कोताही से कहर बनता कोरोना
पंकज चतुर्वेदी
ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, कोरोना वायरस के रंग हर दिन बदल रहे हैं। कई बार लगता है कि सारी दुनिया में सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक व्यवस्थ को तहस-नहस करने वाले इस वायरस की नब्ज पकड़ में आई है, अगले ही पल इसे बदलते स्वरूप, इसकी मार के परिवर्तित कुप्रभाव और इससे निबटने के सलीकों के असफल होने की निराशा के घनघोर बादल और घने हो जाते हैं। इसकी वैक्सीन की आस अभी कुछ महीनों तक तो नहीं दिख रही। 17 सितंबर को जब आंकड़ों का विश्लेशण किया गया तो पता चला कि कोरोना वायरस से फैलने वाले रोग कोविड-19 की गति दस दिन में तीन गुना तक हो गई है। अब कई चर्चित चैहरे व राजनेता इसकी गिरफ्त में आ रहे है। कम से कम दस विधायक या सांसद इसके शिकार हो कर काल के गाल में समा चुके हैं। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे चुनौतियां दूभर हो रही हैं, वैसे-वैसे आम लोगों की लापरवाही कोरोनो को फलने-फूलने का अवसर दे रही हैं।
राजधानी दिल्ली, जहां कोरोना की मार सबसे तगड़ी है, जहां कई लोगों को एक बार ठीक होने के बाद फिर से इसने जकड़ लिया, वहां दिलशाद गार्डन, जाफराबाद, रोहिणी या मेहरोली, कोई भी इलाके में तीन सवारियों के लिए अधिकृत तिपहिया स्क्ूटर में आठ से दस लोगों की सवारी, बगैर मास्क के ठुंसे हुए लोग देखने को मिल जाएंगे। हर बार सवारी के उतरने-चढ़ने पर सेनीटाइजर से सीट को साफ करने की सरकार के दिशा-निर्देश तो कही दिखते ही नहीं। सार्वजनिक बसों के पीछे भागते लोग, बाहर तक लटकी सवारियों के साथ ग्रामीण सेवा, यह दृश्य पूरे दिल्ली एनसीआर में आम हैं। सनद रहे दो महीने पहले लागू हुए नए परिवहन कानून में क्षमता से अधिक सवारी बैठाने पर बहुत अधिक जुर्माना राशि है, लेकिन ना किसी को जान की परवाह है न ही जुर्माना की। यदि एक लाख से कम आबादी वाले कस्बे में जाएं तो पूरे देश में एक से हालात हैं- ना मास्क है, ना षारीरिक दूरी और ना ही बार-बार हाथ धोने की अनिवार्यता। जाहिर है कि इस तरह की अव्यवस्था, समाज और सरकार दोनो के सहकार से ही संभव होती है।
यह बात सच है कि हमोर देश में अभी तक सात करोड़ से ज्यादा लोगों के टेस्ट हो चके है। और अधिक टेस्ट का ही परिणाम है कि मरीजों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन यह जान लें कि टेस्ट व जागरूकता अभी महानगर या राजधानी में अधिक हैं। तभी एकबारगी लगता है कि दिल्ली-मुंबई महानगरों में इसका चरम हो गया व अब यहां खतरा ज्यादा नहीं है। मध्यम व छोटे कस्बों तक जब यह परीक्षण पहुंचेगा तब वहां कोरोना का कहर चरम पर होगा। यह भी समझना होगा कि जो लोग मार्च-अप्रेल में तालाबंदी से उपजे बेराजगारी व भूख के हालात से उम्मीदों के साथ अपने गांव - कस्बे गए थे, अब उनका ‘‘अतिथि-काल’’ समाप्त हो गया है व उनके सामने फिर से रोजगार का संकट मुंह बाए खड़ा है। उनमें से अधिकशं लेाग फिर से अपने पुराने काम-धंधे वाले महानगरों की तरफ लौट रहे हैं। ऐसे में इस बासत की बड़ी संभावना है कि अभी तक लापरवाही के साथ जीवन जी रहे ये गांव-कस्बे के लोग महानगरों तक कोरोना का संक्रमण फिर से ले कर आ जाएं। अर्थात एक तरफ जब गांवों तक कोरोना की तगड़ी मार होगी, ठीक तभी बड़े षहरों में भी संक्रमितों की संख्या में इजाफा होगा। मार्च की भरी गरमी में षुरू हुए कोरोना वायरस के संक्रमण से सारी दुनिया के सामाजिक-आर्थिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न करने वाले रोग कोविड ने घनघोर बरसात भी देख ली और अब अपने हर दिन बदलते स्वरूप के साथ यह ठंड में प्रवेश कर रहा है। ठंड में बड़े षहर वाहन व औद्योगिक प्रदूशण के चलते वैसे ही सांस की बीमारियों का घर बन जाते हैं। ऐसे में नोबल-कोरोना वायरस के प्रसार को गति मिलना संभव है।
कोरोना ने देश को एक बात की चेतावनी दे दी कि स्वास्थ्य सेवाएं भी राश्ट्रीय सुरक्षा का मसला है। कोरोना ने यह भी बता दिया कि हर इंसान को पर्याप्त मात्रा में साफ पानी लिम, यह भी देश की सुरक्षा के लिए उतना ही जरूरी है जितना फौज के लिए गोला-बारूद की आपूर्ति। जब तक कोई माकूल इलाज या वैक्सीन नहीं मिलती, तब तक देश को इस संक्रमण से बचाने का एकमात्र उपाय व्यक्तिगत स्वच्छता और उसमें भी बार-बार साबुन से हाथ धोना है। कोरोना से जूझते समय चिकित्सा तंत्र के अलावा दूसरी सबसे बड़ी चुनौती इस संग्राम के लिए अनिवार्य साफ पानी की बेहद कमीऔर उसका लाचार सा प्रबंधन।
सनद रहे बीस सैकंड हाथ धोने के लिए कम से कम दो लीटर पानी की जरूरत होती है। इस तरह पांच लोगों को परिवार को यदि दिन में पांच से सात बार हाथ धोना पड़े तो उसका पचास लीटर पानी इसी मद में चाहिए, जबकि देश में औसतन 40 लीटर पानी प्रति व्यक्ति बामुश्किल मिल पा रहा है। नेशनल सैंपल सर्वे आफिस(एनएसएसओ) की ताजा 76वीं रिपोर्ट बताती है कि देश में 82 करोड़ लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक पानी मिल नहीं पा रहा है। देश के महज 21.4 फीसदी लोगों को ही घर तक सुरक्षित जल उपलब्ध है। 78 फीसदी ग्रामीण और 59 प्रतिशत षहरी घरों तक स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हैं। आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है।
यह बेहद कडव़ी सच्चाई है कि कोविड-19 का इलाज दुनिया में किसी के पास नहीं हैं। जो लोग ठीक भी हुए हैं वे वायरस के प्रभाव के प्रारंभिक असर में थे। यहां तक कि एचआईवी, टीबी, मलेरिया आदि की दवाएं भी इस वायरस के विरूद्ध प्रभावी नहीं रही हैं। प्लाज्मा थैरेपी की सफलता की संदिग्धता अब सरकारी एजेंसी भी मान रही हैं। ऐसे में केवल सतर्कता, लापरवाहों पर कड़ाई और बेवजह सार्वजनिक स्थानों पर लोगों को आने से रोकना, गरीब लोगो के लिए रोजगार की व्यवस्था, व्यापार-उद्योग को नए सलीके से संचालन को अपनी जीवन षैली में स्थाई रूप से जोड़ना होगा। जान लें वैक्सीन की खोज होने के बाद सवा अरब से अधिक आबादी वाले देश में उसके आम लोगों को तक पहुंचने में भी सालों लगेंगे।
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