बौद्धिक स्तर पर निबटने की जरूरत
दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे स्वतंत्र पत्रकार को गिरफ्तार किया है, जो चीन सरकार के आधिकारिक अखबार 'ग्लोबल टाइम्स' के लिए लेखन करते थे, भारत में सरकार से अधिमान्यता प्राप्त थे, लंबे समय तक विवेकानंद फाउंडेशन से भी जुड़े रहे. पुलिस की मानें तो, देश की सुरक्षा और सेना से जुड़ी जानकारी साझा करने के लिए एक चीनी महिला की फर्जी कंपनी के माध्यम से उन्हें लाखों रुपये मिल रहे थे.
भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर महीनों से चल रहे विवाद का हमारी सेना ने अपने शौर्य और साहस से मुंहतोड़ जवाब दिया है, लेकिन चीन के साथ समस्या केवल सामरिक, व्यापारिक या डिजिटल नहीं है. चीन दुनियाभर में बौद्धिक स्तर पर ऐसा जाल फैला चुका है, जो कई स्तर पर उसकी सहायता करते है़ं
नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी, गुओयानहुआ के एक चीनी प्रोफेसर ने साइकोलॉजिकल वारफेयर नॉलेज नामक अपनी पुस्तक में लिखा है, 'जब कोई दुश्मन को हराता है, तो यह महज दुश्मन को मारना या जमीन के एक टुकड़े को जीतना नहीं होता है, बल्कि मुख्य रूप से दुश्मन के दिल में हार का भाव स्थापित करना होता है़' युद्ध के मैदान के बाहर प्रतिद्वंद्वी के मनोबल को कम करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना युद्ध के मैदान में.
जब से शी जिनपिंग ने चीन पर पूरी तरह नियंत्रण किया है, तब से वह न केवल अपने देश में बल्कि अन्य देशों में भी मीडिया को नियंत्रित करने पर बहुत काम कर रहे हैं. सभी जानते हैं कि चीन में अखबार, टीवी, सोशल मीडिया से लेकर सर्च इंजन तक सरकार के नियंत्रण में है. वहां का प्रकाशन उद्योग भी सरकार के कब्जे में है. हर वर्ष जुलाई के अंतिम सप्ताह में लगने वाला पेइचिंग पुस्तक मेला दुनियाभर के बड़े प्रकाशकों को आकर्षित करता है. वहां चीन के फॉरेन पब्लिशिंग डिपार्टमेंट का असली उद्देश्य अपने यहां की पुस्तकों के अधिक से अधिक राइट्स बेचना होता है.
बीते दस वर्षों में अकेले दिल्ली में चीन से प्राप्त अनुदान के आधार पर सैकड़ा भर चीनी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद हुआ. भारत-चीन के विदेशी विभाग भी ऐसी ही अनुवाद परियोजना पर काम कर रहे हैं. दिल्ली के कई निजी प्रकाशक चीनी पुस्तकों के अनुवाद छापकर मालामाल हो रहे हैं. इस तरह चीन दुनियाभर के जनमत निर्माताओं, पत्रकारों, विश्लेषकों, राजनेताओं, मीडिया हाउसों और लेखकों-अनुवादकों का समूह बनाने में भारी निवेश कर रहा है, जो अपने-अपने देशों में चीनी हित को बढ़ावा देने के लिए प्रयत्नशील और इच्छुक हैं.
इसके पीछे असली एजेंडा शांति और युद्ध के समय चीन की भव्यता, ताकत, क्षमता को दूसरे देशों में प्रसारित करना है. ऑस्ट्रेलिया से संचालित होनेवाली कई चीनी कंपनियां, भारत जैसे देशों में होनेवाले एकेडमिक सेमिनारों में अपने प्रतिनिधि भेजती हैं, जो सेमिनार में पढ़े गये शोध पत्रों को हासिल करते हैं और चुपचाप वापस चले जाते हैं. ऐसे शोध का वे अपने यहां विस्तार से अध्ययन करते हैं और उसके उत्पादों का पेटेंट भी हासिल कर लेते हैं.
चीनी सरकार भारत सहित कई देशों में मीडिया में निवेश के लिए अरबों डॉलर खर्च कर रही है. हाल ही में, चीन ने विदेशी मीडिया प्रकाशनों में विज्ञापन स्थान की खरीद के माध्यम से भारी निवेश किया है. चीन मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीकी देशों के विदेशी पत्रकारों के लिए फेलोशिप कार्यक्रम भी चलाता है़, जिसके तहत प्रतिवर्ष सौ पत्रकारों को अपने देशों में चीनी विचारों का प्रचार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. पेइचिंग विश्वविद्यालय सहित कई जगह हिंदी के कोर्स हैं, जहां छात्रों का कार्य होता है नियमित भारतीय अखबार पढ़ना, उसमें चीन के उल्लेख को अनुदित करना, उसके अनुरूप सामग्री तैयार करना.
टीवी बहस में शामिल होनेवाले कई सेवानिवृत सैन्य अधिकारी ऐसे हैं, जिन्होंने कभी लेह-लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश या उत्तराखंड के सीमाई इलाकों में सेवा नहीं दी. असल में ऐसे अधिकारी या लेखक किसी हथियार एजेंसी या अन्य उत्पाद संस्था के भारतीय एजेंट के तौर पर काम करते हैं. उनकी सेवा शर्तों में भारतीय सैन्य स्थिति का अनुमान, उसकी सतही व्याख्या, किसी हथियार या उपकरण की आवश्यकता के बारे में बातें करना, अन्य देश के वैसे ही उपकरण की तुलना में चीनी उत्पाद को बेहतर बताना, आदि का उल्लेख होता है.
लोगों का विश्वास जीतना और फिर उनमें अपने विचार संप्रेषित करना चीन का बौद्धिक युद्ध कौशल है. सैन्य स्तर पर हम चीन से निश्चित ही निबट लेंगे, लेकिन आर्थिक और बौद्धिक स्तर पर निपटने के लिए हमें अभी और तैयारी करनी होगी़
(ये लेखक के नि
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