My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

Manipur ; Inhumanity with women and concerns of education

 

मणिपुर ; महिलाओं के साथ अमानवीयता और शिक्षा के सरोकार

...पंकज चतुर्वेदी



 

शायद ही कोई समझदार व्यक्ति वह वीडियो पूरा देख सके .  वह केवल दो महिलायें ही नहीं थी जिनके साथ भीड़ पाशविकता कर रही थी, असल में वह शैतानी हमारे संविधान, समाज, शिक्षा और संस्कार के साथ थी . एक ऐसा राज्य है जहां महिलाओं को समाज में प्रधानता मिलती है . दुनिया में मिसाल दी जाती है मणिपुर की राजधानी इंफाल के ख्वाईरंबंद इलाके के  ईमा कैथेल अर्थात  माँ का बाजार’  की . यहाँ केवल महिलाएं ही दुकानें चलाती हैं। सन 1533 में बने इस बाजार में लगभग पांच हजार महिलाओं का व्यवसाय है। ऐसे राज्य में औरतों के साथ हुए दुर्व्यवहार पर प्रतिक्रिया में दो महीने से अधिक का समय लगा, वह भी तब लोग सामने आये जब वह दुर्भाग्यपूर्ण वीडयो सार्वजानिक हो गया .


बात केवल इत्न्ही ही नहीं है , दो महिएँ से अधिक समय से लोग एक दुसरे के घर जला रहे हैं , 170 से अधिक हत्या हो गई , लोग अभी भी सरेआम हथियार के कर घूम रहे हैं.  पुलिस और सरकारी कर्मचारी  भी  इस नफ़रत के दरिया में डूबते- तैरते सहभागी है .  ये सभी कुछ यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं हमारी शिक्षा में ऐसा क्या है जो  शुरुआत से ही  हिंसा , घृणा, भावनाओं पर नियन्त्रण ना होना और महिलाओं के साथ पाशविकता जैसे मसलों पर व्यहवारिक ज्ञान या नैतिकता का पाठ पढ़ाने में असफल रहा है . जान लें मणिपुर की आबादी महज 36. 49 लाख है , देश की कई महानगरों और जिलों से भी बहुत कम . यहाँ औसत साक्षरता दर 76.94 है जिसमें पुरुष साक्षरता दर 83.58  फ़ीसदी है . यहाँ किशोर में साक्षरता की दर 89.51 है . 93.73 प्रतिशतं लोग अपने मकानों में रहते है क्योंकि यहाँ की 70 .79  फीसदी आबादी ग्रामीण इलाके की रहवासी है . यह आंकड़े इस लिए गौर करने के है कि जिस राज्य का साक्षरता प्रतिशत इतना अच्छा हो, खासकर किशोर और युवाओं में – वहां के युवा यदि बंदूकें ले कर खुद ही मसले को निबटाने या अपने विद्वेष में स्त्री-देह को औजार बनाने के लिए आतुर हैं  तो ज़ाहिर है कि वे अभी तक स्कूल –कालेज में जो पढ़ते रहे , उसका उनके व्यहवारिक जीवन में कोई महत्व या मायने है ही नहीं . यदि सीखना एक सामजिक प्रक्रिया है तो हमारी वर्तमान विद्यालय प्रणाली इसमें शून्य है . यह कडवा सच है कि पाठ्यक्रम और उसकी सीख महज विद्यालय के परिसर के एकालाप और परीक्षा में उत्तीर्ण होने का माध्य है . इसमें समाज  या बच्चे के पालक की कोई भागीदारी नहीं है . किसी असहमति को , विग्रह को किस तरह संयम के साथ साहचर्य से सुलझाया जाए ,  ऐसी कोई सीख  विद्यालय समाज  तक दे नहीं पाया . मणिपुर में फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहे लड़के हाथों में अस्लाहा लिए महज किसी जाती या समाज को  जड़ से समाप्त कर देने के लिए आतुर दिखे. उनके अनुसार विवाद का हल दूसरे समुदाय को जड़ से मिटा देने के अलावा कुछ नहीं . लगा किताबों के पहाड़, डिग्रियों के बंडल  और दुनिया की समझ एक कारतूस के सामने बौने ही हैं .   


 

यह शक  के दायरे में है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व  देश की शिक्षा का असली मर्म समझ पा रहा है। महंगाई की मार के बीच उच्च शिक्षा  प्राप्त युवाओं का रोजगार, घाटे का सौदा होती खेती और विकास के नाम पर हस्तांतरित होते खेत, पेट भरने व सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन, प्राक्रतिक संसाधनों पर आश्रित समाज को उनके पुश्तैनी घर-गाँव से निष्काषित करना। दूरस्थ  राज्यों के शिक्षित ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या हमारे नीति निर्धारकों की समझ में है? क्या भारत के युवा को केवल रोजगार चाहिए ? उसके सपने का भारत कैसा है ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी चाहता है? ऐसे ही कई सवाल तरूणाई के ईर्दगिर्द टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित से। तीन दशक पहले तक कालेज  सियासत के ट्रेनिंग सेंटर होते थे, फिर छात्र राजनीति में बाहरी दखल इतना बढा कि एक औसत परिवार के युवा के लिए छात्र संघ का चुनाव लड़ना असंभव ही हो गया। युवा मन की वैचारिक प्रतिबद्धता जाति,धर्म, क्षेत्र जैसे खांचों में बंट गई है और इसका असर देश की राजनीति पर भी दिख रहा है।


मणिपुर ही नहीं  पूर्वोत्तर से ले कर आदिवासी बाहुल्य सभी राज्यों व जिलों में तंगी, सुविधाहीनता व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी  है । गांव की माटी से उदासीन और शहर की चकाचौंध छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति । वस्तुतया कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण किशोर  वास्तव में ‘कच्चे माल’ की तरह है , जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं जाता और लाजिमी है कि उनके विद्रोह को कोई सा भी रंग दे दिया जाता है।

आज जरूरत है कि स्कूल स्तर पर  पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र इस तरह हों ताकि मौलिक कर्तव्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति सम्मान की गहरी भावना, अपने देश के साथ अटूट संबंध, और एक बदलती दुनिया में अपनी  भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता विकसित की जा सके । न केवल विचार में, बल्कि आत्मा, बुद्धि और कर्मों में, बल्कि भारतीय होने में एक गहन-गर्वित गर्व पैदा करने के लिए, साथ ही साथ ज्ञान, कौशल, मूल्यों और प्रस्तावों को विकसित करने के लिए, जो मानव अधिकारों के लिए जिम्मेदार प्रतिबद्धता का समर्थन करते हैं, सतत विकास और जीवन ,और वैश्विक कल्याण, जिससे वास्तव में एक वैश्विक नागरिक प्रतिबिंबित हो । हम अपने मसले भावनाओं में बह कर गलत तरीके से नहीं, बल्कि सामंजस्य के साथ साथ बैठ कर , बगैर किसी बाहरी दखल के सुलझा सकें इसके लिए अनिवार्य है कि स्कूल  से ही बच्चों को सम्दयिकता और सामूहिक निर्णय लेने की लोकतन्त्रात्मक प्रणाली के लिए मानसिक रूप से दक्ष किया जाए . इसके लिए स्कूली स्तर पर शारीरिक शिक्षा, फिटनेस, स्वास्थ्य और खेल; विज्ञान मंडलियाँ, गणितँ, संगीत और नृत्यँ, शतरंज ,कविता , भाषा, नाटक , वाद-विवाद मंडलियां ,इको-क्लब, स्वास्थ्य और कल्याण क्लब , योग क्लब आदि की गतिविधियाँ , प्राथमिक स्तर पर बगैर बस्ते के अधिक दिनों तक आयोजित करना होगा ।

मणिपुर जैसे छोटे से और पर्याप्त साक्षर राज्य ने जता दिया कि हमारी शिक्षा  में कुछ बात तो ऐसी है कि वह ऐसे युवाओं, सरकारी कर्मचारियों , खासकर पुलिस को-  देश , राष्ट्रवाद, महिलाओं के लिए सम्मान और अहिंसा जैसी भावनाओं से परिपूर्ण नहीं कर पाई । यह हमारी पाठ्य पुस्तकों  और उससे उपज रही शिक्षा  का खोखला दर्शन  नहीं तो और क्या है ?

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...