ना अदालत की परवाह है ना जनता की चिंता
पंकज चतुर्वेदी
20
फरवरी को पंजाब –हरियाणा हाई कोर्ट ने धरण-प्रदर्शन को नागरिक का अधिकार तो कहा लेकिन ट्रेक्टर ले कर
हाई वे पर आने को अवैध बाते । इसके बावजूद 21 फरवरी को हरियाणा-पंजाब की सीमाओं पर
कई जगह किसानों के मोर्चे हजारों तर्कटर के साथ लगे थे। हालांकि किसानों का धरना दिल्ली से कोई 247 किलोमीटर दूर हरियाणा-पंजाब
की सीमा पर है लेकिन पिछले कडवे अनुभवों से सीख ले कर सरकार ने दिल्ली की जो
किलेबंदी की है, उससे आम लोग बहुत परेशान हैं। हर दिन दफ्तर जाने वाले हों या रेल-हवाई
जहाज से यात्रा करने वाले या बोर्ड के इम्तहान के लिए जा रहे बच्चे या अस्पताल जा
रहे बीमार-तीमारदार , ऐहतीयतन उठाए गए कदमों से सड़कों पर लग रहे जाम ने आवागमन का
समय और परेशानी दोनों बढ़ा दी है । हालांकि भारत के कानून में दर्ज की ऐसे प्रावधान
हैं जिनके अंतर्गत सड़क या रेल को रोकना दंडनीय अपराध है लेकिन भीड़ को किसी कानून
की परवाह होती ही कहाँ है ? हाल ही में देशभर की
सड़कों, राज्यों के
राजमार्ग को लंबे समय तक धरना प्रदर्शन या किसी अन्य तरीकों से बाधित किए जाने की
घटना से निपटने के लिए विधि आयोग ने केंद्र सरकार के समुचित कानून बनाने की
सिफारिश की है। समझना होगा कि परिवहन और संचार में किसी भी तरह का व्यवधान देश की
विकास- गति में अवरोध होता है ।
आयोग ने केंद्र सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सड़कों को बाधित करने वालों से निपटने के लिए समुचित कानून या फिर भारतीय दंड विधान या हाल ही में बनाए गए भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में संशोधन करके प्रावधान करने की जरूरत है। विधि आयेग के अध्यक्ष जस्टिस ऋतु राज अवस्थी की अगुवाई वाली समिति ने अपनी 284वीं रिपोर्ट में सरकार से कहा है कि राष्ट्रीय राजमार्गों को बाधित किया जाता है तो इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम 1956 है और रेलवे लाइनों को बाधित करने पर रेलवे अधिनियम 1989 है और इसमें दंडात्मक प्रावधान पहले से है लेकिन समय की मांग है कि ऐसे कानून और कड़ेर बनाए जाएँ ।
हमारा देश भी अजब-गजब है ,कहीं विवाह समारोह के नाम पर सड़कें जाम हैं तो कोई धार्मिक
या सियासती रैली-जलसे निकाल रहा है तो कोई नमाज-पूजा-आरती, तो कोई धरना-प्रदर्शन । सनद रहे तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट के दो माननीय
न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र सरकार को
तीन हफ्ते का समय देते हुए आए रोज रास्ते रोकने वालों के खिलाफ ठोस कार्यवाही
सुनिश्चित करने के लिए कहा था। अदालत ने
यह भी कहा था कि रेल-रास्ता रोकने की अपील करने वालों के खिलाफ अनिवार्य अभियोजन
हो और तीन महीने के भीतर ऐस प्रकरणों का निबटारा भी हो। शायद ही किसी सरकार ने इन
निर्देशों को माना और किसान संगठनों ने 15 फरवरी को ही कुछ घंटे पंजाब में रेलें
रोक दीं । विडंबना है कि ऐसे कृत्य करने वालों को ना तो नैतिकता की चिंता है और ना
ही वैधानिकता की । कथित आंदोलनकारियों को भड़का कर यह अनैतिक काम करने के लिए
उकसाने वाले लोग विधानसभा व अन्य सदनों के सदस्य हैं और उन्हें मालूम है कि इस तरह से आम
लोगों को परेशान करने के अलावा अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। हो सकता है कि उनकी मांग
जायज भी हो, लेकिन
अपनी मांग के समर्थन में उठाए गए कदम ना तो आम आदमी को जायज लग रहे हैं, और ना ही यह किसी देश के लोकतांत्रिक ढ़ांचे के लिए स्वस्थ
परंपरा है।
लोकतंत्र में निर्णय
जनता के हाथों होता है, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि लोकतंत्र जनता के हाथों में खेलता है। चुनाव वह
समय होता है जब जनता अपनी अपेक्षाओं पर खरा ना उतरने वालों को कुर्सी से नीचे उतार
फैंकती है। लेकिन आज हालात तो अराजकता की ओर इशारा कर रहे हैं, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए सड़क पर आ जाओ, जाम कर दो, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाओ, प्रशासन तंत्र को बंधक बनाओ। लगभग अपहरणकर्ताओं की तर्ज पर
अपनी मांगें मनवाने के लिए दूसरों की असुविधा, कानून की सीमा या फिर विधि की प्रक्रिया को नजरअंदाज किया
जाए।
सन 1997 में ही केरल हाईकोर्ट एक मामले में आदेश दे चुकी थी कि इस तरह के बंद- हुड़दंग अवैध होते
हैं। बंबई हाईकोर्ट ने सन 2004 में भाजपा-शि वसेना द्वारा आयोजित बंद के मामले में सख्त
आदेश दिए थे कि धरना-प्रदर्षन के दौरान यदि अधिकारी अदालत
द्वारा निर्धारित आदेश का पालन करवाने में असफल रहते हैं तो उन्हें भी अदालत की
अवमानना का दोषी करार दिया जा सकता है।
न्यायमूर्ति बिलाल नाजकी और वीके ताहिलरमानी की बैंच ने कड़ी शब्दों में कहा था कि किसी
भी बंद –धरने की अपील करने वाले नेता पर
ही उसकी पूरी जिम्मेदारी होगी। नेता को जनता के जीवन और संपत्ति की क्षति के लिए
मुआवजा देना होगा। कोर्ट ने सड़क पर आम लोगों की आवाजाही निरापद रखने के भी निर्देश
दिए थे । इससे पहले कोलकता, मद्रास और दिल्ली की अदालतें भी समय-समय पर ऐसे आदेश देती रही है। लेकिन नेता हैं कि मानते ही नहीं
है और कई बार पुलिस और प्रशासन भी हालात बिगड़ने का इंतजार करता रहता है।
सरकारी आंकड़े गवाह हैं
कि हमारे देश में हर साल सड़केां पर हंगामें की 56 हजार छोटी-बड़ी घटनाएं होती हैं। इनकी चपेट में आ कर कोई
पचास हजार वाहन बर्बाद हो जाते हैं, जिनमें 10 हजार बस या ट्रक होते हैं। अकेले दिल्ली में सालभर में 100 से अधिक तोड़-फोड़, उधम की घटनाएं दर्ज की जाती हैं। इस प्रकार के रोज-रोज के
बंद ,
धरने, प्रदर्शन, जाम से आम आदमी आजिज आ चुका है। इन अराजकताओं के कारण समय
पर इलाज ना मिल पाने के कारण मौत होने, परीक्षा छूट जाने, नौकरी का इंटरव्यू ना दे पाने जैसे किस्से अब आम हो चुके
हैं और सरकार इतने गंभीर विषय पर संवेदनहीन बनी हुई है।
पुलिस का काम
कानून-व्यवस्था बनाए रखना है,पुलिस का काम सुचारू यातायात बनाए रखना है , इसके लिए वह वेतन लेती है, जनता की गाढ़ी कमाई से निकले टैक्सों से यह वेतन दिया जाता
है। लेकिन जब पच्चीस-पचास लोग नारे लगाते हुए चौराहों पर लेट जाते है। तो पुलिस
मूक दर्शक बनी रहती है, इंतजार करती है, लंबे ट्राफिक जाम का या फिर स्थिति बिगड़ने का और उसके बाद अपनी चरम-कार्यवाही
यानी बल प्रयोग पर उतारू हो जाती है। साफ दिखता है कि पुलिस का प्रशिक्षण ऐसे
हालातों से निबटने के नाम पर शून्य है, वह अभी भी अंग्रेजों की नीति-‘‘ पहले हालात बिगड़ने दो और
फिर उसे संभालने का श्रम करो’’ पर चल रही है। भीड़ के जमा होने से रोकना, आम लोगों के जनजीवन केा नुकसान पहुचाने वाले लोगों पर कड़ी
कार्यवाही करना, गुप्तचर
सूचनाओं के आधार पर उपद्रवियों के इरादे भांपना और उसके अनुसार ‘प्रिवेंटिव’
कार्यवाही करना जैसे पुलिस भूल ही चुकी है।
अब समय आ गया है कि विधि
आयोग की सिफारिशों के अनुरूप नई बन रही
भारतीय न्याय संहिता में देश के विकास में
व्यवधान बनी ऐसी हरकतों को सख्ती से रोकने के लिए प्रावधान किये जाएँ और इसमें
संबंधित अधिकारियों को अधिक जिम्मेदार बनाया जाए । इस तरह की हरकतों में शामिल
राजनेताओं पर भी कुछ पाबंदियाँ हों।
बिजली, पानी या पुलिस या हर तरह की दिक्कत का हल सडक रोककर तलशने
वालों को चुनाव लड़ने से रोकने जैसे पाबंदी लगाना समय की मांग है। ऐसे मामलों में
वीडियो रिकार्डिंग को पर्याप्त सबूत मान कर मामले का संज्ञान लेना होगा। इसी तरह
शादी या पारिवारिक या धार्मिक आयोजनों के नाम पर सड़क के परिवहन को बाधित करने पर
समाज और सरकार दोनों को ही गंभीरता से कदम उठाने होंगे। इससे पर्यावरण को नुकसान
है, ईंधन खपत से लोगों की जेब ढीली होती है- दिक्कतें होती हैं सो अलग।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें