My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

late snow fall impact on country

 

“चिल्ला बच्चा” में “चिल्ला कलाँ” के क्या मायने  हैं ?



पंकज चतुर्वेदी

इस साल का जनवरी महीना कश्मीर के लिए अभी तक का सबसे गरम रहा। वहीं फरवरी जाते-जाते इस राज्य को बर्फ की घनी चादर में लपेट चुकी है । मौसम विभाग के माने तो  फरवरी के आखिरी दिनों में फिर से जम कर बर्फबारी होगी ।  23 फरवरी की रात गुलमार्ग में शून्य से 10.4 और पहलगांम  में 8.6 डिग्री नीचे तापमान वाली रही। धरती के स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर में क्या देर से हुई बर्फबारी महज एक असामान्य घटना है या फिर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का संकेत ? यह बात गौर करने की है कि बीते कुछ सालों में कश्मीर  लगातार असामान्य और चरम मौसम की चपेट में है। अभी 21 फरवरी को गुलमार्ग में बर्फीले तूफान का आना भी चौंकाने वाला है ।  जान लें  देर से हुई बर्फबारी से राहत तो है लेकिन इससे उपजे खतरे भी हैं ।


कश्मीर घाटी को सुंदर , हरा भरा , जलनिधियों से परिपूर्ण और वहाँ के वाशिंदों के लिए जीवकोपार्जन का मूल आधार है – जाड़े का मौसम । यहाँ जाड़े के कुल  70 दिन गिने जाते हैं । 21 दिसंबर से 31 जनवरी तक “ चिल्ला – ए –कलाँ “ यानि शून्य से कई डिग्री नीचे वाली ठंड । इस बार यह  45 दिनों का  समय बिल्कुल शून्य बर्फबारी का रहा । उसके बाद बीस दिन का “चिल्ला-ए – खुर्द” अर्थात छोटा जाड़ा  , यह होता है -31 जनवरी से 20 फरवरी। इस दौर में बर्फ शुरू हुई लेकिन उतनी नहीं जीतने अपेक्षित है । और उसके बाद 20 फरवरी से 02 मार्च  तक बच्चा जाड़ा  यानि “चिल्ला ए बच्चा “।  इस बार बर्फबारी इस समय में हो रही है ।



सत्तर दिन की बर्फबारी 15 दिन में सिमटने से दिसंबर और जनवरी में हुई लगभग 80-90 प्रतिशत कम बर्फबारी  की भरपाई तो हो नहीं सकती । उसके बाद गर्मी शुरू हो जाने से साफ जाहिर है कि जो थोड़ी सी बर्फ पहाड़ों पर आई है , वह जल्दी ही पिघल जाएगी । अर्थात आने वाले दिनों में एक तो ग्लेशियर पर निर्भर नदियों में अचानक बाढ़ या आसक्ति है और फिर अप्रेल में गर्मी आते-आते वहाँ पानी का अकाल हो सकता है ।

भारत में हिमालयी क्षेत्र का फैलाव 13 राज्यों व  केंद्र शासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में है, जो लगभग 2500 किलोमीटर। भारत के मुकुट कहे जाने वाले हिमाच्छादित पर्वतमाला की गोदी में कोई पाँच करोड़ लोग  सदियों से रह रहे हैं । चूंकि यह क्षेत्र अधिकांश भारत के लिए पानी उपलब्ध करवाने वाली नदियों का उद्गम है , साथ ही यहाँ के ग्लेशियर  धरती के गरम होने को नियंत्रित करते हैं, सो  जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह सबसे अधिक संवेदनशील है ।

जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। इस सर्दी में हिमालय, हिंदू कुश और काराकोरम में बर्फबारी की असामान्य अनुपस्थिति के चलते गर्म तापमान रहा  है। चरम ला नीना-अल नीनो स्थितियों और पश्चिमी विक्षोभ मौसम इस तरह असामान्य रहा । जलवायु संकट के प्रतीक ये बदलाव पर्वतीय समुदायों और हिंदूकुश-हिमालयी क्षेत्र में जल सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा करते हैं। यह समझना होगा कि सर्दियों में कम बर्फबारी का कारण  अल नीनो नहीं है। अल- नीनो के कारण केवल गर्मियों और मानसून की बारिश प्रभावित होती  है।  महज एक या दो साल बर्फ रहित सर्दी का जिम्मेदार   'जलवायु परिवर्तन' को ठहरना भी जल्दबाजी होगा। यह अभी वैज्ञानिक कसौटी पर सिद्ध होना बाकी है ।   विदि त हो कि पहाड़ों पर रहने वाले लोग आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं । वे अपना निर्वाह खेती और पशुधन पालन से करते हैं । उनके खेत छोटे होते हैं। लगभग बर्फ रहित या देर से सर्दी का प्रभाव उन  लोगों के लिए विनाशकारी हो सकता है। 

 ऊंचे पहाड़ों पर खेतों में बर्फ का आवरण आमतौर पर एक इन्सुलेशन कंबल के रूप में कार्य करता है। बर्फ की परत से उनके फसलों की रक्षा होती है, कांड-मूल जैसे उत्पादों की वृद्धि होती है, पाले का प्रकोप नहीं हो पाता । साथ ही बर्फ से मिट्टी का  कटाव भी रुकता है। पूरे हिमालय क्षेत्र में कम बर्फबारी और अनियमित बारिश से क्षेत्र में पानी और कृषि वानिकी सहित प्रतिकूल पारिस्थितिक प्रभाव पड़ने की संभावना है।

अगर तापमान जल्दी ही बढ़ जाता है तो तो देर से होने वाली बर्फबारी और भी अधिक त्रासदी दायक होगी । इससे जीएलओएफ (हिमनद झील के फटने से होने वाली बाढ़) अचानक बाढ़ आएगी और घरों, बागानों  और मवेशियों को बहा ले जाएगी।  गर्मी से यदि ग्लेशियर अधिक पिघले तो आने वाले दिनों में पहाड़ी राज्यों में स्थापित सैंकड़ों मेगा वाट की जल विद्धुत परियोजनाओं पर भी संकट या सकता है । लंबे समय तक सूखे के कारण झेलम और अन्य नदियों का जल स्तर अभी से नकारात्मक सीमा में है ।

कश्मीर में जल शक्ति विभाग के मुख्य अभियंता संजीव मल्होत्रा नस्वीकार करते हैं कि  समय पर बर्फबारी और बारिश की कमी के कारण सतही जल स्रोतों के जल स्तर में उल्लेखनीय कमी आई है। इससे आने वाले हफ्तों में

प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक और इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी कश्मीर के कुलपति, शकील अहमद रोमशू का कम और बेमौसम बर्फ को लेकर अलग ही आकलन है । उनका कहना है इससे कश्मीर घाटी में प्रदूषण  स्तर बढ़ेगा और स्वास्थ्य जोखिम भी  पैदा होंगे ।

उत्तराखंड में मसूरी से ऊपर बर्फबारी और बारिश न होने से मौसम खुश्क बना हुआ था , बारिश की कमी और पाले की मार से किसानों की फसलें दम तोड़ गई । जिसके चलते पहाड़ी क्षेत्र चकराता में जहां किसान कैश क्रॉप कहीं जाने वाली फसल अदरक, टमाटर, लहसन, मटर पर ही अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है, ये सभी फसलें इन दिनों बदहाली के दौर से गुजर रही हैं। वहीं पहाड़ी क्षेत्र में समय से बर्फ ना गिरने की वजह से सेब,आडू और खुमानी की पैदावार कमजोर हो गई ।

हमारे देश के सम्पन्न अर्थ व्यवस्था का आधार खेती है और  खेती बगैर सिंचाई के हो नहीं सकती । सिंचाई के लिए अनिवार्य है कि नदियों में जल-धारा अविरल रहे लेकिन नदियों में जल लाने की जिम्मेदारी तो उन बर्फ के  पहाड़ों की है जो गर्मी होने पर धीरे धीरे पिघल कर देश को पानीदार बनाते हैं । साफ है कि आने वाले दिनों में न केवल कश्मीर या हिमाचल, बल्कि सारे देश में जल संकट खड़ा होगा ही । जल संकट अपने साथ

सवाल यह उठता है कि इस अनियमित मौसम से कैसे बचा जाए ? ग्लोबल वार्मिंग या अल –नीनो को दोष देने से पहले हमें स्थानीय ऐसे कारकों पर विचार करना होगा जिससे प्रकृति कूपित है। जून 2022 में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान (जीबीएनआईएचई) द्वारा जारी रिपोर्ट 'एनवायर्नमेंटल एस्सेसमेन्ट ऑफ टूरिज्म इन द इंडियन हिमालयन रीजन' में कड़े शब्दों मे कहा गया था कि हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में बदलाव आ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जंगलों का बढ़ता विनाश भी इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है। यह रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) को भेजी गई थी । इस रिपोर्ट में हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों के वाहनों और इसके लिए बन रही सड़कों के कारण वन्यजीवों के  आवास नष्ट होने और जैवविविधता पर विपरीत असर की बात भी कही गई थी।

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Why do border fishermen not become an election issue?

                          सीमावर्ती मछुआरे क्यों नहीं बनते   चुनावी मुद्दा ?                                                   पंकज चतुर्व...