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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

Afraid human and smiling nature

कोरोना: जब इंसान डर रहा है तो प्रकृति मुस्कुरा रही है

पंकज चतुर्वेदी

यमुनोत्री से इलाहबाद तक के अपने सफर में यमुना नदी का प्रवाह दिल्ली में महज दो फीसदी है ,लेकिन यहां का जहर इसके कुल प्रदुषण  का 76 फीसदी  इजाफा करता है। सन 1994 से अभी तक दो हजार करोड़ खर्च कर भी जब नदी के हालता में लेशमात्र बदलाव नहीं आया तो शायद प्रकृति ने ही इसे दुरूस्त करने का जिम्मा ले लिया। एक अदृश्य से जीव के खौफ से राजधानी थमी तो 12वें दिन ही दिल्ली में यमुना करीब 60 प्रतिशत तक साफ हो गई । पल्ला से वजीराबाद बैराज के पहले तक और सिग्नेचर ब्रिज से ओखला बैराज तक तो पानी शीशे जितना साफ हो गया है। वजीराबाद नवगजा पीर के सामने नजफगढ़ और बुराड़ी बाईपास से आ रही गंदे नाले के पानी वाली जगह छोड़ दें तो पल्ला से लेकर ओखला बैराज तक कहीं पानी गंदा नहीं है।
 कोरोना जीवणु के असर को निष्प्रभावी  करने के लिए कल-कारखाने क्या बंद हुए, दो सप्ताह में ही पूरे देश  की नदियां जल-संपन्न हो गईं। हमारी नदियों में पानी की मात्रा पिछले 10 सालों में सबसे अधिक हो गई है। देष-बंदी के बाद दो अप्रैल तक के आंकड़ै बानगी हैं कि गंगा नदी में 15.8 बीसीएम पानी उपलब्ध है, जो कि नदी की कुल क्षमता का 52.6 फीसदी है। पिछले साल इसी समय गंगा नदी में मात्र 8.6 बीसीएम पानी था। इसी तरह से नर्मदा में क्षमता का 46.5 प्रतिषत  अर्थात 10.4बीसीएम पानी उपलब्ध है। पिछले साल इसी समय 31 फीसदी पानी था और 10 साल में यहां औसतन 26.4 प्रतिशत पानी उपलब्ध था। तापी नदी में  पिछले साल इस समय मात्र 16 फीसदी जल था ,लेकिन इस साल 66 प्रतिषत है।  इसी तरह माही, गोदावरी, साबरमति ,कृश्णा , कावेरी हर नदी की सेहत सुधर गई है।

 हर त्रासदी अपने साथ कोई सबक दे कर आती है। इसमें कोई श क नहीं कि कोरोना वायरस से फेली वैश्विक  महामारी पूरी दुनिया के लिए खतरा बनी हुई है। अभी ना तो इसका कोई माकूल इलाज खेाजा जा चुका है और ना ही इस वायरस के मानव शरीर में प्रविष्ट  होने का मूल कारण । इंसान अपने-अपने घरों में बंद है। ‘विकास’ नामक आधुनिक अवधारा और असुरक्षा के नाम पर हथियारों की होड़ नैपथ्य में हैं। कभी युद्ध में अपने विरोधियों का खून बहाने के लिए इस्तेमाल होने वाले हथियारों को बनाने वाले कारखाने इंसान का जीवन बचाने के उपकरण बना रहे हैं।  इंसान बदवहास है और अपने भविष्य  के प्रति चिंतित है। वहीं प्रकृति जोकि अभी तक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष  कर रही थी, अब लंबी सुकुन की सांस ले रही है। देश के 85 से अधिक शहरों में एयर क्वालिटी इंडेक्स बीते एक हफ्ते से लगातार 100 से नीचे चल रहा है। यानी इन शहरों में हवा अच्छी श्रेणी की है। लॉकडाउन के दौरान प्रदूषण के कारक धूल कण पीएम 2.5 और पीएम 10 की मात्रा में 35 से 40ः गिरावट आई है। कॉर्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन, सल्फर ऑक्साइड व ओजोन के स्तर में भी कमी दर्ज की गई। अहम बात यह है कि प्रदूषण रहित यह स्तर बारिश में भी नहीं रहता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डी साहा ने कहा कि 2014 में जब से एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) बनाया जा रहा है, ऐसा पहली बार है जब प्रदूषण न्यूनतम स्तर पर है। सर्दी में ऑड-ईवन लागू करने से दिल्ली की हवा में 2 से 3 प्रतिषत का सुधार आ पाता है। उसकी तुलना में एनसीआर में 15 गुना से अधिक सुधार आ चुका है।

पंजाब के लुधियाना से हिमचाल प्रदेष की हिमच्छादित -उत्तुग पर्वतमाला की दूरी भले ही 200 किलोमीटर से ज्यादा हो, लेकिन आज दमकते नीले आसमान  की छतरी तले इन्हे आराम से देखा जा सकता है। जो प्रवासी पंछी अपने घर जाने को तैयार थे, वे अब कस्बे-गांवों की पोखरों पर कुछ और दिन रूक गए हैं। हिंडन जैसी नदी जहां गत दस सालों में आक्सीजन की मात्रा षून्य थी, अब कुछ मुस्कुरा रही है। जिन नदियों में जल-जीव देखे नहीं जा रहे थे, उनके तटों पर मछली-कछुए खेल रहे हैं। सबसे सुकुन में समुद्र है। अब उसकी छाती को चीर कर पूरे जल-गर्भ को तहस-नहर करने वाले जहाज थमें हुए हैं। अधिक मछलियों के लालच में मषीनी ट्राला चल हीं रहे तो  मछलियों का आकार भी बढ़ रहा है और संख्या भी। जहाजों का तेल न गिरने से अन्य जल-जीवों को सुकुन तो मिल ही रहा है।
25 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा के बाद एकबारगी लगता हो कि देश की अर्थव्यवस्था का पहिया थमा है परंतु बारिकी से देखें तो इससे मानवीय सभ्यता को नई सीख भी मिली है। यातायात के साधन व कारखाने बंद होने से वायू प्रदूशण के कारण हर दिन औसतन 500 मरने वाले हों या इतने ही लोगों की सड़क दुर्घटना में मृत्यु, यह आंकड़ा थम गया हे इसके इलाज में होने वाले हर दिन के करोड़ांे के मेडिकल बिल पर विराम लगा और वाहन ना चलने से विदेश  से कच्चा तेल खरीदने पर व्यय विदेशी मुद्रा के भंडार को भी राहत।
 यह सभी जानते हैं कि बीते दो दशकों में विश्व  की सबसे बड़ी चिंता धरती का बढ़ता तापमान यानी ग्लोबल वार्मिग, जलवायु परिवर्तन है। कार्बन की बढ़ती मात्रा दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाश संश्लेषण  के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाष संष्लेशण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। आज विष्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 5414 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाय आक्साईड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है।  उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं । जापान, जर्मनी, द.कोरिया आदि औद्योगिक देषो में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 2274 मिलियन मीट्रिक या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाय आक्साईड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों  की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश  है,  वह भी अधिकांष ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए। प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढने का प्रमुख कारण है बिजली की बढती खपता। सनद रहे हम द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होगा।
फिर धरती पर बढती आबादी और उसके द्वारा पेट भरने के लिए उपभेाग किया गया अन्न भी कार्बन बढौतरी का बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं।
जब पूरी दुनिया में कल-कारखाने, वाहन बंद हो गए तो अचानक ही कार्बन उत्सर्जन की मात्रा 5 फीसदी  घट गया। इसके कारण देश और दुनिया की हवा भी स्वच्छ हो गई है। धरती का शोर और कंपन कम हो । दूसरे विष्वयुद्ध के बाद से पहली बार कार्बन उत्सर्जन का स्तर इतना गिरा है।
भले ही एक लाइलाज बीमारी के कारण प्रकृति का इतना स्वच्छ स्वरूप उभरा हो लेकिन यह मानवीय दखल के कारण तेजी से दूषित हो रही प्रकृति ने चेतावनी दे दी कि उसके साथ ज्यादा खिलवाड़ हुआ तो उसका इलाज भी कायनात को आता है । यह किसी से छुपा नहीं कि दुनिया यायातात प्रबंधन, जाम व् औद्योगिक प्रदुषण, जल की गुणवत्ता आदि दिक्कतों से जूझ रही है और इसके मशीनी निदान पर हर साल अरबों डॉलर खर्च होते हैं । कोरोना ने बता दिया कि वह अरबों डॉलर खर्च मत करो बस हर साल में दो बार एक एक हफ्ते का लॉक डाउन कड़ाई से लागू कर दो , प्रकृति नैसर्गिक बनी रहेगी । इन दिनों अपराध कम हो रहे हैं, सडक दुर्घटना कम हो रही हैं ,दूषित खाना खाने से बीमार होने वालों की संख्या कम हो रही है ------
क्या आफिस का बड़ा काम घर से हो सकता है ? क्या स्कूल में बच्चों का हर रोज जाना जरुरी नहीं ? क्या समाज के बेवजह विचरने की आदत पर नियंत्रण हो सकता है ? ऐसे भी कई सवाल और प्रकृति - शुद्धिकरण के विकल्प ये दिन सुझा रहे हैं। यह सही है कि धरती पर कोई  ज्ञी तूफान ना तो स्थाई होता है और ना अंतिम लेकिन इस बार की त्रासदी ने जता दिया कि धरती की प्राथामिकता हथियार नहीं, वेंटिलेटर हैं, सेना से जरूरी डॉक्टर हैं। आम इंसान को भी घरों में बंद रहने के दौरान समझ आ गया कि हमारे पास जितना है, उतने की जरूरत नहीं, जरूरत है तो मानवीय संबांधों के प्रति संवेदनात्मक होने की।




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फिलीपींस के समुद्र तट इन दिनों गुलाबी रंग की जेली फिष से पटे पड़े हैं। विहंगम नजारा है।  असल में ये तट सामान्य दिनों में पर्यटकों से भरे रहते हैं। ऐसे में समुद्र के जलीय जीव तटों के किनारे अपना डेरा जमा रहे हैं। पालावन तट के पास विशेषज्ञों ने हजारों की संख्या में गुलाबी जेलीफिश को देखा। इन जेलीफिश को सी टोमैटो कहा जाता है। ये जेलीफिश धीरे-धीरे सतह के ऊपर आ रही हैं क्योंकि उन्हें लोगों की गैर मौजूदगी में डर नहीं लग रहा।  वैसे ये जेलीफिष लोगों की भीड़ से घबरा जाती हैं पर्यटकों के तटों पर होने के कारण ये जेलीफिश समुद्र के तल में चली जाती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार कई दिनों से कोई हलचल नहीं होने के कारण ये जेलीफिश सतह पर आ गई
कोरोना वरदान बन गया कछुओं का
पंकज चतुर्वेदी

हर साल नवंबर-दिसंबर से ले कर अप्रेल-मई तक उड़ीसा के समुद्र तट एक ऐसी घटना के साक्षी होते है, जिसके रहस्य को सुलझाने के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविद् और पशु प्रेमी बैचेन हैं । हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्रा कर ओलिव रिडले नस्ल के लाखों कछुए यहां अंडे देने आते हैं । इन अंडों से निकले कछुए के बच्चे समुद्री मार्ग से फिर हजारों किलोमीटर दूर जाते हैं । यही नहीं ये शिशु कछुए लगभग 30 साल बाद जब प्रजनन के योग्य होते हैं तो ठीक उसी जगह पर अंडे देने आते हैं, जहां उनका जन्म हुआ था । ये कछुए विश्व की दुर्लभ प्रजाति ओलिव रिडले के हैं ।  अक्तूबर-2018 में तितली चक्रवात तूफान के कारण इन कछुओं के पुष्तैनी पसंदीदा समुद्र तटों पर कई-कई किलोमीटर तक कचरा बिखर गया था, सो बीते साल इनकी बहुत कम संख्या आ पाई थी। इस बार कोरोनो के प्रकोप के चलते एक तो पर्यटन बंद है, दूसरा मछली पकड़ने वाले ट्राले, जाल व अन्य नावंे चल नहीं रही हैं, सो गरियामाथा, उड़ीसा के संरक्षित समुद्री तट पर हुकीटोला से इकाकूल के बीच हर तरफ कछुए, उनके घरोंदे और अंडे ही दिख रहे हैं। हालांकि हर बार इस पूरे इलाके के 20 किलोमीटर क्षेत्र में मछली पकड़ने पर पूरी तरह पाबंदी होती है , लेकिन उससे आगे समुंद की गहराईयों में ये कछुए अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही मारे जाते हैं।
यह आश्चर्य ही है कि ओलिव रिडले कछुए दक्षिणी अटलंांटिका, प्रषांत और भारतीय महासागरों के  समुद्र तटों से हजारों किलोमीटर की समुद्र यात्रा के दौरान भारत में ही गोवा, तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश के समुद्री तटों से गुजरते हैं , लेकिन अपनी वंश-वृद्धि के लिए वे  अपने घोसलें बनाने के लिए उड़ीसा के समुद्र तटों की रेत को ही चुनते हैं । ये समु्रद में मिलने वाले कछुओं की सबसे छोटे आकार की प्रजाति है जो दो फुट लंबाई और अधिकतम पचास किलो वजन के होते हैं। आई यू सी एन(इंटरनेषनल यूनियन फार कन्जरवेषन आफ नेचर ) ने इस प्रजाति को ‘रेड लिस्ट’ अर्थात दुर्लभ श्रेणी में रखा है। सनद रहे कि दुनियाभर में ओलिव रिडले कछुए के घरोंदे महज छह स्थानों पर ही पाए जाते हैं और इनमें से तीन स्थान भारत के उड़ीसा में हैं । ये कोस्टारिका में दो व मेक्सिको में एक स्थान पर प्रजनन करते हैं । उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले का गरियामाथा समुद्री तट दुनिया का सबसे बड़ा प्रजनन-आशियाना है । इसके अलावा रूसिक्लया और देवी नदी के समुद्र में मिलनस्थल इन कछुओं के दो अन्य प्रिय स्थल हैं ।
एक मादा ओलिव रिडले की क्षमता एक बार में लगभग डेड़ सौ अंडे देने की होती है । ये कछुए हजारों किलोमीटर की यात्रा के बाद ‘‘चमत्कारी’’ समुद्री तटों  की रेत खोद कर अंडे रखने की जगह बनाते हैं । इस प्रक्रिया को ‘मास नेस्टिंग’ या ‘ अरीबादा’ कहते हैं। ये अंडे 60 दिनों में टूटते हैं व उनसे छोट-छोटे कछुए निकलते हैं । ये नन्हे जानवर रेत पर घिसटते हुए समुद्र में उतर जाते हैं, एक लंबी यात्रा के लिए; इस विश्वास के साथ कि वे वंश-वृद्धि के लिए ठीक इसी स्थान पर आएंगे- 30 साल बाद । लेकिन समाज की लापरवाही इनकी बड़ी संख्या को असामयिक काल के गाल में ढकेल देती हैं ।
इस साल उड़ीसा के तट पर कछुए के घरोंदों की संख्या शायद अभी तक की सबसे बड़ी संख्या है । अनुमान है कि लगभग सात लाख नब्बे हजार घरोंदे बन चुके हैं । एक घरोंदे में औसतन 100 अंडे हैं और यह भी जान  लें कि यहां आने वाले कोई तीस फीसदी कछुए अंडे देते नहीं। फिर भी अनुमान है कि इस बार अंडों की संख्या एक करोड़ के पार है। यह भी आश्चर्य की बात है कि सन 1999 में राज्य में आए सुपर साईक्लोन व सन 2006 के सुनामी के बावजूद कछुओं का ठीक इसी स्थान पर आना अनवरत जारी है । वैसे सन 1996,1997,200 और 2008,2015 और 2018 में बहुत कम कछुए आए थे। ऐसा क्यों हुआ? यह अभी भी रहस्य बना हुआ है। ‘‘आपरेशन कच्छप’’ चला कर इन कछुओं को बचाने के लिए जागरूकता फैलाने वाले संगठन वाईल्डलाईफ सोसायटी आफ उड़ीसा के मुताबिक यहां आने वाले कछुओं में से मात्र 57 प्रतिशत ही घरोंदे बनाते हैं, शेष कछुए वैसे ही पानी में लौट जाते हैं । इस साल गरियामाथा समुद्र तट पर नसी-1 और नसी-2 के साथ साथ बाबुबली द्वीपों की रेत पर कछुए अपने घर बना रहे हैं । बाबुबली इलाके में घरोंदे बनाने की शुरूआत अभी छह साल पहले ही हुई है, लेकिन आज यह कछुओं का सबसे प्रिय स्थल बना गया है । रषिकुल्ला और देवी नदी का तट भी ओलिव कछुओं को अंडे देने के लिए रास आ रहा है। कई ऐसे द्वीप भी हैं जहां पिछले एक दशक में जंगल या इंसान की आवक बढ़ने के बाद कछुओं ने वहां जाना ही छोड़ दिया था, इस बार मादा कछुओं ने वहां का भी रूख किया है।
इन कछुओं का आगमन और अंडे देते देखने के लिए हजरों पर्यटक व वन्य जीव प्रेमी यहां आते रहे हैं। कोरोना के कारण देष-बंदी के चलते समुद्र तट इंसानों की गतिविधियों से पूरी तरह मुक्त है। तभी बीते सात सालों में यह पहली बार कछुए दिन में भी अंडे दे रहे हैं। 21 मार्च 2020 को दिन में दो बजे से सामूहिक अंडे देने की प्िरक्रया जो षुरू हुई तो वह अभी मार्च कें अंतिम सप्ताह तक चलने की संभावना है।  कोई 45 दिन बाद इनसे बच्चे निकलेंगे और फिर ये रेत से घिसटते हुए गहरे पानी में उतर कर अपने घरों की ओर चल देंगें।
अभी तक इन कछुओं को सबसे बड़ा नुकसान मछली पकड़ने वाले ट्रालरों से होता था । वैसे तो ये कछुए समुद्र में गहराई में तैरते हैं, लेकिन चालीस मिनट के बाद इन्हें सांस लेने के लिए समुद्र की सतह पर आना पड़ता है और इसी समय ये मछली पकड़ने वाले ट्रालरों की चपेट में आ जाते थे। कोई दस साल पहले उउ़ीसा हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि  कछुए के आगमन के रास्ते में संचालित होने वाले ट्रालरों में टेड यानी टर्टल एक्सक्लूजन डिवाईस लगाई जाए । उड़ीसा में तो तो इस आदेश का थोड़ा-बहुत पालन हुआ भी, लेकिन राज्य के बाहर इसकी परवाह किसी को नहीं हैं । समुद्र में अवैध रूप से  मछलीमारी कर रहे श्रीलंका, थाईलेड के ट्रालर तो इन कछुओं के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं और वे खुलेआम इनका शिकार भी करते हैं ।
पंकज चतुर्वेदी






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