My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

After all, who doesn't want to link rivers and ponds?

 

                आखिर कौन नही चाहता है नदी-तालाब जोड़



पंकज चतुर्वेदी



प्यास-पलायन-पानी के कारण कुख्यात  बुंदेलखंड में हजार साल पहले बने चन्देलकालीन  तालाबों को छोटी सदा नीर नदियों से जोड़ कर मामूली खर्च में कलंक मिटाने की योजना  आखिर हताश हो कर ठप्प हो गई । ध्यान दें  बीते ढाई दशकों से यहाँ केन और बेतवा नदियों को जोड़ कर इलाके को पानीदार बनाने के सपने बेचे जा रहे हैं। हालांकि पर्यावरण के जानकर बताते रहे हैं कि इन नदियों के जोड़ से बुंदेलखंड तो घाटे में रहेगा लेकिन कभी चार हजार करोड़ की बनी योजना अब 44 हजार 650 करोड़ की हो गई और इसे बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है । सन  2010 में पहली बार जामनी नदी को महज सत्तर करोड़ के खर्च से टीकमगढ़ जिले के पुश्तैनी  विशाल तालाबों तक पहुँचाने  और इससे 1980 हैक्टेयर खेतों की सिंचाई की योजना तैयार की गई । इस योजना में न तो कोई विस्थापन होना था और न ही कोई पेड़ काटना था । सन  2012 में काम भी शुरू हुआ लेकिन आज करोड़ों खर्च के बाद न नहर है न ही सिंचाई । आम ग्रामीण भी जनता है कि  बहुत से लोग चाहते हैं कि इस तरह के छोटे बजट की योजना चर्चा में आयें क्यों कि फिर केन- बेतवा जैसे पहाड़ –बजट कि योजनाओं पर सवाल उठने लगेंगे ।



यह किसी से छिपा नहीं हैं कि देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी होती नहीं हैं, उनकी लागत बढती जाती है और जब तक वे पूरी होती है, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अफरात हैं। । केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट  हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं ।



केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेश है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश  में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प-वर्षा  या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है । सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है । जबकि हकीकत इससे बेहद परे है ।

सन 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन षुरू करवाया था और इसके लिए केन बेतवा को चुना गया था। सन 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन सन 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया। केन-बेतवा के जोड़ की येाजना को सिद्धांतया मंजूर होनें में ही 24 साल लग गए। उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है,  इसके बांध की लागत 330 करेाड से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है  । राजघाट  से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है । यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड बेकार हो जाएगा ।

टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम से कम एक बड़ा सा सरोवर नहीं था, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता था। आधुनिकता की आंधी में एक चौथाई तालाब चौरस हो गए और जो बचे तो वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए।

जामनी नदी बेतवा की सहयक नदी है और यह सागर जिले से निकल कर कोई 201 किलोमीटर का सफर तय कर टीकमगढ जिले में ओरछा में बेतवा से मिलती हे। आमतौर पर इसमें सालभर पानी रहता है, लेकिन बारिश  में यह ज्यादा उफनती है। योजना तो यह थी कि यदि बम्होरी बराना के चंदेलकालीन तालाब को नदी के हरपुरा बांध के पास से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में सालभर लबालब पानी रहे। इससे 18 गावों के 1800  हैक्टर खेत सींचे जाएंगें। यही नहीं नहर के किनारे कोई 100 कुंए बनाने की भी बात थी  जिससे इलाके का भूगर्भ स्तर बना रहता । अब इस येाजना पर व्यय है महज कुछ करोड़ , इससे जंगल, जमीन को नुकसान कुछ नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में समय कम लगता । इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही कम से कम से 10 साल का काल लग रहा है।

समूचे बंुदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल हैं। आमतौर पर ये तालाब एकदूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिष की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, षहजाद, टौंस, गरारा, बघैन,पाईसुमी,धसान, बघैन जैसी आधा सैंकडा नदियां है जो बारिश में तो उफनती है, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिल कर गुम हो जाती है। यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालाब आबाद हो जाएगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा कमल गट्टा मिलेगा। इसकी गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। केन-बेतवा जोड़ का दस फीसदी यानी एक हजार करोड़ ही ऐसी योजनाओं पर ईमानदारी से खर्च हो जाए तो 20 हजार हैक्टर खेत की सिंचाई व भूजल का स्तर बनाए रखना बहुत ही सरल होगा।

हुआ यूं कि इस योजना की शुरुआत 2012 में हुई और बीते दस सालों में कम से कम दस बार हरपुर नहर ही टूटती रही। पिछले साल अगस्त में अचानक तेज बरसात आई तो 41 करोड़ 33 लाख लागत की हरपुरा नहर पूरी ही बह गई । पहली बार जब नहर में नदी से पानी छोड़ा गया तो सिर्फ चार तालाबों - टीलादांत, मोहनगढ़ फीडर, मोहनगढ़ तालाब एवं बाबाखेरा तालाब में ही पानी पहुंचा था, जबकि पहुंचना था  18 में । नहर बनाने में तकनीकि बिंदुओं को सिरे से नजरअंदाज किया गया था। इसे कई जगह लेवल के विपरीत ऊंची-नीची कर दिया गया था। शुरुआत में ही नहर का ढाल महज सात मीटर रखा गया, जबकि कई तालाब इससे ऊंचाई पर हैं, जाहीर है वहाँ पानी पहुँचने से रहा । लगभग 48 किलोमीटर की नहर में से 23 किलोमीटर पक्की सीसी नहर का निर्माण करना था। जिन स्थानों पर पक्की नहर की गई है, उनमें से कई स्थानों पर यह उखड़ चुकी है। पूरी नहर में एक भी स्थान ऐसा नही दिखाई देता है, जहां पर लगभग एक किलोमीटर के क्षेत्र में नहर कहीं उखड़ी न हो या उसमें दरार न आई हो। बौरी, चरपुरा, मिनौराफार्म, सुनवाहा, पहाड़ी खुर्द सहित अनेक स्थानों पर नहर उखड़ चुकी है। तेज बरसात में यदि नहर में अधिक पानी हो तो वह कहाँ से निकलेगा, नहर के रास्ते में पूल या रिपटा , नहर के किनारे मवेशी के पानी पीने का इंतजाम आदि तो हुआ नहीं । फिर धीरे धीर एक शानदार योजना कोताही का कब्रगाह बन गई ।  बताना जरूरी है कि इस नहर का निर्माण भी मप्र के धार जिले में दो साल पहले बह गए कारम बांध बनाने और और की परियोजनाओं के कारण काली सूची में डाली गई फर्म सारथी कंस्ट्रक्शन ने किया था।

यह समझना अहोगा कि देश में जल संकट का निदान स्थानीय और लघु योजनाओं से ही संभव है । ऐसी योजनाएं जिसे स्थानीय समाज का जुड़ाव हो  और यदि जामनी नदी से तालाबों को जोड़ने का काम सफल हो जाता तो सारे देश में एक बड़ी परियोजना से आधे खर्च में नदियों से तालाबों को जोड़ कर खूब पानी उगाया जाता । शायद तालाबों पर कब्जा करने वाले, बड़ी योजनाओं में ठेके और अधिग्रहण से मुआवजा पाने वालों को यह रास नहीं आया।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Why do border fishermen not become an election issue?

                          सीमावर्ती मछुआरे क्यों नहीं बनते   चुनावी मुद्दा ?                                                   पंकज चतुर्व...