कोरोना वायरस: सामाजिक दूरी तो रखिए, भावनात्मक नहीं
पंकज चतुर्वेदी
कोरोनो वायरस की वैश्विक त्रासदी के भारत की ओर बढ़ते कदम केे प्रति आम लोगों को जागरूक करने के लिए जब देश के प्रधानमंत्री लोगों से अपील कर रहे थे कि जनता सार्वजनिक स्थानों पर कम से कम भीड़ लगाएं, ठीक उसी समय पूरे देश के हर छोटे-बड़े कस्बे में महिला-पुरूषों की भीड़ बाजारों को जाम किए हुए थी। बदवहासी और आशंका का ऐसा माहौल था कि लोग आटा-चावल तो ठीक साबुन-शैंपू, डायपर जैसी चीजें अपनी क्षमता के अनुसार अधिक से अधिक खरीद रहे थे। यह जान लें कि ‘कोरोना वायरस’ के प्रसार में इसी तरह की अविश्वास और हाबड़तोड़ की सबसे बड़ी भूमिका है। निष्ठुर लोग कुछ दिनों के लिए शहर-बाजार बंद होने की आशंका मात्र से अपने घर में सबकुछ रखने और अपने पड़ोसी से ज्यादा जमा कर लेने की प्रवृति ही भवनात्मक शून्यता की झलक देती है। यह कड़वा सच है कि कोरानो के चलते चीन के बाद इटली और फिर अरब देशों और अमेरिका तक में जनजीवन ठप्प है। सारी दुनिया का आवागमन बंद है। इस जानलेवा बीमारी का अभी तक कोई सटीक इलाज नहीं मिला है और एकदूसरे से दूरी बनाए रखना सबसे बेहतर उपाय है। लेकिन इसका कतई अर्थ नहीं कि निष्ठुर होने से वायरस के प्रकोप को रोका जा सकता है।jansandesh times lucknow |
उन्नीस मार्च की शाम से सिडनी(आस्ट्रेलिया) से लौटे पंजाब सियाना के निवासी 35 वर्षीय तनवीर सिंह को दिल्ी हवाई अड्डे पर सिरदर्द महसूस हुआ और उनके सामने एक तमाशा सा हो गया। एक मिनट में ही उनसे लोग दूर छिटकने लगे व शक से देखने लगे। सफदरजंग अस्पताल में जब उन्हें लाया गया और ाून के सैंपल लिए गए, उसके बाद उनको एकांत में रखा गया। चारों तरफ के तनावपूर्ण परिवेश को तनवीर सिंह सहन नहीं कर पाए और अस्पतल के सातवें तल्ले से कूद कर आत्महत्या कर ली। हालांकि अब पता चला कि उसे कोरोना के कोई लक्षण नहीं थे। मुंबई में कोरानेा से मारे गए 64 साल के बुर्जुग के घर के आसपास कतिपय युवा आते हैं और कोरोना की आवा लगा कर चिढ़ाते हैं। गाजियाबाद की एक सोसायटी में दो लाोगों को उनके पड़ोसियों ने बिल्डिंग में घुसने नहीं दिया, वे कहते रहे कि हम हवाई अड्डे पर जांच करवा कर आए हैं लेकिन मामला तनातनी तक चला गया। पुलिस आई व मजबूरी में वे दोनो ििफर से जिला अस्पताल के आईसोलेशन वार्ड में भरती हुए। गायिका कनिका कपूर ने तो गजब ही कर दिया, वे जानती थी कि बीमार हैं लेकिन केवल इस भय से कि कहीं समाज उन्हें संभावित वायरस संक्रमित मान कर हिकारत की नजर से ना देखे; वे आम लोगों से मिलती जुलती रहीं। नतीजा सामने हैं कि खतरा अब संसद तक पहुंच गया।
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मामला केवल अपनी जरूरत की चीजों की कमी का नहीं है, छोटे घरों में केवल घर में बंद लोगों के बीच धीरे-धीरे मानसिक अवसाद भी षुरू हो रहा है। उत्सवधर्मी समाज लंबे समय तक खुद को एक स्थान पर बांध नही ंसकता। कई लाख लोग जिन षहरों में काम काज करते हैं, वहां से उपेक्षा, तिरस्कार से इतने आहत हो गए कि अपने मूल स्थानों-बिहार,उ.प्र के लिए पैदल, साईकिल या रिक्षे पर निकल चुके हैं। वे जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, उन्हें लताड़, उपेक्षा और भय का सामना करना पड़ रहा है। इधर विडंबना है कि हमारा समाज किसी भी तरह संक्रमित व्यक्ति को ना केवल सामाजिक तरीके से दूर कर रहा है, वरन भावनात्मक रूप से इतना दूर कर रहा है कि मरीज में एक अपराधबोध या ग्लानि की प्रवृति विकसित हो रही है। परिणाम सामने हैं कि एक युवा आत्महत्या कर लेता है या एक गायिका सबकुछ छिपाती है।
इन सभी घटनाओं का उल्लेख केवल यह बताता है कि हम लोग इस लिए तो खुश है कि हमारे घर बीमारी नहीं आई, हम इस बात पर संतोष कर रहे हैं लेकिन यह और नहीं फैले, इसकी जिम्मेदारी निभाने को राजी नहीं। विडंबना है कि जब पूरी दुनिया इतने गंभीर संकट से जूझ रही हो तब कुछ जिम्मेदार और समाज में अपना प्रभाव रखने वाले लोग गौ मूत्र के पान से कोरोनो का निदान होने के सार्वजनिक आयोजन करते हैं या फिर एक केंद्रीय मंत्री महज धूप में बैठने से कोरोना वायरस के मर जाने की बात करते हैं या फिर एक अन्य केंद्रीय मंत्री कोरोना मुक्ति का कोई श्लोक पाठ कर जनता को आश्वस्त करते हैं कि उन तक यह वायरस पहुंचेगा नहीं। इस समय दुनिया के अन्य पीड़ित अनुभवों से सीख लेना, कड़ाई से वैज्ञानिक नजरिये का पालन करना अनिवार्य है। ऐसे मे जिम्मेदार लोगो की गैरजिम्मेदाराना बातें समाज के व्यापक भले की भावना के विपरीत है। यह हमारे सामने हैं कि हमारे देश में महज आशंका के कारण ही सैनेटाईजर या मास्क की कालाबाजारी और नकली उत्पादन होने लगा। यदि संक्रमण का प्रभाव तीव्र होने की दशा में यदि ‘लॉक डाउन’ की स्थिति एक सप्ताह की ही बन गई तो भोजन, पानी, दवाई जैसी मूलभूत वस्तुओं के लिए आम लोगों में मारामारी होगी। अभी तो देश में संक्रमित लोगों कीं सख्या अभी एक हजार भी नहीं है और दिल्ली के अस्पतालों में अफरातफरी जैसा माहौल है। भले ही आप या अपके परिवेश में इस वायरस का सीधा असर ना हो लेकिन इसकी संभावना या देश मंे कहीं भी प्रसार मंदी, बेराजगारी, गरीबी, जरूरी चीजों की कमी, अफरातफरी जैसी त्रासदियों को लंबे समय के लिए साथ ले कर आएगा। जाहिर है कि ऐसे हालात में हमें भावनात्मक रूप से एकदूसरे के साथ जुड़े रहना होगा। जरूरत इस बात की होगी कि यदि किसी में वायरस के संक्रमण की आशंका हो तो उसके साथ प्रेम का व्यवहार किया जाए और उसे अहसास करवाया जाए कि उनसे भले ही दूर से बात कर रहे हैं लेकिन दिल से करीब हैं।
यह बेहद कड़ी सच्चाई है कि कोविड-19 का इलाज दुनिया में किसी के पास नहीं हैं। जो लोग ठीक भी हुए हैं वे वायरस के प्रभाव के प्रारंभिक असर में थे। यहां तक कि एचआईवी की दवाएं भी इस वायरस के विरूद्ध प्रभावी नहीं रही हैं। महज एक दूसरे के कम से कम करीब आना ही इसके विस्तार को रोक सकता है। अमेरिका और इटली में भी इसका भयानक रूप पहला मरीज मिलने के 21 से 25 दिन बाद सामने आया था और हम अभी उसी पायदान पर हैं। यह समय एकसाथ खड़े होने का है लेकिन दूरी के साथ। भावनात्मक लगाव इसकी बडी औषधि है क्योंकि एकांत इंसान के तन से ज्यादा मन को तोड़ता और कमजोर करता है। एक तो कोरोना प्रभावित हो चुके या संभावना के चलते एकांतवास कर रहे लोगों के साथ सतर्कता से व्यवहार करना तो जरूरी है लेकिन आपके व्यवहार में तिरस्कार या असम्मान का भाव नहीं होना चाहिए। यह मरीज की आत्मषक्ति को कमजोर करता है जो किसी भी रोग से लड़ने की सबसे महत्वपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता होता है। दूसरा ऐसे लोगोें या पुलिस की प्रताडना के षिकार या केवल संभावना के कारण जांच यया इलाज करवाने गए लोगों की निजता परह मला न करें। ऐसे लोगों से फोन पर नियमित बात करना जरूरी है। उन्हे ं दूर से मुस्कुरा कर हाथ हिलाने भर से वे अपने दर्द को भूल सकते हैं।
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