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मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

agriculture waste can change fate of farmers


                                          पराली : बदल सकती है खेत की किस्मत



इन दिनों दिल्ली और आसपास के दो सौ किलोमीटर में फैली आबादी के लिए सांस लेना दूभर हो गया है। यही हाल सीमापार पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में भी है। ‘‘नासा’ द्वारा खींचे गए सैटेलाईट चित्र से स्पष्ट हो गया है कि इंसान के लिए जानलेवा बन रहे इस धुएं का बड़ा हिस्सा खेतों में पराली जलाने से उपज रहा है। सभी जानते हैं कि हरियाणा और पंजाब में ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाए खेत में ही जला देते हैं, या फिर ऐसे बर्बाद होने देते हैं। यह न केवल जमीन की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करता है, बल्कि थोड़ी समझदारी दिखाई जाए तो किसान फसल अवशेषों से खाद बनाकर अपने खेत की उर्वरता बढ़ा सकते हैं।
एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में तीन करोड़ 50 लाख टन पराली या अवशेष जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डायऑक्साईड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साईड, 1460 किलो कार्बन डायऑक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेष जलते हैं, तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत व बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल खास तौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मशीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांश हिस्सा खेत में ही रह जाता है। खेत की जैव विविधता का संरक्षण जरूरी है, खास तौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है, जो कृषि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। फसल से बचे अंश का इस्तेमाल मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नहीं किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली, की पत्तियां पशुओं के चारे के रूप में उपयोग की जाती हैं, तो कपास, सनई, अरहर आदि के तने गन्ने की सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि जला दिया जाता है। हालांकि सरकार ने पराली जलाने को आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया है, और किसानों को इसके लिए प्रोत्साहन राशि आदि भी दे रही है, लेकिन परंपरा से बंधे किसान इससे मुक्त नहीं हो पा रहे। वे चाहें तो गन्ने की पत्तियों, गेहूं के डंठलों जैसे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर अपनी खाद के खर्च व दुष्प्रभाव से बच सकते हैं। इसी तरह जहां मवेशियों के लिए चारे की कमी नहीं है, वहां धान की पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढ़ों में कंपोस्ट बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू और मूंगफली जैसी फसलों को खुदाई कर बचे अवशेषों को भूमि में जोत कर मिला देना चाहिए। मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़कर खेत में मिला देना चाहिए। इसी तरह केले की फसल के बचे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर ली जाए तो उससे 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन 3.43 फीसदी फास्फोरस व 0.45 फीसद पोटाश मिलता है। फसल अवशेष जलाने से खेत की छह इंच परत, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्म जीव राइजोबियम, एजेक्टोबैक्टर, नील हरित काई, मित्र कीट के अंडे आदि आग में भस्म हो जाते हैं। साथ ही, भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है।फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन जैसे फसल कटाई के बाद अवशेषों को एकत्रित कर कंपोस्ट गड्ढे या वर्मी कंपोस्ट टांके में डालकर कंपोस्ट बनाया जा सकता है। खेत में ही पड़े रहने देने के बाद जीरो सीड कर फर्टिलाइजर ड्रिल से बोनी कर अवशेष को सड़ने हेतु छोड़ा जा सकता है। इस प्रकार खेत में नमी संरक्षण होता है, जिससे खरपतवार नियंतण्रएवं बीज के सही अंकुरण होता है। किसान अनजाने में अवशेष जला कर सांस लेने से जुड़ी गंभीर तकलीफों और कैंसर तक का वाहक बन गया है। इससे उनका अपना परिवार भी चपेट में आ सकता है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने खेतों में फसलों के कटने के बाद बचे अवशेषों को जलाने पर पाबंदी लगाई है। दंड का भी प्रावधान किया गया है। अवशेष जलाने वाले 2 एकड़ रकबा वाले किसान से 2 हजार 500 रुपये, 2 से 5 एकड़ वाले से 5 हजार और 5 एकड़ से अधिक रकबा वाले किसानों से 15 हजार रुपये दंड वसूलने का प्रावधान किया गया है। हालांकि पंजाब में किसानों का एक बड़ा वर्ग मानने के लिए तैयार नहीं है कि दिल्ली जैसे शहरों में वायू प्रदूषण का कारण पराली जलाना है। वह सरकार की सब्सिडी योजना से नाखुश है। उसका कहना है कि पराली को नष्ट करने की जो मशीन बाजार में 75 हजार से एक लाख रुपये में उपलब्ध है, सरकार की सब्सिडी से डेढ़ से दो लाख रुपये में पड़ती है। जाहिर है कि सब्सिडी उनके लिए बेमानी है।
     

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