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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

Quarantine : terror can be turn in pleasure

एकांतवास का इतना खौफ क्यों ?

पंकज चतुर्वेदी 
जन्संदेश टाईम्स 
दो अप्रैल के सुबह उ.प्र.के शामली के निर्माधाधीन अस्पताल में क्वारेंटाईन या एकांतवास के लिए लाए गए एक युवक ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। कांधला के करीब एक गावं के इस युवक को सांस लेने में दिक्कत हो रही थी और 31 मार्च को उसे अस्पताल लाया गया था। उसके सैंपल लिए गए थे। जब तक रिपोर्ट आती , उससे पहले ही उसने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।  अभी तक तो कोरोना का इतना हल्ला भी नहीं था- उन्नीस मार्च की शाम से सिडनी(आस्ट्रेलिया) से लौटे पंजाब सियाना के निवासी 35 वर्षीय तनवीर सिंह को दिल्ली हवाई अड्डे पर सिरदर्द महसूस हुआ और उनके सामने एक तमाशा सा हो गया। एक मिनट में ही उनसे लोग दूर छिटकने लगे व शक से देखने लगे। सफदरजंग अस्पताल में जब उन्हें लाया गया और सैंपल लिए गए, उसके बाद उनको एकांत में रखा गया। चारों तरफ के तनावपूर्ण परिवेश को तनवीर सिंह सहन नहीं कर पाए और अस्पतल के सातवें तल्ले से कूद कर आत्महत्या कर ली। हालांकि अब पता चला कि उसे कोरोना के कोई लक्षण नहीं थे।  गायिका कनिका कपूर का मामला तो सभी जानते ही हैं  जो केवल एकांतवास के डर से अपनी विदेश से आने का अतीत छुपाती रहीं । जब उनका टेस्ट पोजीटिव आया तो सरकारी अस्पताल में वे डाक्टर व स्टाफ से लड़ती रहीं। इंदौर, बिहार के मधुबनी, उ.प्र के कई स्थानों से ऐसी खबरें लगातार आ रही हैं जब पुलिस या प्रशासन बाहर से आए लोगों को एकांतवास के लिए ले जाने को गया तो वहां बड़े स्तर पर हिंसा हुई व सरकारी कर्मचारियों व पुलिस की जान पर बन आई।
जनवाणी 
पूरी दुनिया में लगभग एक लाख लोगों को अपना शिकार बना चुके और अभी तक लाइलाज नावेल कोरोना वायरस संक्रमण का अभी तक खोजा गया बसे माकूल  उपाय सामाजिक दूरी बनाए रखनाा और संदिग्ध मरीज को समाज से दूर रख देना ही है। बीते दो सपह में मीडिया के माध्यम से, देश-बंदी व बेरोजगारी की चोट से लाखों  लोगों के दुर्गम रास्तों पर पलायन से उभरे दर्द से आमो-खास को यह तो जानकारी हो ही गई है कि कोरोना वायरस की चपेट में आने का अर्थ क्या होता है। समाज में मामूली खांसी या बुखार वाला भी कोरोना से संक्रमित हो सकता है और इस बीमारी के लक्ष्ण उभरने या खुद ब खुद ठीक हो जाने में कोई 14 दिन का समय लगता है। यह समय इंसान व उसके परिवार, उसके संपर्क में आए लोगों के जीवन -मरण का प्रश्न होता है। तभी  संभावित मरीज को समाजसे दूर रखना ही सबसे माकूल इलाज माना गया। जिस बीमारी के कारण पूरी दुनिया थम गई हो उसकी भयावहता से बचने के लिए कुछ दिन अलग रहने से समाज एक वर्ग का बचना या लापरवाही करना  व्यापक स्तर पर नुकसानदेह हो सकता है।

समाज के व्यापक जीवन के लिए कुछ दिन अलग रहने को आखिर इतना बड़ा अपराध क्यों मान लिया जा रहा है कि लोग कहीं खुदकुशी कर रहे हैं तो कही उपद्रव।  इसके लिए कुछ अन्य घटनाओं पर गौर करना होगा। दिल्ली के दिलशाद गार्डन में एक परिवार में दो संदिग्ध को लेने एंबुलेस आई तो वहां घंटों ऐसी भीड़ जमा हुई कि किसी आतंकी को पकड़ा गया हो। राजधानी में ही कुछ डाक्टरों व अंतरराश्ट्रीय फ्लाईट के पायलेटों से किराए के मकान खाली करवाने की शिकायतें भी आ रही हैं। कुछ ऐसे लोग जो विदेश से लौटे, उनके दरवाजे पुलिस ने पोस्टर चिपका दिए और कुछ ही देर में सोशल मीडिया पर सारे परिवार के फोटो साझा हो गए कि इन्हें कोरोंना ने अपनी चपेट में ले लिया है। लखनऊ में एक लड़की को खांसी क्या हुई, उसका मकान मालिक उसे बाहर से बंद कर भाग गया। बामुश्किल चार दिन बाद उसे मुक्त करवाया गया। झारखंड में कोरोना के कुप्रचार के कारण एक दुकानदार की हत्या हो गई।
दिल्ली में तब्लीगी जमात  के मरकज से निकाले गए लोग या उनके देशभर में फैले हाने पर उन्हें तलाशने के प्रशासनिक प्रक्रिया को गौर करें तो लगेगा कि जैसे किसी आतंकी की धरपकड़ का अभियान चल रहा हो। रही-बची कसर मीडिया का एक हिस्स दहशत  व गलत तरीके से जानकारियों को  फैला कर पूरी कर रहा है। एक बड़ी अफवाह भी समाज के कम जागरूक लोगों में  घर कर गई है कि जिस मरीज को पुलिस पकड़ कर ले जाती है उसे जहर का इंजेक्शन दे दिया जाता है। इंदौर के टाटपटट्टी बाखल में प्रशासन की टीम पर हुए हमले के पीछे ऐसी ही अफवाह की करतूत है।
आम लोग अपने भले की बात या अपने मित्र या दुश्मन में फर्क क्यों नहीं कर पा हैं, इसके लिए हाल की कुछ  घटनाओं को गंभीरता से गौर करना होगा। एक तो कोरोना संक्रमित या संभाविक व्यक्ति के साथ समाज और प्रशासन का व्यवहार लगभग किसी अपराधी की तरह होता है। ना तो ऐसे लोगों को एकांतवास में भेजने से पहले मनौवैज्ञानिक काउंसलिंग होती है और  ना ही उन्हें आश्वस्त किया जाता है कि जरूरी नहीं कि वे बीमार ही हों। जयपुर, बिहार, दिल्ली लगभग सभी जगह ‘क्वारंटाईन सेटर’ के हालात एक भयावह जेल की तरह हैं। षौचालय गंदे, बीमारों की तरह बिस्तर, खाने-पीने के प्रति लापरवाही और उस पर भी जांच रिपोर्ट के नतीजे का लंबा इंतजार। तिस पर सारे दिन अछूत, उपेक्षित जैसा व्यवहार भी। षामली में जिस भवन में एकासंतवास बनाया गय थ, वह एक अधूरी बिल्डिंग थी और वहां  रखे गए इंसान को एकांत में भयभीत और आशंका से ग्रस्त होना कोई बड़ी बात नहीं।
अपने ही घरों में एकांतवास को रखे गए लोगों के दरवाजों पर चिपकाए गए पोस्टर उन्हें समाज की निगाह में अपराधी बना कर प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्हें बेवजह लताड़, उपेक्षा और भय का सामना करना पड़ रहा है। इधर विडंबना है कि हमारा समाज किसी भी तरह संक्रमित व्यक्ति को ना केवल सामाजिक तरीके से दूर कर रहा है, वरन भावनात्मक रूप से इतना दूर कर रहा है कि मरीज में एक अपराधबोध या ग्लानि की प्रवृति विकसित हो रही है। परिणाम सामने हैं कि एक युवा आत्महत्या कर लेता है या किसी आशंका के खौफ से समाज प्रशासन पर हमलावर हो जाता है।
  यदि समाज और प्रशासन चाहे तो इस एकांतवास को थोड़ा मनोरंजक, थोडा  रचनात्मक और बहुत कुछ आनंदपूर्ण  बना सकता है। एक तो जिसमें बीमारी के लक्षण ना हों उन्हें बिस्तर रात में ही दिया जाए। दिन में उनके लिए सीमित परिवेश में खुले में टहलने , पढ़ने, मनोरंजक कार्यक्रम देखने(जहां तक संभव हो टीवी समाचार से दूर रखा जाए), लोकरंग की गतिविधियों, अपनों से नियमित बातचीत, कुछ लिखने- गाने के लिए प्रेरित करने जैसे उपाय किए जाएं। एकांत में भेजने से पहले उन्हें उनकी समझ में आने वालीी भाशा में कुछ वीडियो दिखाए जा सकते हैं या फिर जहां संभव हो मनोवैज्ञानिक से विमर्श करवाया जा सकता है। यदि जरूरी ना हो तो खाकी वर्दी, पुलिस का डंडा, घर पर छापा, हंगामा आदि से बचा जाए और इस कार्य में स्थानीय समाज के लोगों को मध्यस्थ बनाया जाए। जान लें, कोरोना संक्रमण और उसके कुप्रभावों को देश व दुनिया को लंबे समय तक झेलना है। ऐसे में समाज को उसकी इच्छा-शक्ति के साथ ही इससे उबारा जा सकता है।

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