिया हैउनके पाट संकरे हो गए हैं। रही-सही कसर अंधाधुंध बालू उत्खनन ने पूरी कर दी है।

उत्तर प्रदेश में कानपुर से बिठूर तकउन्नाव से बिहार के बक्सर तक गंगा की धार बारिश के बाद घाटों से दूर हो जाती है। वाराणसीमिर्जापुर और बलिया में गंगा नदी के बीच टापू बन जाते हैं। बनारस के पक्के घाट अंदर से मिट्टी खिसकने से दरकने लगे हैं। गाजीपुरमिर्जापुरचंदौली में नदी का  प्रवाह कई छोटी-छोटी धाराओं में बंट जाता है। प्रयागराज के फाफामऊदारागंजसंगमछतनाग और लीलापुर के पास टापू बन जाते हैं। पिछले कई साल से संगम के आसपास गंगा नदी में चार मिलीमीटर की दर से हर साल गाद जमा हो रहा है। यह गाद प्राकृतिक कारणों से तो जमा हो ही रहाबड़ी वजह आसपास की आबादी भी है।

सन 2016 में केन्द्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढ़ती गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि नदी के पानी को फैलने और गाद को बहने का पर्याप्त स्थान मिले तथा अत्यधिक गाद वाली नदियों से नियमित गाद निकालने का काम हो। ये सिफारिशें ठंडे बस्ते में बंद हो गई और अब नदियों पर रिवर फ्रंट बनाए जा रहे हैं जिससे न केवल नदी की चौड़ाई कम होती है बल्कि जल विस्तार को सीमेंट-कंक्रीट से रोक भी देते हैं। थोड़ी-सी बरसात में भी बाढ़ आ जाने की एक वजह यह भी है।

दरअसलविकास के नाम पर नदियों के कछार में धड़ाधड़ निर्माण होते गए जबकि कछार बरसात में नदी के दोनों किनारों पर पानी को फैलने की जगह देते हैं। बरसात के अलावा अन्य दिनों में वहां की नर्म और नम भूमि पर मौसमी फसल-सब्जी लगाए जाते थे। कछार के रखवाले बरसात के बाद कछार में जमा गाद को आसपास के किसानों को खेत में डालने के लिए देते थे क्योंकि वह शानदार खाद हुआ करती है। अब उस पर अधिक-से-अधिक निर्माण हो रहे हैंतो यह सब खत्म हो गया है।

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यह हाल हैतब भी क्रूज को वाराणसी से बांग्लादेश होकर डिब्रूगढ़ तक के लिए 15 जनवरी को रवाना कर दिया गया। बताया गया कि इसमें 36 पर्यटकों के सवार होने की सुविधाएं हैं। 1 फरवरी को ’गंगा विलास’ नामक यह क्रूज बांग्लादेश पहुंच चुका था। आरंभिक खबरों में बताया गया था कि यह पांच महीने की यात्रा होगी और पूरे पैकेज के लिए हर पर्यटक को 2 लाख रुपये देने होंगे। यह भी दावा किया गया कि अगले दो साल तक के लिए क्रूज की बुकिंग हो चुकी है।

क्रूज में सवार पर्यटकों और कर्मचारियों के अलावा किसी को भी अंदर जाने की इजाजत नहीं है। बिहार में जगह-जगह घाट से 800-1000 मीटर दूर लंगर डालने के बाद इस पर सवार सभी सैलानियों को जहाजों से तटों तक लाया गया और घुमा-फिरा कर वापस इन्हीं जहाजों के जरिये क्रूज तक पहुंचा दिया गया। 16 जनवरी को सारण जिले के डोरीगंज के पास पानी कम और गाद ज्यादा होने के कारण क्रूज घाट से करीब 800 मीटर पहले गंगा में थम गया। वहां केन्द्र सरकार के अफसरों ने ही बताया कि गाद के कारण डोरीगंज में क्रूज तट तक नहीं लगा। गाद क्यों है और गंगा का यह हाल किसकी वजह से हैइस पर तो किसी को जवाब देना भी नहीं था। बिहार में सैलानियों का जगह-जगह पारंपरिक ढंग से सत्कार हुआढोल-बाजे के बीच पुष्पवर्षा हुई लेकिन राज्य सरकार के अधिकारी कमोबेश नहीं ही दिखे। हांकई जगह भाजपा नेता जरूर नजर आए।

पटना पहुंचने के बाद से ही क्रूज को बिहार से निकालने की जल्दबाजी भी दिख रही थी। पहले तो पटना में सिर्फ पटना साहिब घुमाकर सैलानियों को आगे बढ़ा दिया गया। क्रूज को बेगूसराय के सिमरिया में रुकना था लेकिन सुरक्षा कारणों का हवाला देकर उसे यहां नहीं रोका गया जबकि केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के इस संसदीय क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इसके यहां रोकने का प्रचार खूब हुआ था। क्रूज के नहीं रुकने पर भाजपा समर्थकों ने यहां नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ नारेबाजी की औपचारिकता भी की। मुंगेर में निर्धारित समय से दो दिन पहले क्रूज पहुंच गया। पूरी यात्रा के दौरान एक बात साफ-साफ नजर आई कि किसी भी जगह बिहार सरकार के प्रतिनिधि के रूप में किसी राजनेता ने स्वागत नहीं किया। यही हाल बंगाल में भी रहा।

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क्रूज की सफलता-विफलता को लेकर उचित आकलन में थोड़ा समय है लेकिन भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) की वाराणसी-हल्दिया के बीच जलयान से माल ढुलाई की तमाम कोशिशों में तो अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। इसके लिए आईडब्ल्यूएआई ने बनारस के रामनगर में गंगा के किनारे बंदरगाह का निर्माण कराया है और इसे विकसित करने के नाम पर अब भी खूब पैसे खर्च हो रहे हैं। इसके नाम पर जमीनों के अधिग्रहण का दायरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। शुरुआत में इस परियोजना के लिए 70 एकड़ जमीन की जरूरत बताई गई थी जिसमें करीब 38 एकड़ में बंदरगाहजेटीप्रशासनिक भवनबिजली घर सहित सड़क मार्ग का निर्माण कराया जा चुका है। दूसरे चरण में दो गांवों की करीब 121 बीघा जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। अफसरों का कहना है कि दूसरे चरण में किए जा रहे जमीन का अधिग्रहण का मकसद कार्गो पार्किंगइलेक्ट्रिक सिटी स्टेशनपावर हाउसरेलवे ट्रैकटीनशेडटर्मिनल आदि का निर्माण है। यह बात दूसरी है कि बनारस और मिर्जापुर की सीमा पर बसे चंदौली के ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसान जमीन अधिग्रहण में मुआवजा को लेकर सवाल खड़े कर रह रहे हैं।

बनारस के रामनगर के समीपवर्ती गांव राल्हूपुर में आईडब्ल्यूएआई के बंदरगाह का उद्घाटन 12 नवंबर, 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। उस समय दावा किया गया था कि इसके जरिये सस्ती दरों पर माल की ढुलाई हो सकेगी। आईडब्ल्यूएआई के अफसरों का कहना है कि सड़क परिवहन की औसत लागत 1.50 रुपये प्रति टन प्रति किलोमीटर और इतनी दूरी तक रेलवे के लिए एक रुपये प्रति टन है जबकि जलमार्ग से प्रति टन माल की ढुलाई कराने पर खर्च महज 25 से 30 पैसे प्रति किलोमीटर आएगा।

रामनगर स्थित लाल बहादुर शास्त्री बंदरगाह के उद्घाटन से पहले अक्तूबर, 2018 में 1,622 किलोमीटर लंबे वाटर-वे से गंगा के जरिये वाराणसी से कोलकाता के हल्दिया के बीच माल ढुलाई हुई थी। उस समय पेप्सिको के माल से भरे 16 कंटेनर के साथ मालवाहक जहाज एमवी आरएन टैगोर कोलकाता से वाराणसी पहुंचा था। वापसी में यही जहाज इलाहाबाद से इफको का उर्वरक लेकर लौटा था। तबसे लेकर अब तक करीब 100 कंटेनर माल का आवागमन हो चुका है। 20 फरवरी, 2021 को 40 टन धान की भूसी लेकर एक जलपोत वाराणसी से कोलकाता पहुंचा। एग्रो कंपनी के अधिष्ठाता उद्यमी का कहना है धान की भूसी को जल मार्ग से कोलकाता भेजने में 2.70 रुपये प्रति किलो के हिसाब से भाड़े का भुगतान करना पड़ा है जबकि दावा किया गया था कि खर्च 25 से 30 पैसे ही आएंगे।

इन्हीं सब वजहों से उत्तर प्रदेश उद्योग व्यापार प्रतिनिधिमंडल के वाराणसी जोन के अध्यक्ष विजय कहते हैं कि ’वाटरवे-1 योजना सिर्फ मजाक है। रामनगर बंदरगाह तक उद्यमियों के लिए कोई सुविधा नहीं है। भाड़े पर सब्सिडी भी नहीं दी जा रही है।’ गंगा की पारिस्थितिकी के जानकार डॉ. अवधेश दीक्षित कहते हैं कि ’बंदरगाह पर 206 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैंमगर इस प्रोजेक्ट में कमी का सबसे बड़ा कारण  गंगा का गलत सर्वेक्षण है। गंगा में जलपोत चलाने पर हर साल अरबों रुपये ड्रेजिंग पर खर्च करना पड़ेगा। जलपोत चलाने के लिए गर्मी के दिनों में गंगा नदी में तीन मीटर तक गहराई को मेंटन कर पाना कठिन है। 15 जनवरी के बाद गंगा की स्थिति खराब होने लगती है।’ एक अधिकारी ने अनौपचारिक तौर पर कहा कि हमने जलमार्ग तैयार कर दिया है। अगर कोई कारोबारी अपना माल जलमार्ग से लाने के लिए तैयार नहीं है तो इसके लिए आईडब्ल्यूएआई क्या कर सकता है?

मतलबसारा दोष व्यवसायियों का हैसरकार तो मासूम है!

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साथ में वाराणसी से अरुण मिश्रा और पटना से शिशिर

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