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सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

Why Not peace talk with naxal ?

 आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ?

पंकज चतुर्वेदी




धुंआधार बरसात से धुले-पुछे, हरियाली व मिट्टी की ंगध से महक रहे बस्तर के अरण्यों में यह चर्चा तेजी से फैल रही है कि गणपति समर्पण करने वाला है, गणपति  यानी बीते तीन दशकों से चार राज्यों में नक्सली नेतृत्व  का सबसे बड़ा नाम। बीते दो सालों में बस्तर में कई बड़े नक्सली या तो मारे गए या फिर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। उधर सरकार की स्थनीय लोगों को फोर्स मे भर्ती करने की योजना भी कारगर रही। एक तो स्थानीय लोगों को रेाजगार मिला, दूसरा स्थानीय जंगल  के जानकार जब सुरक्षा बलों से जुडे तो अबुझमाड़ का रास्ता इतना अबुझ नहीं रहा। तीसरा जब स्थानीय  जवान नक्सली के हाथों मारा गया और उसकी लाख गांव-ओटले  में पहुंची तो ग्रामिनिं का रोष  नक्सलियों पर बढ़ा। एक बात जान लें कि दंडकारण्य में नक्सलवाद महज फेंटेसी, गुंडागिर्दी या फैशन नहीं है । वहां  खनज और विकास के लिए जंगल उजाड़ने व पारंपरिक जनजाति संस्कारों पर खतरे तो हैं और नक्सली अनपढ़- गरीब आदिवासियों में यह भरोसा भरने में समर्थ रहे है। कि उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के लिए ही उन्होंने हथियार उठाए हैं। यह भी कड़वा सच है कि नक्सलविरोधी कार्यवाही में बड़ी संख्या में निर्दोष  लोग भी जेल में हैं व कई मारे भी गए, इसी के चलते अभी सुरक्षा बल आम लोगों का भरोसा जीत नहीं पाए हैं। लेकिन यह सटीक समय है जब नक्सलियों को बातचीत के लिए झुका कर इस हिंसा का सदा के लिए अंत कर दिया जाए। 

बस्तर में लाल-आतंक का इतिहास महज चालीस साल पुराना है। बीते बीस सालों में यहां लगभग 12 हजार लोग मारे गए जिनमें 2700 से अधिक सुरक्षा बल के लोग हैं जबकि षेश आम आदिवासी। बस्तर से सटे महाराश्ट्र, तेलंगाना, उड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश में इनका सश्क्त नेटवर्क है । समय-समय पर विभिन्न अदालतों में यह भी सिद्ध होता रहा है कि प्रायः सुरक्षा बल बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार देते है।। वहीं घात लगा कर सुरक्षा बलों पर हमले करना, उनके हथियार छीनना भी यहां की सुखिर्यों में है। ये सभी बेहद सुदर, मनोरम लेकिन वहां की हवा में बारूद की गंध तैरती है। हिसांब तो लगाया नहीं गया लेकिन बीते दो दशक के दौरान नक्सल प्रभावित राज्यों में कोई बीस हजार लेाग मारे जा चुके है।- इनमें सबसे ज्यादा आदिवासी हैं और फिर हैं सुरक्षा बलों के जवान। गोलियां दोनो तरफ से चलती हैं और इसकी चपेट में हर बार बेकसूर आदिवसी भी खूब आते हैं। दोनो पक्षों के पास अपनी कहानियां हैं- कुछ सच्ची और बहुत सी झूठी। 

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलियों का पुराना नेतृत्व अब कमजोर पड़ रहा है और नया कैडर अपेक्षाकृत कम  आ रहा है। ऐसे में यह खतरा बना रहता है कि कहीं जन मिलिशिया छोटे-छोटे गुटों में निरंकुश ना हो जाएं  असंगठित या छोटे समूहों का नेटवर्क तलाशना बेहद कठिन होगा। जान लें कि बस्तर अंचल का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर है और उसके बड़े इलाके में अभी भी मूलभूत सुविधांए या सरकारी मशीनरी दूर-दूर तक नहीं है। 



नक्सली कमजोर तो हुए हैं लेकिन अपनी हिंसा से बाज नहीं आ रहे। कई बार वे अपने अशक्त होते हालात पर पर्दा डालने के लिए कुछ ना कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनका आतंक कायम रहे। याद करें 21 अक्तूबर 2016 को न्यायमुर्ति मदन लौकुर और एके गोयल की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में राज्य सरकार के वकील को सख्त आदेश दिया था कि पुलिस कार्यवाही तात्कालिक राहत तो है लेकिन स्थाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थाई हल निकालना चाहिए। हालांकि सरकारी वकील ने अदालत को आश्वस्त किया है कि वे सुप्रीम कोर्ट की मंशा उच्चतम स्तर तक पहुंचा देंगे। लेकिन उसके बाद सरकार के स्तर पर ऐसे कोई प्रयास नहीं हुए जिनसे नक्सल समस्या के षांतिपूर्ण समाधान का कोई रास्ता निकलता दिखे। दोनो तरफ से खून यथावत बह रहा है और सुप्रीम कोर्ट के षब्द किसी लाल बस्ते में बंद हैं। 

सनद रहे बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों नहीं जोड़ा जाए। हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व आदिवासी समाज चिंता जताता रहा है कि अरण्य मे ंलगातार हो रहे खूनखराबे से आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी परिणति है कि आदिवासियों की बोली, ंसस्कार, त्योहार, भोजन सभी कुछ खतरे में हैं। बात आई कि किसी भी स्तर पर नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें हथियार डाल कर देश की लोकतांत्रिक मुख्य धारा में षामिल होने के लिए क्यों राजी नहीं किया जा सकता और इसके लिए अभी तक कोई प्रयास क्यों नहीं हुए। 

बस्तर के हालात कितने गंीाीर हैं इसके लिए दो आंकड़े गौर करने वाले हैं - बस्तर की चार जेनलों में हजार से ज्यादा आदिवासी नक्सल हिंसा के आरोप में सालों से निरूद्ध हैं और इनमें से कई की तो कोई पैरवी भी नहीं। दूसरा - बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में षेश देश के विपरीत महिला-पुरूश का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियांे के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। 

अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की 14 साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। 

भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। प्रधानमंत्री निवास पर उन अलगाववादियों को बाकायदा बुलाा जाता है और उनके साथ हुए समझौतों को गोपनीय रखा जाता है जो दूर देश में बैठ कर भारत में जमक र वसूली, सरकारी फंड से चौथ वसूलने और गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों पर हमला कर उनके हथियार लूटने का काम करते हैं। कश्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और उसमें पाकिस्तान पूरी तरह षामिल है। इसके बावजूद दबे-छुपे तो कभी जाहिरा तौर पर कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है। फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें क्यों नहीं की गईं।  

हालांकि पूर्व में एक -दो बार बातचीत की कोशिश हुई लेकिन कहा जाता है कि इसके लिए जमीन तैयार करने वाले लोगों को ही दूसरे राज्य की पुलिस ने मार गिराया। कई बार लगता है कि कतिपय लोगों के ऐसे स्वार्थ निहित हैं जिनसे वे चाहते नहीं कि जंगल में षंाति हो। लेकिन यह भी सच है कि दुनिया की हर ंिहंसा का निदान अंत में टंबल पर इैठ कर षंाति से ही निकला है। 


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