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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

Camera-court can not able to deliver justice to mass

 वर्चुअल कोर्ट से न्याय की अधूरी आस

                                                                                                                        पंकज चतुर्वेदी



 लोकतंत्र के दो प्रमुख स्तंभ - कार्यपालिका व विधायिका अब ठीक गति से काम करने लगी हैं। सरकारी आफिस खुल ही रहे हैं और संसद व कई राज्यों की विधानसभाएं भी काम कर रही हैं। लेकिन तीसरे स्तंभ न्यायपालिका के कार्य करने की गति इतनी मंथर है कि हर दिन एकत्र हो रहें लंबित मामले, अदालतों में रिक्त पड़े न्याय अधिकारियों के पदों को देखते हुए साफ लगा रहा है कि न्याय के मामले में हम कई दशक पीछे खिसक रहे है। कोरोना संकट के कारण बंद हुई अदालतों ने आम लोगांे ही नहीं, बल्कि न्याय के लिए सहयोगी अधिवक्तओं के लिए भी कई संकट खड़े कर दिए हैं। कहने को अदालतें कैमरों पर चल रही है। लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि इस तरह की अदालतें केवल अत्यधिक आवश्यक प्रकरणों पर ही ध्यसान दे पा रही हैं, दूसरा देश के अधिकांश वकील इस उच्च तकनीक से  अभ्यस्त भी नहीं है और हमारा सिस्टम अभी इतने ताकतवर इंटरनेट कनेक्शन व कैमरों से लैस नहीं है कि समूची कार्यवाही सहजतासे हो। यह दुर्भायपूर्ण सच है कि कौरोना काल में अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या में इजाफा हुआ है, साथ ही न्यायिक अभिरक्षा या विचाराधीन कैदियों की संख्या अब असहनीय हो गई है। दूसरी तरफ देश के हजारों वकील, उनके स्टाफ के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है वहीं, कैमरे वाली अदालतों में षामिल हो रहे वकीलों की फस भी बढ़ गई है। यह डराने वाला आंकड़ा है कि आज जितने मामले लंबित हैं और इसी गति से मुकदमों का निबटान होता रहा तो सभी को न्याय मिलने के लिए 340 साल चाहिए। लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था तीसरा स्तंभ है और उसकी ऐसी जर्जर हालत पूरे तंत्र को कमजोर कर रही 



 पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.ए बोबडे भी कोरोना के चलते लंबित मामलों की बाढ़ के प्रति चिंता जताते हुए अधिक संे अधिक मध्यस्थता पर जोर दे चुके हैं। यदि विधि मंत्रालय के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो इस समय देश के सभी अदालतों में लगभग 3.38 करोड़ मामले लंबित हैं । यह संख्या इस साल अप्रैल में 3.21 करोड़ थी । जाहिर है कि तीन महीने में लंबित मामलों में इजाफा 17 लाख हुआ है। वहीं जेल में कैदियों की संख्या कुल क्षमता के 117 फीसदी हो गई है। हमारे यहां आबादी की तुलना में न्यायाधीशों का अनुपात प्रति 10 लाख पर 17.86 न्यायाधीशों का है। मिजोरम में यह अनुपात सर्वाधिक है। वहां प्रति 10 लाख पर 57.74 न्यायाधीश हैं। दिल्ली में यह अनुपात 47.33 है और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रति 10 लाख आबादी पर मात्र 10.54 न्यायाधीश हैं। पश्चिम बंगाल में न्यायाधीशों का यह अनुपात सबसे कम है। वहां प्रति 10 लाख की आबादी पर सिर्फ 10.45 न्यायाधीश हैं। कोई भी जज हर साल 2600 से ज्यादा मुकदमों का निबटारा नहीं कर पाता , जबकि नए दर्ज मालों की संख्या इससे कहीं अधिक होती है। दरअसल, ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या संसद द्वारा कानून बनाकर ही बढ़ाई जा सकती है। विडंबना तो यह है कि काम के बोझ को देखते हुए नई नियुक्तियां तो हो नहीं रहीं, हां कुल स्वीकृत पदों पर भी जज आसीन नहीं है। 

आज कैमरों पर चल रही अदालतें  जमीन, निर्माण, पारिवारिक वाद और छोटे-मोटे मुकदमों में गवाही या फैसलों को टाल रहे हैं। जहां आम अदालतों मे हर दिन 60 से 70 केस सुने जाते थे, अजा दिल्ली जैसे महानगर में इनकी संख्या 10 से 12 रह गई है। निश्चित ही इससे लंबित मामलों की संख हर दिन बढ़ रही है और बंदियों की संख्या से भी जेल परेशान हैं। यह विडंबना है कि देश का बहुत बड़ा तबका थोडे़ से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से कर ही नहीं पाता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। वर्चुअल अदालत के दौर में देश के अस्सी फसदी वकील भी अदालत में खड़े नहीं हो पा रहे हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। 



वैसे भी हमारे न्याय-तंत्र में पुलिस और प्रभावशाली लोग न्यायिक प्रक्रिया को और भी ज्यादा दूरूह बना रहे हैं क्योंकि प्रभावशाली लोग पुलिस को अपने इशारों पर नचाते हैं और उन लोगों को डराने धमकाने और चुप कराने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं जो अत्याचारी और शोषणपूर्ण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरफ कैमरों पर न्याय प्रक्रिया जटिल है तो दूसरी ओर वकील या अदालतों पर कोई जिम्मेदारी या समयबद्धता का दवाब नहीं है। एक पेशी चूकने से उनके मुवक्किल की न्याय से दूरी कई साल की बढ़ जाती है। 



 हाल ही में दिल्ली दंगो के आरोप में गिरफ्तार उमर खलिद के वकील को जाच एजंसी ने बाकायदा मोबाईल पर संदेश भेज कर सूचित किया कि उनके मुवक्किल को अदालत में पेश किया जाएगा। जब वकील साहब कोई 30 किलोमीटर गाड़ी चला कर कोर्ट पहुंचे तो कह दिया कि अब वीडियो से पेशी होगी। अब वकील साहब के पास अदालत परिसर से सुनवाई के लिए अपने मोबाईल का सहारा रह गया और सभी जानते हैं कि दिल्ली में डाटा की स्पीड, कॉल ड्रापआउट की तरह हैं। यह बानगी है कि राजधानी दिल्ली में हाई प्रोफाईल केसों में वर्चुअल कोर्ट के नाम पर वकील व  अभियुक्त देानेंा निराश हैं। इस समय अदालतों का नियमित खुलना बेहद जरूरी है क्योंकि विचाराधीन कैदियों की जमानत या जमीन-जायदाद के मुकदमें जो आगे चल कर कानून-व्यवस्था को चुनौती बनते है।, पर नियमित सुनवाई अनिवार्य है। अदालतों में भीड़ नियंत्रित करने के कई तरीके हैं। मुजरिमों को कैमरे से जज के सामने पेश कर दिया जाए, मुजरिम की पैरवी वाले की संख्या एक ही रखी जाए, टाईपिंग, स्टांप वैंडर को रोस्टर के अनुसार एक दिन छोड़ कर एक दिन बुलाया जाए, वकेवल मुकदमें वाले वकीलों को ही अदालत आने दिया जाए- ऐसे कई एक उपाय हैं जिनके साथ अदालतो ंपर बढ़ रहे मुकदमों के बोझ को कम किया जा सकता है । साथ ही न्याय की आस में बैठे लोगों का इस प्रणाली पर भरोंसा भी जीवित रखा जा सकता है। 



क्या यह वक्त नही आ गया है कि लिखे कानून के बनिस्पत सुधार के लिए जरूरी कदमों या अपराध-निवारण को अपनाया जाए ?आज की न्यायीक व्यवस्था बेहद महंगी, डरावनी, लंबी खिंचने वाली है। गरीब लोग तो अदालतों की प्रक्रिया में सहभागी ही नहीं हो पाते हैं। उनके लिए न्याय की आस बेमानी है। साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, सात साल से कम सजा वाले मामालों में सयब़ नीति बनाना, अदालतों में बगैर वकील की प्रक्रिया को प्रेरित करना, कोरोना जैसे हालत में तारीख आगे बढ़ाने की हर मुकदमें को समयबद्ध मान कर सुनवाई करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विश्वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। 

पंकज चतुर्वेदी






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