बर्फ के मरू को नहीं चाहिए पक्के मकान
पंकज चतुर्वेदी
वहां के लोग प्रकृति के संग जीने के आदी हैं, उनका धर्म व दर्शन भी उन्हें नैसर्गिकता के करीब जीवनयापन करने की सीख देता है, ना जरूरत से ज्यादा संचय और ना ही बेवजह षब्दों का इस्तेमाल। कायनात की खूबसूरत देन सदियों तक अक्षुण्ण रही,बाहरी प्रभावों से क्योंकि किसी आम आदमी के लिए वहां तक पहुंचना और फिर उस परिवेश में जीना दूभर होता था, हांे सते -सन्यासी पहुंचते थे, वहीं वहां बसते थे क्योंकि वे ना तो सावन हरे ना वैशाख सूखे। फिर पर्यटन व्यवसाय बन गया, देवों के निवास स्थान तक आरोहण के लिए हवाई जहाज जाने लगे, पांच-पांच दर्रे पार कर मनाली से सड़क निकाल दी गई जिस पर बसें चल सकें। ईंधन चालित वाहनों ने धरती के इस अनछुए हिस्से पर अपने पहियों के निशान बना दिए। आधुनिकता आई, लेकिन आज वही आधुनिकता उनकी त्रासदी बन रही है, सिर मुंडाए, गहरे लाल रंग के कपड़े पहने लामा, संत कह रहे हैं हमें नहीं चाहिए पक्के-कंक्रीट के मकान लेकिन बड़ा दवाब है सीमेंट, लोहा बेचने वाली कंपनियों का। हालांकि स्थानीय लोगों का दो दशक में ही कंक्रीट से मोह भ्ंाग हो रहा है, कई आधुनधक आर्किटेक की मिसालें मिटाई जा रही हंे और लौट रहे हें स्थानीय मिट्टी व रेत से बने पारंपरिक मकान। यह हालात हैं जलवायु परिवर्तन, जल-मल की आधुनिक सुविधाओं की भयंकर त्रासदी झेल रहे लेह-लद्दाक की कहानी।अभी कुछ दशक पहले तक लेह-लद्दाक के दूर-दूर बसे बड़े से घरों के छोटे-छोटे गांवों में करेंसी का महत्व गौण था। अपना दूध-मक्खन, अपनी भेड़ के ऊन के कपड़े, अपनी नदियों का पानी और अपनी फसल , ना चाय में चीनी की जरूरत थी और ना ही मकान में फ्लश की। फिर आए पर्यटक, उनके लिए कुछ होटल बने, सरकार ने बढ़ावा दिया तो उनके देखा-देखी कई लेागों ने अपने पुश्तैनी मकान अपने ही हाथों से तबाह कर सीमेंट, ईंटें दूर देश से मंगवा कर आधुनिक डिजाईन के सुदर मकान खड़े कर लिए, ताकि बाहरी लोग उनके मेहमान बन कर रहें, उनसे कमाई हो। स्थानीय प्रशासन ने भी घर-घर नल पुहंचा दिए। पहले जिसे जितनी जरूरत होती थी, नदी के पास जाता था और पानी का इस्तेमाल कर लेता था, अब जो घर में टोंटी लगी तो एक गिलास के लिए एक बाल्टी फैलाने का लोभ लग गया। जाहिर है कि बेकार गए पानपी को बहने के लिए रासता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की जगह जमीन काट कर पानी तेजी से चीने आने लगा, इससे ना केवल आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही नहीं ज्यादा पेसा बनाने के लोभ ने जमीनों पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए अवास का लालच भी बढ़ाया। असल में लेह7लद्छाक में सैंकड़ों ऐसी धाराएं है जहां सालों पानी नहीं आता, लेकिन जब ऊपर ज्यादा बरफ पिघलती है तो वहां अचानक तेज जल-बहाव होता है। याद करें छह अगस्त 2010 को जब बादल फटने के बाद विनाशकारी बाढ़ आई थी और पक्के कंक्रीट के मकानों के कारण सबसे ज्यादा तबाही हुई थी। असल में ऐसे अधिकांश मकान ऐसी ही सूखी जल धाराओं के रास्ते में रोप दिए गए थे। पानी को जब अपने पुश्तैनी रास्ते में ऐसे व्यवधान दिखे तो उसने उन मकानों को नेस्तनाबूद कर दिया।
जान लें कि लेह-लद्दाख हिमालय की छाया में बसे हैं और यहां बरसात कम ही होती थी, लेकिन जलवाुय परिवर्तन का असर यहां भी दिख रहा है व अब गर्मियों में कई-कई बार बरसात होती है। अंधाधुंध पर्यटन के कारण उनके साथ आया प्लास्टिक व अन्य पैकेजिंग का कचरा यहां के भूगोल को प्रभावित कर रहा है ।
इस अंचल के ऊपरी इलाकों में प्शुपालक व निचले हिस्से में कृशक समाज रहता हे। इनके पारंपरिक घर स्थानीय मिट्टी में रेत मिला कर धूप में पकाई गई र्इ्रंटों से बनते हैं। इन घरों की बाहरी दीवारों को स्थानीय ‘पुतनी मिट्टी’ व उसमें वनस्पतियों के अवशेश को मिला कर ऐसा कवच बनाया जाता है जो षून्य से नीचे तापनाम में भी उसमें रहने वालों को उश्मा देता है। यहां तेज सूरज चमकता है और तापमान षून्य तीस डिगरी से नीचे जाता है। भूकंप -संवेदनशील इलाका तो है ही। ऐसे में पारंपरिक आवास सुरक्षित माने जाते रहे हैं। सनद रहे कंक्रीट गरमी में और तपती व जाउ़े में अधिक ठंडा करती है। सीमेंट की वैज्ञानिक आयु 50 साल है जबकि इस इलाके में पारंपरिक तरीके से बने कई मकान, मंदिर, मठ हजार साल से ऐसे ही षान से खड़े हैं। यहां के पारंपरिक मकान तीन मंजिला होते हैं। -सबसे नीचे मवेशी, उसके उपर परिवार और सबसे उपर पूजा घर। इसके सामाजिक व वैज्ञानिक कारण भी हैं।
यह दुखद है कि बाहरी दुनिया के हजारों लेाग यहां प्रकृति की सुंदरता निहारने आ रहे हैं लेकिन वे अपने पीछे इतनी गंदगी, आधुनिकता की गर्द छोड़कर जा रहे हैं कि यहां के स्थानीय समाज का अस्तित्व खतरे में हैं। उदाहरण के लिए बाहरी दखल के चलते यहां अब चीनी यानि षक्कर का इस्तेमाल होने लगा और इसी का कुप्रभाव है कि स्थानीय समाज में अब डायबीटिज जैसे रेाग घर कर रहे हैं। असल में भोजन हर समय स्थानीय देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप ही विकसित होता था। उसी तरह आवास भी। आज कई लोग यहां अपनी गलतियों को सुधार रहे हैं व सीमेंट के मकान खुद ही नश्ट करवा रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि निर्माण व आर्किटेक के आध्ुानिक षोधकर्ता स्थानीय सामग्री से ही ऐसे मकान बनाने में स्थानीय समाज को मदद करंे जो कि बाथरूम, फ्लश जैसी आधुनिक सुविधाओं के अनुरूप हो तथा कम व्यय में तुलनात्मक रूप से आकर्शक भी हो। साथ ही बाहरी कचरे को रोकने के कठोर कदम उठाए जाएं ताकि कायनात की इस सुंदर संरचना को सुरक्षित रखा जा सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें