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सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

Changing climate chock Delhi Respire

 तापमान परिवर्तन पर दम घुटता है दिल्ली का

पंकज चतुर्वेदी










दिल्ली में ये मौसम बदलने के दिन हैं, दिन में तीखी गरमी और अंधेरा होते-होते तापमान गिर जाता है। भले ही इन दिनों रास्ते में धुंध के कारण कम दृश्यता के हालात न हों, भले ही स्मॉग के भय से आम आदमी भयभीत ना हो, लेकिन जान लें कि जैसे जैसे आसपास के राज्यों में खेती के अपशिश्ठ या पराली जलाने में तेजी आ रही है साथ ही दिन में सूर्य की तपन बढ़ रही है, दिल्ली की सांस अटक रही है। दिल्ली में प्रदूशण का स्तर अभी भी उतना ही है जितना कि डेढ महीने बाद सर्दियों में धुंध के दौरान होगा। यही नहीं इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड्ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। विडंबना है कि जब ठंड के दिनों में धुंध छाती है तो सरकार इसे गंभीर पर्यावरणीय संकट मानती है और सारा ठीकरा पराली जलाने पर थोप देती है जबकि हकीकत यह है कि आज भी राजधानी की हवा उतनी ही विशैली है।

एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लख टन पराली या अवशेश जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाय आक्साईड, तीन किलो ठोस कण या पीपी, 60 किलो कार्बन मोनो आक्साईड, 1460 किलो कार्बन डाय आक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेश जलते है तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेशान दिल्ली वालों के फैंफडों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूशण से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते है।, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और धनत्व का पता लगाने की कोई तकनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही मानसून के दौरान हवा में नमी का स्तर बढ़ता है। तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है।  यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजोन लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है परागण के शिकार लेागों के फैंफडे  ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं। तभी ठंड षुरू होते ही दमा के मरीजों का दम फूलने लगता है और कई बार इससे दिल तक असर पड़ जाता है। इस बार तो कोरोना का वायरस जिस तरह अभी भी अबुझ पहेली है और उसका प्रसार तेजी से हो रहा है, वायू प्रदूशण बढ़ने पर इसका कहर भयंकर हो सकता है।

यह तो सभी जानते हैं कि गरमी के दिनों में हवा एक से डेढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लेागों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायू होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहंुच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण दिल्ली में विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है , यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। अकेले सराय काले खां का जाम इस समय दिल्ली की आवोहवा का दुश्मन बना हुआ है। बारापूला, महारानी बाग से ले कर नोएडा मोड़ तक घिसटते यातायात के चलते हवा में पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिशद(सीएसआईआर) और केंद्रीय सड़क अनुसंधन संस्थान द्वारा हाल ही में दिल्ली की सड़कों पर किए गए एक गहन सर्वे से पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर लगातार जाम व वाहनों के रंगने से गाड़िया डेढ़ गुना ज्यादा इंधन पी रही हैं। जाहिर है कि उतना ही अधिक जहरीला धुओं यहां की हवा में षामिल हो रहा है। ठीक ठाक बरसात होने के बावजूद दिल्ली के लोग बारीक कणों से हलकान है तो इसका मूल कारण वे विकास की गतिविधियां हैं जो बगैर अनिवार्य सुरक्षा नियमों के  संचालित हां रही है। कोरोना-काल में भले ही कुछ महीनों हवा की गुणवत्ता सुधरी थी लेकिन जैसे ही जिंदगी पटरी पर आई, आज भी हर घंटे एक दिल्लीवासी वायु प्रदुशण का शिकार हो कर अपनी जान गंवा रहा है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘

यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलाकांत दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुंएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी । वायू प्रदूशण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। जब पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में षांधित किया जाता है तो सबसे अंतिम उत्पाद होता है - पैटकॉन,। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। चूंकि इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होते है। सो दिल्ल्ी राजधानी क्षेत्र के अधिकांश बड़े कारखाने अपनी भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।

यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। इस मौसम में निर्माण कार्यो पर धूल नियंत्रण, सड़कों पर जाम लगना रोकने के साथ-साथ पानी का छिड़काव जरूरी है। जबकि परागण से होने वाले नुकसान से बचने का एकमात्र उपाय इसके प्रति जागरूकता व संभावित प्रभावितों को एंटी एलर्जी दवाएं देना ही है। साथ ही दिल्ली में सार्वजनिक स्थानों पर किस तरह के पेड़ लगाए जाएं, इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा।


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